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खुशवंत सिंहः मर्दों को बलात लुभाने में अमृता अत्यंत आनंद पाती थी और मैं भी अपवाद न था

लेखिका अमृता शेरगिल उनकी पड़ोसन हुआ करती थीं. डेथ ऐनिवर्सरी पर खुशवंत सिंह का एक संस्मरण.

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खुशवंत सिंह. अमृता शेरगिल का एक पोर्टेट.
अमृता शेरगिल. कहने को इंडिया की सबसे बड़ी महंगी पेंटर. सबसे बोल्ड कलाकार. लेकिन हमको वो लगती हैं अलग तरह की कबीर दास. किसी से न डरने वाली. न किसी फतवे की परवाह करने वाली. अपने जमाने में जैसी धुंवाधार पेंटिंग वो बना कर गई. आज कोई सोच कर भी दिखाए. वो भी औरत होकर. पहले तो खुद उसकी हिम्मत न पड़ेगी. अगर पड़ भी जाए तो उसकी कला से देश की संस्कृति को खतरा बताने वाले बैठे हैं. किसी न किसी टाइप की पॉलिटिक्स में बांध कर हो जाएगा उनका देश निकाला. पड़ोसी देश भेज दी जाती. हालांकि पड़ोसी देश का लाहौर उनकी आखिरी आरामगाह बना. जो तब हमारा पड़ोसी नहीं था.  धाकड़ राइटर खुशवंत सिंह ने उनको किसी जमाने में अपनी पड़ोसन बताया है. जिसने उन पर अपने हुश्न का जादू बिखेरने की कोशिशें की. अपनी किताब 'death at my doorstep' में कुछ कुछ याद सी ताजा की है. उसके हिंदी अनुवाद  'मृत्यु मेरे द्वार पर' से लिखा वह टुकड़ा लाए हैं हम आपके लिए. पढ़ो खुशवंत सिंह का एक्सपीरिएंस उनके शब्दों में, पड़ोसन अमृता के साथः
सुनने में आया कि गर्मी के महीनों में वह और उसका हंगेरियाई चचेरा भाई-पति, जो पेशे से एक डॉक्टर था और अमृता का आखिरी पति भी, ने लाहौर में मेरे निवास के ठीक सामने सड़क के उस पार एक अपार्टमेंट लिया. वह यहां अपनी मेडिकल प्रैक्टिस चलाना चाहता था और अमृता अपना पेंटिंग स्टूडियो बनाना चाहती थी. उन लोगों ने लाहौर को अपना घर क्यों बनाया इसका मुझे कोई इल्म नहीं था. इस शहर में उसके दोस्तों और प्रशंसकों की तादाद काफी ज्यादा थी. उसके सिख पिता की ओर से भी, बढ़िया जमीन जायदाद वाले संबंधी थे जो लाहौर उसके यहां नियमित रूप से आते जाते थे. ऐसा प्रतीत हो रहा था कि भारत में कहीं अपनी जिंदगी शुरू करने से बढ़िया उसे लाहौर लगा. सन 1941 का वह जून का महीना था. मेरी पत्नी अपने सात महीने के बच्चे राहुल को लेकर गर्मी बिताने मशोवरा स्थित मेरे पैतृक गृह- सुंदरवन, जो शिमला से सात मील आगे था, चली गई थी. मैं अपना सुबह का समय हाईकोर्ट में काफी का प्याला हाथ में थामे वकीलों के साथ गपशप करने में या फिर जजों के सामने बहस किए जाने वाले केसों को सुनते हुए बिताता. मेरे पास खुद के लड़ने के लिए कोई केस नहीं था. पर बावजूद इसके मैं काला कोट, कालर के ऊपर उजला फीता लगाकर हाथ में काला गाउन पकड़े चलता था, ताकि लोगों को यह लगे कि मैं काफी व्यस्त हूं. शाम को 'कॉस्मोपॉलिटन क्लब' में टेनिस खेलने जाने से पहले मैं दोपहर के भोजन और फिर दीर्घकालीन आराम फरमाने के लिए घर वापस लौटा करता था. self एक दिन दुपहरिया में, जब मैं घर लौटा तो पाया कि मेरा फ्लैट किसी महंगे फ्रांसीसी इत्र की खुशबू से गमक रहा था. बैठकखाना सह-पुस्तकालय की मेज पर एकदम ठंडे बीयर का बड़ा-सा चांदी का प्याला पड़ा था. मैं दबे पांव रसोई में पहुंचा और रसोइये से आगंतुक के बारे में पूछा. ''कोई मेम साहब साड़ी में थी''- उसने मुझे बताया. उसने मेमसाहब को यह भी बताया था कि मैं किसी भी वक्त भोजन के लिए आ सकता हूं. उसने खुद ही फ्रिज से बीयर की बोतल निकाल कर परोसी थी और खुद को तरोताजा करने गुसलखाने गई थी. मुझे इसमें जरा भी शक नहीं था कि यह अनिमंत्रित महिला अतिथि अमृता शेरगिल को छोड़ कर कोई और नहीं है. उसके लाहौर आने से कई सप्ताह पहले ही, अपने चचेरे भाई से शादी करने से पूर्व, यहां उसके आने जाने के क्रम में उसकी करतूतों की कहानियां मैंने सुन रखी थीं. वह प्रायः फलेत्ती के होटल में टिका करती थी. कहा जाता था कि वह प्रति दो घंटे के अंतराल पर अपने प्रेमियों से मिला करती थी. यानी रात में सोने जाने से पहले एक दिन में छह से सात बार. अगर यह बात सच है (वैसे मर्दों की बात औरतों की बनिस्बत कम विश्वसनीय होती है) तो अमृता के जीवन में प्यार का अंश कम ही था. सेक्स, उसके लिए मायने रखता था. वह 'निमफोमेनिया' की एक वास्तविक रोगी थी और उसके भतीजे विवान सुंदरम के प्रकाशित विवरणों के अनुसार वह समलैंगिक थी. उसके रहन-सहन के तरीके के बारे में बदरुद्दीन तैयब जी ने अपने संस्मरण में पूरी तफ्सील से लिखा है. जाड़े के दिनों में, जब वह कभी शिमला में था, तो उसने अमृता को रात के खाने पर आमंत्रित किया. सर्दी से बचने के लिए उसने आग जला रखी थी. ग्रामोफोन पर पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत बज रहा था. उसने अपनी पहली शाम तो साहित्य और संगीत पर चर्चा कर व्यर्थ में गवां दी. उसने उसे एक बार फिर आमंत्रित किया. वहां पहले की तरह कुंदे की आग थी और वही पुराना संगीत बज रहा था. इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता, अमृता ने झट अपने सारे कपड़े उतार दिए और दरी पर एकदम निर्वस्त्र लेट गई. वह समय बर्बाद करने में यकीन नहीं रखती थी. यहां तक कि बेहद उपयुक्त बदरुद्दीन तैयबजी को भी यही संदेश मिला था. सालों बाद, एक प्रसिद्ध लेखक माल्कोम मुगरिज ने मुझे बताया कि उसने अमृता के पैतृक घर 'समर हिल्स' शिमला में उसके साथ एक सप्ताह बिताया. उस समय माल्कोम अपनी जवानी के चरमोत्कर्ष पर थे, यानी यही कोई बीस-पच्चीस साल के. पर सप्ताह भर में ही उसने उन्हें चिरकुट में बदल डाला. ''मैं उसकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाया''- उन्होंने इसे स्वीकारते कहा. ''मैं कलकत्ता वापस लौटने से बेहद खुश था.'' इस प्रकार के चर्चे वाली अमृता, अपनी ओर किसी मर्द को ऐसे ही खींच लेती थी जैसे कोई चुमबक लौह कणों को. मर्दों को बलात अपनी ओर आकर्षित करने में वह अत्यंत आनंद का अनुभव करती थी. मैं भी इसका अपवाद नहीं था. उसने मेरे कमरे में अपना पैर रखा नहीं कि मैं उसका स्वागत करने के लिए उठकर खड़ा हो गया. 'तुम अमृता शेरगिल हो'- मैंने पूछा. उसने हामी में अपना सिर हिलाया. बिना पूछे वह मेरा बीयर पी गई थी, इस बात पर बिना किसी प्रकार की कोई माफी मांगे वह मुझसे वहां मिलने क्यों आई थी, उस बात पर आ गई. वे सबकी सब दुनियादारी की बातें थी, जिसने हमारी पहली मुलाकात में से रोमांस को खत्म कर दिया था. वह पास पड़ोस के नल लगाने वाले कारीगर, धोबी, बढ़ई, रसोइया और नौकर आदि के बारे में पता करने आई थी जिन्हें वह जरूरत पड़ने पर बुला सके. जब वह लगातार बोले जा रही थी तो मैं उसे खूब गौर से देखे जा रहा था- छोटी कद-काठी, पीतवर्ण, बीचोबीच स्पष्टतः मांग निकाली गई काली केश राशि, मोटे मादक होंठ, जिन पर भड़कदार लाल रंग की लिपस्टिक लगी थी, मोटी सी नाक, जिस पर काले काले दाने साफ नजर आ रहे थे. उसे किसी भी लहजे से सुंदर तो बेशक नहीं, हां एक अच्छे चेहरे-मोहरे वाली, दर्शनीय तो कहा ही जा सकता था. Amrita_Sher-Gil_Self-portrait उसके स्वयं द्वारा बनाए गए खुद के चित्र आत्मरति के कारनामे थे. नग्नावस्था में उसने जैसे स्वयं को चित्रित किया था, उसका शारीरिक सौष्ठव संभवतः उतना ही अच्छा था. पर मेरे पास यह जानने-देखने का कोई तरीका नहीं था कि उसने आखिरकार अपनी साड़ी के नीचे क्या कुछ छुपा रखा है. एक बात जो मैं उसके बारे में नहीं भूल पाया था, वह था उसका उतावलापन. जब अपनी पूरी बात खत्म कर ली तो उसने उस कमरे में चारों ओर अपनी नजरें दौड़ाई. कुछ पेंटिंग्स की ओर इशारा करते मैंने उसे बताया कि ये मेरी पत्नी ने बनाई हैं. वह एक शौकिया चित्रकार हैं. उसने उस पर एक सरसरी नजर डाली और झट उपहास से बोल पड़ी- 'देखने से ही लगता है.' मैं उसकी इस धृष्टता से पल भर के लिए हतप्रभ रह गया और इसका प्रतिकार कैसे करूं, समझ नहीं पाया.