11 साल का था मैं. फरवरी शुरू ही हुई थी. सुबह-सुबह एक खबर चली टीवी पर. जो जितना समझ आया वो ये था कि कोलंबिया जमीन को लौटते हुए क्रैश हो गया, और कल्पना चावला नहीं रहीं. वो कल्पना चावला जिन्हें हमने स्कूल की किताबों से जाना था. जीके की किताबों से उनका नाम रटा था. वो नहीं रहीं. उन पर किताब लिखी है. अनिल पद्मनाभन ने. 'कल्पना चावला सितारों से आगे'. प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी. आज पढ़िए उसी का एक हिस्सा.
सपनों की चुनौती स्वीकारी ली कॉरबुजियर द्वारा स्थापित चंडीगढ़ नगर की रूपरेखा योजनाबद्ध रूप में स्थापत्य कला का प्रारंभिक प्रयोग था, जिसे सेक्टरों में संगठित किया गया है. इसमें 14 महाविद्यालय, एक राष्ट्रीय स्तर का विश्वविद्यालय, चिकित्सकीय शोध एवं स्नातकोत्तर स्वास्थ्य शिक्षा का केंद्र है. पंजाब इंजीनियरिंग महाविद्यालय सेक्टर 12 में स्थित है, जो स्नातकोत्तर महाविद्यालय के समीप है. प्रारंभिक पंजाब इंजीनियरिंग महाविद्यालय अभी भी लाहौर में स्थित है, जिसे विभाजन पूर्व ‘मैकलेगन इंजीनियरिंग महाविद्यालय’ कहा जाता था. भारत विभाजन के बाद भारतीय क्षेत्र में पूर्वी पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज, जो प्रारंभ में थॉमसन इंजीनियरिंग कॉलेज, रुड़की (अब रुड़की विश्वविद्यालय के नाम से विख्यात) से संचालित होता था, जब तक कि वह अपने वर्तमान स्थान पर स्थापित नहीं किया गया था.
चंडीगढ़ के इस कॉलेज को धीरे-धीरे नया रूप मिला. केवल तीन विभागों- सिविल, इलेक्ट्रिकल और मेकैनिकल इंजीनियरिंग में सन् 1961 में पाँच नए विभाग जोड़े गए, जिनमें एयरोनॉटिक इंजीनियरिंग भी शामिल था. आरंभ से हिंदी, अंग्रेजी व गुरुमुखी में लिखा, हलके गुलाबी रंग के प्रशासनिक भवन को इंगित करता हुआ, एक नामपट्ट लगा हुआ है. संभवतः इसी स्थान पर शुरू-शुरू में कल्पना व उसके भाई संजय का अभिनंदन किया गया होगा, जब वे प्रवेश संबंधी औपचारिकता पूरी करने आए होंगे. उसके आगे महाविद्यालय परिसर है. दो सौ एकड़ भूमि में फैले घास के बड़े-बड़े मैदान, चौड़ी सड़कें, जिनके साथ अनेक विभाग, छात्रावास, संकाय, आवासीय गृह, एक क्रीड़ांगण तथा एक लघु व्यापार केंद्र है. दूसरे शब्दों में—एक बहुत ही सुनियोजित सामुदायिक केंद्र.
उड़ान की तीव्र इच्छा तथा इंजीनियरिंग विज्ञान के प्रति अभिरुचि के कारण कल्पना को विश्वास था कि उसका झुकाव उड़ान संबंधी इंजीनियरिंग शिक्षा की ओर होगा. यह इतना सरल था कि फ्लाइट इंजीनियरिंग के विषय में उसका अपना दृष्टिकोेण तथा अपनी परिभाषा थी. उसने उड़ान के दौरान वायुयान व उड़ान संबंधी संभावित समस्याओं को स्वयं ही परखा, अपनी पहली यात्रा पूरी कर लेने के बाद. इस प्रकार एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग उसकी अपनी पसंद थी. उस समय और वस्तुतः बाद में भी कुछ लोगों का कहना था कि प्रायः अधिकांश लोगों की रुचि सिविल, इलेक्ट्रिकल तथा मेकैनिकल विभागों की ओर होती थी; क्योंकि इनसे व्यावसायिक अवसर मिलने में ज्यादा सुविधा होती थी. इसीलिए प्रत्येक कक्षा में इन विषयों में सबसे ज्यादा छात्र, 90 तक, होते थे, जबकि एयरोनॉटिकल विभाग में कम छात्र होते हैं-प्रवेशार्थी पूरे होने पर भी 30 तक की कक्षा बनती थी. इसी को ध्यान में रखते हुए कल्पना को कॉलेज के प्राचार्य ने एयरोनॉटिकल विभाग के बजाय अन्य कोई सुविधायुक्त विभाग चुनने के लिए परामर्श दिया था; किंतु वह टस-से-मस नहीं हुई थीं और अंततः प्राचार्य को ही अपना विचार बदलना पड़ा था. उसके निर्णय का आधार उसके विचारों से प्रभावित था कि फ्लाइट इंजीनियर ही वायुयान को अच्छा बना सकता है और वायुयान बनाने के लिए उसे फ्लाइट इंजीनियर ही बनना है. कुछ वर्षों के बाद उसने नासा को दिए एक साक्षात्कार में बताया था, ‘वायुयान की रूपरेखा का निर्माण ही मैं सीखना चाहती थी.’ उसकी छोटी उम्र की मासूमियत ने ही विषय चुनने में उसकी सहायता की और वह यह अवसर नहीं गवाँना चाहती थी. जब उसका भाई संजय वापस करनाल गया, कल्पना ने अपना आवास बदलकर महिला आवासीय परिसर में कर लिया था. उस समय तक पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज में कल्पना का तीसरा छात्रा दल था. उसके दल में कुल सात छात्राएँ थीं, इसलिए छात्रावास से चार किलोमीटर की दूरी अकेले या साइकिल पर ही तय करनी पड़ती थी. दो वर्ष बाद पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज में महिला हॉस्टल ‘हिमगिरि’ स्थापित किया गया था. अपने निराले पहनावे के कारण भी विश्वविद्यालय में कल्पना की अलग पहचान बन गई थी. उसका जींस पहनना उत्तर भारत की लड़कियों के समान सलवार-कमीज से हटकर था, जिससे उसके सहपाठी उसे ‘यंक’ उपनाम से पुकारने लगे थे.
प्रारंभ में आठ छात्रों की कक्षा में कोई लड़का ही छात्र नेता बनता था, किंतु प्रथम वर्ष के बीतने के बाद इसमें परिवर्तन हुआ. कल्पना का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गुण था उसकी लगनशीलता और जुझारू प्रवृत्ति. प्रफुल्ल स्वभाव तथा बढ़ते अनुभव के साथ कल्पना न तो काम करने में आलसी थी और न ही असफल होने से घबरानेवाली थी. अपने ऐसे स्वभाव के कारण वह प्रतिकूल परिस्थितियों में सफल होकर निकलती थी. धीरे-धीरे निश्चयपूर्वक युवा कल्पना ने लैंगिक भेदभाव से ऊपर उठकर काम किया तथा कक्षा में अकेली छात्रा होने पर भी उसने अपनी अलग छाप छोड़ी.
‘यद्यपि मैं उससे वरिष्ठ थी, फिर भी पता चला कि शीघ्र ही अपनी कक्षा में वह सर्वश्रेष्ठ हो गई. साधारण सी दिखनेवाली वह लड़की सबको वार्त्तालाप में शामिल कर लेती थी.’
ये शब्द हैं रविंदर मीराखुड़ के, जिन्होंने उससे दो वर्ष पूर्व सन् 1980 में स्नातक की शिक्षा पूरी की थी. आज वह महाविद्यालय उसके मातृ-विश्वविद्यालय की भाँति कल्पना की पहली अंतरिक्ष यात्रा के बाद अनगिनत स्मृति-चिह्नों से भरा पड़ा है. सन् 1997 में कोलंबिया अंतरिक्ष यात्रा के छह सदस्यीय दल द्वारा हस्ताक्षरित पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों, अध्यापकों तथा कर्मचारियों को संबोधित एक संदेश भेजा गया था—‘सितारों तक ऊँचे उठो’. पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज की दीर्घा में कल्पना तथा कोलंबिया के छह अन्य साथी अंतरिक्ष यात्रियों का सामूहिक चित्र प्रदर्शित किया गया है. पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज में बिताए वर्षों में प्रायः सभी ने उसकी दृढ़ मनोवृत्ति को देखा था. जैसे कि मीराखुड़, जो लगभग एक दशक से अमेरिका में रह रही हैं, ने बताया, ‘वह अत्यधिक उत्साही थी—आगे रहनेवाली, किसी तेज-तर्रार सी, भिड़नेवाली. जब वह अपनी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने लगी थी तो बहुत ही सुव्यवस्थित होने लगी थी.’ दृढ़ संकल्पों वाली कल्पना अपने आगामी कदमों के विषय में भलीभाँति सोच लेती थी. जहाँ अन्य लड़कियाँ स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद संभावित विवाह संस्कार तथा अच्छी सी नौकरी के विषय में सोचती थीं, वहीं कल्पना के विचार इनसे भिन्न थे. कॉलेज के वातावरण ने उसे तनिक भी विचलित नहीं किया था. इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम के कठोर एवं व्यस्त क्रियाकलापों के बीच अन्य कुछ सोचने के लिए समय ही कहाँ होता था. परिणामस्वरूप पाठ्यक्रम, प्रयोगशाला तथा छात्रावास ही उसकी सीमा बन गए थे. इसके बावजूद उसने कभी भी कॉलेज के अन्य क्रियाकलापों में भाग लेना नहीं छोड़ा. महाविद्यालय के उत्सव/समारोहों में सक्रिय भाग लेना, वार्षिक खेलकूद दिवस मनाने के साथ-साथ पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज के एस्ट्रो व एयरो (वैमानिकी व अंतरिक्ष संभाग) के कार्यकलापों को वह पूरा सहयोग देती थी. एक अवसर पर उसके एक प्रोफेसर ने उसकी कक्षा में प्रश्न किया कि क्या उन्होंने ‘दोज मैग्नीफिशिएंट मेन इन देयर फ्लाइंग मशीन्स’ देखी है? कल्पना, जिसने वह फिल्म देखी थी, आश्चर्यचकित रह गई जब पूरी कक्षा ने इसे न देख पाने के लिए खेद व्यक्त किया. उसने तुरंत स्थानीय वीडियो पार्लर से फिल्म का वीडियो टेप, वीडियो रिकॉर्डर और टेलीविजन किराए पर मँगाकर वह फिल्म सबको दिखाई. यह सन् 1982, रंगीन टेलीविजन शुरू होने के दो वर्ष पहले, की घटना है. निस्संदेह पूरी कक्षा के लिए वह एक महान् दिवस था. पीईसी (पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज) में बीते समय को याद करते हुए कल्पना ने सी ई एम को बताया,
‘एयरोस्पेस इंजीनियरिंग पढ़ते हुए मुझे बढ़ा आनंद आता था. वह बिलकुल भी उबानेवाला विषय नहीं था. मैं लोगों से कहना चाहती हूँ कि जो अंतरिक्ष यात्री बनना चाहते हैं, वे कक्षा के कार्यक्रम से क्यों घबराते हैं. मेरा कहना है कि जो कुछ भी आज करें, उसका पूरा आनंद लें, यह भी महत्त्वपूर्ण है.’
अनेक तरह से कल्पना की मनोवृत्ति का आधार यही रहा, जिसे उसके अध्यापकों ने हमेशा उसमें देखा—चाहे वह प्राथमिक स्कूल हो, पीईसी या बाद में अमेरिका में हो. प्रो. एस.सी. शर्मा, जिन्होंने कल्पना को पढ़ाया था, ने बताया कि उसे सदा इस बात का ध्यान रहता था कि वह अपनी कक्षा में अकेली लड़की थी और यह कहती थी कि यदि लड़के कोई काम कर सकते हैं तो वह भी कर सकती है. किंतु इस प्रवृत्ति के होते हुए भी इसमें संदेह था कि कल्पना करनाल में रहते हुए कुछ कर पाती. उसके चंडीगढ़ जाने का भी परिवार में विरोध हुआ था. आश्चर्य की बात है कि अनेक बार पारिवारिक सदस्यों व उसके बीच मतभेद सामने आए, मगर उसने कभी अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए परिवार से संबंध नहीं तोड़े. बाद में परिवार को भी उसके विचारों से सहमत होना पड़ता था. उसकी बड़ी बहन का इसमें बड़ा सहयोग रहता था. कल्पना ने अपनी शिक्षा के विषय को लेकर परिवार की रूढ़िवादिता कभी नहीं चलने दी, साथ ही माँ संज्योति का अंतर्मन से अपनी छोटी बेटी को हमेशा भरपूर सहयोग मिलता था. अंतरिक्ष यात्री के रूप में शिक्षा के लिए पीईसी में प्रशिक्षण बहुत कठिन होता था. यहीं उसने वायुयान चलाने के सिद्धांत तथा वायुगतिकी व वायुयान संबंधी साजो-सामान की जानकारी प्राप्त की. यह सब उसने चंडीगढ़ में इंजीनियरिंग स्नातक की शिक्षा पाते हुए सीखा था. इसे विडंबना ही समझना चाहिए कि तीव्र गति के एयरो-डायनेमिक्स, जिसके विषय में इंजीनियरिंग स्नातक की तैयारी के समय चंडीगढ़ में ज्ञान प्राप्त किया था, वही अंतरिक्ष उड़ान तक साथ देता रहा. जैसा कि प्रोफेसर वाई.एस. चौहान ने कॉलेज द्वारा आयोजित स्मृति-बैठक में अपने संस्मरण में बताया कि उन्होंने ही कल्पना को इन विषयों की शिक्षा दी थी और वी.एस. मल्होत्रा ने तीव्र गति के सहारे एयरो-डायनेमिक्स, थर्मो-डायनेमिक्स तथा फ्लूड-डायनेमिक्स पढ़ाया था. यह सचमुच बड़ा अजीब सा लगता है कि ये ही विषय शटल के टूटने-बिखरने का कारण बने. किंतु उसे पूरा आत्मसंतोष था कि जिसे वह करती थी उसे पुनः दोहराती थी. यद्यपि इंजीनियरिंग की पढ़ाई के वर्षों में की गई मेहनत उसे आनेवाले जीवन के लिए सक्षम बनाती थी. इस अवधि में छात्रों का घर-परिवार से मिलने के लिए जाना बहुत होने लगा. कल्पना भी घर जाकर परिवार के लोगों से मिलना चाहती थी, जो वर्षों में ही हो पाता था. ऐसे ही एक अवसर पर, जब कल्पना घर आई हुई थी, चावला परिवार के एक मित्र खुशीराम चुग के यहाँ एक रात्रि दावत थी. बहुत पहले, सन् 1977 में चुग की भेंट श्री चावला से तब हुई थी, जब वे अपने व्यापार के सिलसिले में अमेरिका गए थे. सामान्य परिचय धीरे-धीरे घनिष्ठ मित्रता में बदलता गया.
सन् 1979 की गरमियों के दिन थे. कल्पना का एयरोनॉटिक्स की डिग्री का एक वर्ष पूरा हो गया था. चुग चावला परिवार के अतिथि-सत्कार से अत्यधिक प्रभावित हुआ था. खुले आकाश और तारों की रोशनी में, एक युवा लड़की की मेधावी मुसकान—जिसकी आयु उन्नीस की रही होगी देखकर वह हर्षित हुआ था.
एक वर्ष बाद संजय ने अमेरिका जाने का मन बनाया तो इस पारिवारिक मित्र ने मेजबान बनने की सहर्ष स्वीकृति दी और अमेरिकी दूतावास कार्यालय तक के सारे काम कराए. चुग याद करते हुए बताते हैं, ‘मैंने कागज के एक टुकडे़ पर लिखा कि मैं उसका नाम प्रस्तावित कर रहा हूँ और अपना ग्रीन कार्ड नंबर उसमें लिख दिया. इससे उसे वीजा मिल गया और मुझे याद है कि उसके साथ मैं जॉर्जिया, तेनेसी और फ्लोरिडा गया था.’ उसके बाद संजय अपना पारिवारिक व्यवसाय सँभालने के लिए घर (भारत) वापस आ गए थे. चुग के साथ चलनेवाली बैठकों तथा अपने भाई संजय की अमेरिका यात्रा से किशोरी कल्पना के मन में भी उमंगें उठने लगीं. जो भी कारण हो, किंतु उसने अपनी आगे की पढ़ाई अमेरिका में ही जारी रखने का निर्णय लिया. तब किसी को नहीं पता था कि उसके अमेरिका जाने का योग चुग की अमेरिका यात्रा से ही जुड़ा हुआ था. तभी उसे लगने लगा था कि वायुयान डिजाइन की शिक्षा का अंत इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री लेने तक ही सीमित नहीं है. उसने सदा अपनी महत्त्वाकांक्षा को मन में सँजोए रखा और इस बीच अपनी स्नातक की परीक्षा में उच्च स्थान प्राप्त करने की ठान ली. अपने शैक्षणिक कार्यक्रम में आनंदानुभूति करते हुए उसे अपना ध्येय पूरा करने में आसानी हो गई. ‘शिक्षा मुझे सचमुच मजेदार लगने लगी.’ उसने 27 नवंबर, 2002 को टेक्सास विश्वविद्यालय में एक अखबार को बताया, ‘मुझे कक्षा में जाना और उड़ान क्षेत्र के विषय में सीखने व प्रश्नों के उत्तर पाने में बहुत आनंद आता था.’ यद्यपि आधारभूत सिद्धांतों के अध्ययन में उसने स्वयं ही कॉपी तैयार कर ली थी, किंतु वह जानती थी कि प्रायोगिक अनुभव प्राप्त करने के लिए अमेरिका ही एकमात्र उपयुक्त स्थान है. उसने आगे बताया, ‘स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद मुझे लगा कि इस विषय में मुझे उतना ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ जितना होना चाहिए. इसलिए मुझे पूरी तरह शुरू से ही सबकुछ जानने की इच्छा बनी रही.’
1970 के दशक तक अमेरिका अंतरिक्ष विज्ञान में बहुत पीछे था. करनाल जैसे छोटे नगर में मध्यम वर्गीय परिवार की होने के कारण कल्पना के पास न तो समुचित साधन थे और न ही परामर्शदाता, जो उसकी जिज्ञासा शांत करते. उसे स्वयं ही आत्मनिर्णय लेना होता था. उसे स्वयं ही सबकुछ करना होता था. इसलिए जब वह स्नातक की शिक्षा पूरी कर रही थी, तभी उसने अमेरिका के विश्वविद्यालयों से संपर्क करना शुरू कर दिया था. जब सन् 1982 में कल्पना ने अपनी स्नातक की परीक्षा दी तब उसने यूटीए पर अपना ध्यान केंद्रित कर लिया था कि वहाँ पर अनुसंधान व अध्यापन के अच्छे अवसर हैं. उसके अच्छे शैक्षणिक रिकॉर्ड को देखते हुए उसे भारत में अच्छी नौकरी मिलने में कोई कठिनाई नहीं होती. उसने पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज में अध्यापन कार्य के लिए हाँ कर ली. अमेरिका जाने की अपनी हार्दिक इच्छा के लिए परिवार की स्वीकृति मिलने का यह अच्छा अवसर था. तब तक यूटीए ने अपनी कागजी कार्रवाई पूरी कर ली थी, जिससे कल्पना को स्नातक कार्यक्रम में प्रवेश मिल सकता था.
आशा के अनुरूप परिवार से सहयोग नहीं मिल रहा था. परिवार कितना भी उदार क्यों न हो, उस समय अपनी लड़की को विदेश भेजने के लिए सोचना भी कठिन था. इससे न केवल पूरे खानदान में अनेक प्रश्न खड़े होते अपितु इतनी उच्च शिक्षावाली लड़की की शादी के लिए काफी मुश्किल हो जाती. किंतु मोंटू (कल्पना) के लिए मनाही नहीं थी. यद्यपि शुरू-शुरू में उसके विचार को खारिज किया गया था, मगर अपनी दृढ़ इच्छा को वह परिवारवालों के समक्ष तब तक रखती रही जब तक टेक्सास विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए कुछ ही दिन शेष रह गए थे. पूरा विषय अनायास ही उभरा. उसी समय अपने बेटे को प्रवेश दिलाने के सिलसिले में चुग का भारत आना हुआ. बनारसी लाल चावला अपने मित्र से मिलने चंडीगढ़ पहुँचे और हर प्रकार की सहायता करने के लिए अपने आपको प्रस्तुत किया. ‘मैं चंडीगढ़ में सरकारी अधिकारियों से नहीं मिल सका. कल्पना के पिता सप्ताह भर मेरे साथ रहे और हर जगह मेरे साथ गए.’ चुग ने बताया.
उसी दौरान चुग व श्री चावला एक दिन कल्पना के हॉस्टल गए. सभी का कुछ-न-कुछ पूर्व निश्चित कार्यक्रम था. कार में पिछली सीट पर बैठी कल्पना ने चुग से सामान्य परिचय और कुशल-क्षेम पूछा. उसी समय कल्पना ने चुग से कहा कि आप मेरे पिता को मुझे अमेरिका भेजने के लिए मना लें. चुग ने यह बात तुरंत स्वीकार कर ली थी और चावला की ओर मुड़कर कहा, ‘भाई साहब, आप उसे जाने क्यों नहीं देते?’ परंतु उस समय कल्पना के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब उसके पिता तुरंत तैयार हो गए और अपने परिवार के उस मित्र को ही कल्पना का अभिभावक बना दिया.
इस अनौपचारिक स्वीकृति के बाद कल्पना ने परिवार में अपनी बात पूरे जोश के साथ प्रस्तुत की. परंतु सब लोगों ने मुश्किल से ‘हाँ’ भरी—इस शर्त पर कि उसका भाई संजय भी साथ जाएगा. इस पर कुछ अड़चन पड़ी. यूटीए ने किसी प्रस्तावक का नाम देने के लिए कहा, जिससे कि उसे मिलनेवाली आर्थिक सहायता राशि उतनी की जा सके जिससे उसके शैक्षिक शुल्क आदि का भुगतान हो सके. सौभाग्य की बात थी कि एक सप्ताह के लिए चुग उनके साथ ही था. तब तक अगस्त मास आ गया और प्रवेश की अंतिम तिथि भी निकट आ गई. कल्पना फिर उससे मिली; क्योंकि विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए एक प्रस्तावक चाहिए, जिससे छात्र को पूरा वर्ष आर्थिक भार न उठाना पड़े. ‘मुझे केवल प्रवेश शुल्क देना था.’ चुग ने बताया. शिकागो वापस आने पर चुग ने तुरंत एक पत्र तथा आवश्यक धनराशि भेज दी, तो सारी बातें स्पष्ट हो गईं. अब केवल पासपोर्ट आदि की बात थी. अपनी स्वीकृति देने के बाद चावला ने अपनी बेटी के रास्ते में आनेवाली कठिनाइयों को दूर करना शुरू किया. चंडीगढ़ में अपने जाननेवालों से कल्पना के पासपोर्ट तथा ब्रिटिश एयरवेज से हवाई यात्रा के टिकट आदि का अविलंब प्रबंध कर दिया. तभी भाग्य आड़े आया. इंजन की खराबी के कारण हवाई जहाज की उड़ान रद्द हो गई. किंतु कल्पना के लिए चुग ने यूटीए से संपर्क साधा, जिससे कल्पना को अंतिम दिन निकल जाने पर भी प्रवेश की सुविधा मिल गई. निश्चय ही यह उसके आत्मविश्वास की फिर जीत हुई. ‘जब आप अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए जा रहे हों तो यात्रा शुभकारी ही होती है’—यह बात उसने यूनिवर्सिटी द्वारा अपनी पहली अंतरिक्ष यात्रा के बाद छपे समाचारों में कही थी—‘यदि आपको अपनी यात्रा में आनंद नहीं मिलता तो सारा मजा ही किरकिरा हो जाएगा और तब स्वयं से पूछना होगा कि क्या ऐसा करना ठीक था?’