पुरी में श्री जगन्नाथ का मंदिर है. जहां जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की पूजा की जाती है. 25 जून से इनकी रथ यात्रा शुरू हो गई. ये रथ यात्रा कैसे शुरू हुई, इसकी कहानी नीचे लिंक में है. कहते हैं हर साल भगवान 15 दिन की सिक लीव पर होते हैं. मतलब सर्दी-बुखार के चक्कर में हर साल 15 दिन की छुट्टी. इन 15 दिनों में भगवान की अलग सेवा की जाती है. आपको बताते हैं कि ये 15 दिन वाला कॉन्सेप्ट आया कहां से.
श्री जगन्नाथ हर साल रथ यात्रा पर निकलने से पहले 15 दिन की 'सिक लीव' पर क्यों रहते हैं?
25 जून से जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा शुरू हो गई है.

कई जगह लिखा है कि आज जो पुरी में मंदिर है, उसे बनवाना गंग वंश के राजा चोडगंग देव ने शुरू किया था. श्रीमंदिर का पूर्वी टॉवर, जिसे भग मंडप कहते हैं, वहां भगवान की पूजा करते हुए एक राजा की मूर्ति है. यहां जगन्नाथ अपने लकड़ी वाले फॉर्म में हैं, वहीं बलभद्र शिव लिंग के रूप में और सुभद्रा महिषासुर मर्दिनी दुर्गा के रूप में. यही डिट्टो मूर्ति कोणार्क टेंपल में भी है. जगन्नाथ को भगवान के अलग-अलग फॉर्म में भी पूजा जाता है. विष्णु तो वो हैं ही. इसके अलावा भगवान गणेश और सूर्य देवता के रूप में भी उन्हें पूजा जाता है. जगन्नाथ के ऐसे भी भक्त हैं, जो गणेश भगवान से ज़्यादा जुड़े हुए हैं. मान्यता है कि उन्हें खुश करने के लिए जगन्नाथ हाथी के मुंह वाला रूप भी ले लेते थे.
हर साल स्नान यात्रा निकाली जाती है. देवताओं को सजाया जाता है, ताकि वो भक्त खुश हो सकें, जो गणेश को भी उतना ही मानते हैं जितना जगन्नाथ को. जैसे गणेश भगवान जी को इस मंदिर में बहुत माना जाता है, वैसे ही सूर्य देवता को भी. रोज़ मंदिर में सूर्य देवता की भी पूजा होती है. मंदिर के मुक्ति मंडप में इनको पूजा जाता है. श्री जगन्नाथ मंदिर, ओडिशा की ट्राइबल कम्यूनिटीज़ के रीति रिवाज़ों और मान्यताओं से बहुत जुड़ा हुआ है. देवताओं का जो लकड़ी वाला लुक है, वो भी इन्हीं ट्राइबल कम्यूनिटी की वजह से आया है. इनमें से भी स्वरस ट्राइबल कम्यूनिटी सबसे आगे है. जब जगन्नाथ नीलमाधव के फॉर्म में थे, तब से स्वरस आदिवासी उनकी पूजा कर रहे हैं.
स्नान यात्रा के बाद देवता बीमार पड़ जाते हैं. फिर रिवाज़ के मुताबिक उन्हें सिर्फ फल खिलाए जाते हैं. कोई पका खाना नहीं. उनका जड़ी-बूटी से इलाज किया जाता है. जब तक सारे गर्मियों के फेस्टिवल खत्म नहीं हो जाते और रथ लौट कर नहीं आ जाते, तब तक देवताओं का ख्याल ट्राइबल कम्यूनिटी रखती है. जगन्नाथ इतने इंसानों जैसे हैं कि हर साल स्नान यात्रा के बाद उन्हें सर्दी-बुखार हो जाता है. यहां तक कि हर साल नवकलेवर फेस्टिवल में वो अपने पुराने शरीर से नए शरीर में ट्रान्सफर होते हैं. ब्रह्मा वो भगवान हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वो आत्मा को पुराने शरीर से नए शरीर में डालने का काम करते हैं.
रथ यात्रा के पहले फेज़ की शुरुआत अक्षय तृतीया से होती है. उत्तर भारत में जहां इस पर्व पर लोग सोने-चांदी जैसे महेंगे सामान खरीदते हैं, वहीं ओडिशा में नए मानसून की फसल के लिए जोताई का काम, इसी त्योहार से शुरू होता है. पुरी में अक्षय तृतीया के दिन, जगन्नाथ के गर्मियों में मनाए जाने वाले त्यौहारों की शुरुआत होती है. इन त्यौहारों की शुरुआत चंदन यात्रा से होती है. जो 6 हफ्तों तक 2 फेज़ में चलती है. पहला फेज़ 21 दिनों का होता है. जिसमें हर दिन देवताओं की मूर्तियां नरेंद्र टेंक तक ले जाई जाती हैं.
पुरी के शिव मंदिर में श्री जमेश्वर, श्री मार्कंडेय, श्री लोकनाथ, श्री कपालमोचन और श्री नीलकंठ की मूर्तियां हैं. जिन्हें पांच पांडव भी कहा जाता है, महाभारत के पांच भाई. दूसरे फेज़ में इन पांच भाईयों के साथ जगन्नाथ और बलराम की मूर्तियों को उत्तर दिशा में बाड़ा डंडा की तरफ़ ले जाया जाता है.
चंदन यात्रा के बाद आती है स्नान यात्रा. जो नहाने वाला फेस्टिवल होता है. इसे ज्येष्ठ महीने की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है. इसमें देवताओं को उनके स्थान से उतारकर, स्नान मंडप तक ले जाया जाता है. इसकी तैयारी एक दिन पहले से होने लगती है. ताड़ के पेड़ की लकड़ी से काम चलाऊ रेंप तैयार किया जाता है. जिसपर बैठाकर भगवान को स्नान मंडप तक लाया जाता है. स्नान यात्रा को स्नान पूर्णिमा भी कहते हैं. इस दिन सारे देवताओं को सजा कर हाथी का रूप दिया जाता है.
सभी भक्त देवताओं के इस हाथी रूप को देख सकते हैं. बाद में देवताओं का ये हाथी लुक हटाया जाता है और वापस उनके मंदिर लौटने की तैयारियां शुरू हो जाती हैं. एक-एक करके देवताओं को ले जाया जाता है. जैसे ही देवता वापस मंदिर पहुंचते हैं, स्नान यात्रा खत्म हो जाती है. लेकिन मंदिर पहुंचने का ये मतलब नहीं है कि भगवानों को वापस सीधे उनकी जगह बैठा दिया जाएगा. अंदर मंदिर के आख़िरी दरवाज़े के पास खुली जगह में उन्हें बैठाया जाता है. वो वापस अपनी जगह तभी बैठते हैं, जब रथ यात्रा पूरी खत्म हो जाती है.
स्नान यात्रा के बाद ज़रूरी है कि भगवान की मूर्तियों पर वापस पेंट किया जाए. ये सब भक्तों से छुप कर किया जाता है. इसे गुप्त सेवा कहते हैं. रथ यात्रा से पहले स्नान यात्रा में भगवानों की मूर्तियों का रंग फीका पड़ जाता है. इसे सही करने के लिए ही ये गुप्त सेवा की जाती है. स्नान यात्रा के बाद देवताओं को बुखार चढ़ जाता है. 15 दिन तक उनकी खास देख-रेख की जाती है.
इस स्टोरी के लिए इनपुट '
सुभाष पाणी' की बुक
'रथ यात्रा' से लिया गया है.

'रथ यात्रा' बुक का कवर
ये ज़रूर पढ़ें:
भगवान जगन्नाथ की पूरी कहानी, कैसे वो लकड़ी के बन गए
ये भी पढ़ें:
नारद कनफ्यूज हुए कि ये शाप है या वरदान
रावण ने अपनी होने वाली बहू से की थी छेड़खानी