The Lallantop

'हम बहती हवा से पेट की आग बुझाते हैं, और अपनी ही लार चाट कर काम चलाते हैं'

एक कविता रोज़ में आज पढ़िए पल्लव की कविता.

post-main-image
फोटो - thelallantop
पल्लव मूलतः कोटा, राजस्थान से हैं. नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से पढ़ाई की है. अभी मुंबई में रहते हैं. 1 अप्रैल, 2020 को उन्होंने फैज़ अहमद फैज़ को समर्पित एक कविता लिखी. उनकी इजाजत से आपको पढ़वा रहे हैं. पल्लव से उनके ई मेल pallav319@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

आवारा बेकार कुत्ते

जब जंगली थे झुंड में रहते थे हमारे चेहरे अलग थे पर बू एक पेट अलग थे पर भूख एक हम भूख बांट सकते थे,

क्योंकि रहना हमने जंगल से सीखा था जहां सब पत्तियों की सूरत अलग थीं लेकिन जड़ें मिल बांट के मिट्टी से पानी खींचा करती थीं हम भी मिल बांट के एक दूसरे के पिस्सू छुड़ाया करते थे, सियार लोमड़ियों के संग ज़रा हम भी चिंघाया करते थे

हमें चीख और तारीफ़ में फ़र्क़ नहीं समझ आता था क्योंकि आवाज़ हमने पहाड़ों से सीखी थी जहां हज़ारों जीवित आवाज़ें मिलती तो थीं , लेकिन सुनाई पड़ती थीं सिर्फ एक गूंज गूंज जो कि जीवन की भाषा है और मृत हैं - शब्द, जिन्हें अपने आदि का गुमान है, जिनके लिए अंत एक नुकसान है

इसलिए हमें भूख लगती नहीं थीं, हम सब में गूंजती थी

बड़ी भयंकर भूख को छोटे से शिकार भी भाते थे, फिर उस शिकार का चौथा हिस्सा कुछ कौए भी खाते थे नरम पेट की भूख नरम, ये नरम मांस की भूख नहीं, मांस बिना भी हड्डी को हम चबा-चबा के खाते थे

क्योंकि जंगल में मांस बांटता नहीं था, जंगल में सब होता था जो बाद कल की फ़िक्र करे, वो वर्तमान भी खोता था

हम फ़िक्र नहीं करते थे क्योंकि स्थिरता हमने जंगल से सीखी थी, पेड़ ,जो गले लगाने पर भी अडिग थे, आरी चलाने पर भी सांस देने पर भी अडिग थे, भभककर आग देने पर भी

इसलिए हम फ़िक्र नहीं करते थे फ़िक्र हम में बोई गयी थी धीरे से, नुकीले दांतों को घिसा गया था करीने से, सायों ने रातों रात हमें घेरा था कुछ सपने थे जिनके कमीने से

झुण्ड के गुल्लक को फोड़ कर हमें आज़ाद बताया गया, शहरों की महक के आगे हमें बदबूदार बताया गया जब भूख उठी थी आंतों में एक गूंज उठी थी आंतों में, इक मासूम भूख को फिर जंग का ऐलान बताया गया

जो छेड़ी उन्होंने थी, पर लड़ते रहे हम उनकी तरफ से बिना गुर्राए, बिना झल्लाए लड़ते रहे हम उनकी तरफ से,

इस हद्द तक कि अब उन्हें हमारी आदत हो गयी है, और हम उनके बीच रहते हुए उनकी खुशबू से संक्रमित हो गए हैं इसलिए संक्रमित होना कोई नयी बात नहीं हमारे लिए बात इतनी सी है कि, हमें भूख लगी है और अब मांस सिर्फ उनके पास है, एक नेज़े पे लटका हुआ हम आवाज़ उठाते तो वो नेज़े ऊपर उठा देते हैं पर हमारी लार अब भी नीचे ही गिरती है

हमें जंगली से पालतू बना लिया गया है न ही हमारे दांतों में धार बची है, न कोई हमसे डरता है हम बहती हवा से पेट की आग बुझाते हैं, और अपनी ही लार चाट कर काम चलाते हैं माना अब हम भद्दे है, आवारा है, बेकार हैं, पर साहब हम ही हैं जो पूरी आवाम चलाते हैं

हमारे गले का पट्टा खोल कर भगा दिए जाने से हम चले तो जाएंगे, पर जब समय के कांटे बदलेंगे तुम फिर आओगे खोजते हुए उन्हीं जंगलों में, अपनी सूनी गलियों से भागे हुए आवारा बेकार कुत्ते!


विडियो- एक कविता रोज: जब वहां नहीं रहता