बात उन दिनों की है जब दुनिया-जहान का मतलब स्कूल हुआ करता था. उसी स्कूल का छुट्टियों के बाद आज पहला दिन था. वीरभद्र को पिछले डेढ़ महीनों से इसी का इंतज़ार था. खड़ी-खड़ी कॉलर वाली कॉर्टराइज़ की नई बुशशर्ट, नए कड़क-कड़क चमड़े वाले काले जूते और भूरे रंग की पुरानी धुली-धुली सी पैंट पहने वह अपनी उस नई क्लास में जा रहा था जिसकी दीवारें चूने-कली से लिप-पुत कर नई मालूम होती थीं. सालभर पहले की बात होती तो कहा जाता कि वह सातवीं में पढ़ता है. लेकिन यह कहना भी ग़लत होगा कि वीरभद्र के आठवीं क्लास में आने के पहले दिन से ही कहानी शुरु होती है. कथा का बीज तो पिछली वार्षिक परीक्षाओं के आखिरी इम्तिहान ख़त्म होने के साथ ही पड़ गया था.
वानखेड़े सर ने उस दिन एक्ज़ाम के बाद आर्ट एन्ड क्राफ़्ट रूम में उसे किसी ख़ास मक़सद से बुलाया था. उन्होंने कहा “यहां बैठ जाओ!” और इसी के साथ वीरभद्र, जिसके पिता का बड़ी गाड़ियों का एक छोटा-सा शोरूम था, कि ज़िंदगी की गाड़ी ने एक हिचकोला खाया. लगा जैसे वानखेड़े सर की आवाज़ संसार की सबसे मधुर स्वरलहरी है. वीरभद्र, जिसकी मां इंटरनैशनल स्टैण्डर्ड की भिंडी की सब्ज़ी बनाने वाली हाउसवाइफ़ थीं, ने यूं तो लंच भी नहीं किया था लेकिन उसकी भूख-प्यास काफ़ूर हो चुकी थी. अब वह सलोनी आंखों वाली, अपने काम में डूबी एक परी-सी लड़की की बगल में बैठा था.
शायद वानखेड़े सर को अपने स्कूल-कॉलेज के दिन याद नहीं थे या वे अब इन सब बातों से ऊपर उठ चुके थे, उन्हें यह अहसास ही नहीं हुआ कि कोई भी लड़का ऐसी सुंदर-सी लड़की के पास बैठकर उसके बारे में और जानना चाहेगा. उन्होंने इंट्रोडक्शन की फ़ॉर्मल्टी में पड़े बिना वीरभद्र को शाम को होने वाले फ़ुटबॉल-मैच में पधार रहे चीफ़-गेस्ट के लिये थर्माकॉल की तख़्ती पर सितारें जड़ने का काम सौंप दिया. यह काम उतना बुरा भी नहीं था. क्योंकि वह भी यही कर रही थी, जाने कब से. गोंद से सुनहरे रंग के सितारों को काले रंग से पेंट हुए थर्माकॉल पर चिपकाने में वीरभद्र को सपने में मक्खन जैसी बर्फ़ पर स्की करने का मज़ा आने लगा. उन दिनों बर्फ़ पर स्की करना ही उसकी फ़ैंटेसी हुआ करती थी. आज उसकी फ़ैंटेसी है कि वह उस दिन को दोबारा जिए और उस पहली मुलाक़ात में ही दिल की बाज़ी अपने नाम कर ले.
ख़ैर, उस दिन तो कोई बात नहीं हुई. वीरभद्र घर आ गया. बीस-पच्चीस दिन बाद उसका रिज़ल्ट आ गया. अशोक और मनोहर के अलावा सब पास होकर आठवीं में भी आ गए लेकिन वीरभद्र को पता ही नहीं चल पाया कि उस लड़की का नाम क्या था. फिर डेढ़ महीनों की गर्मियों की छुट्टियों में सूरज ने घर की छत पर आग बरसायी और नए-नए ख़ुमार ने वीरभद्र के दिल पर. लेकिन आज, जुलाई की छठीं तारीख़ को आठवीं में आने के पहले दिन ही उसे पता चल गया कि; कुल जमा तिरासी दिन पहले, उस दिन आर्ट एंड क्राफ़्ट रूम में बालों में तितलियों वाली क्लिप लगाकर बैठी उस लड़की का नाम सोफी गुप्ता था और अब, वह सैक्शन्स शफ़ल होने के बाद उसी की क्लास में आ गई थी.
छुट्टियों के बाद एक और चीज़ हुई थी. क्लासरूम, टीचर्स, किताब-कॉपियां, य़ूनिफ़ॉर्म वगैराह के अलावा वीरभद्र की क्लास के बहुत से लड़के भी बदले-बदले लग रहें थे. शशांक की आवाज़ भारी हो गई थी, विमल का वज़न बढ़ गया था और इरफ़ान अब पहले से काफ़ी लंबा था. यहां तक कि फ़ेल हो चुके अशोक और मनोहर भी जब चहकते हुए अपने यारों से मिलने आए तो दोनों लंबे-तगड़े मालूम होते थे.
“सातवीं तक निक्कर थी, और अब आठवीं में पैंट है. इतने से फ़र्क से सब बदले-बदले लग रहें हैं.” यह बात वीरभद्र ने विकास से यूं ही टाइम-पास करने के लिये कह दी थी. असल में तो वह सोफी का इंतज़ार कर रहा था जिसका नाम उसने पहले ही रजिस्टर में पढ़ लिया था. आज बाकी लड़कियों की तरह वह भी ट्यूनिक के बजाय लॉन्ग स्कर्ट में स्कूल आई थी. लेकिन वह अब भी सीढ़ीयों पर ही थी जहां से क्लासरूम दस मीटर के फ़ासले पर था. तब तक विकास बताने लगा कि दो साल पहले उसका बड़ा भाई भी ऐसे ही चुटकी बजाते-बजाते मुस्टंडा हो गया था. इसके बाद वह अपने नए चाइनीज़ फ़ाउंटैन पैन में इंक डालने की विधि साझा करने लगा. मगर इसी बीच वीरभद्र ने नज़रें बचाकर देख लिया था कि उसकी क्लास के दरवाज़े पर सौन्दर्य-कमल खिल चुका है.
वक़्त रुका नहीं. वक़्त चलता रहा और सोफी के क्लास के गेट से अपनी डेस्क ढूंढ़ने तक करवटों पर करवटें भी लेता रहा. वीरभद्र ने आज पहली बार उसे जी भर के देखा था. आज वह उसके सामने से पहली दफ़े चलकर गुज़री थी. लेकिन इसके पहले कि वीरभद्र के नथुने चंचल हवा से उस चारु चंद्र की कुछ महक उधार लेकर इस मौके को और भी यादगार बना पाते, उसे मालूम पड़ा कि सोफी और कुछ नहीं तो उससे कम से कम पांच इंच ज़्यादा लम्बी थी. वह अपनी डेस्क पर जा बैठ चुकी तो वीरभद्र ने गौर किया वाकई क्लास के बहुत से बच्चें उससे ज़्यादा लंबे थे. ख़ुद की शारीरिक दशा पर गौर करने पर उसे वह कविता याद हो आई जो उसके मौसा जी ने उस पर फ़िट करके छोड़ दी थी. हाथ अगरबत्ती, पैर मोमबत्ती. लात मारे तो पहुंचे सात बत्ती. नामालूम हो तो बताना फ़र्ज़ होगा कि सात बत्ती चौक के गुलाबजामुनों की लंदन-अमरीका तक ख़ासी डिमांड है. यूं तो वीरभद्र के मन में क़द छोटा होने की बात से कोई त्वरित हीन भावना उपज सकती थी लेकिन इसका उसे अभी होश नहीं था, क्योंकि बड़ी बात यह थी कि सोफी, जिसे ठीक उसी वक़्त क्लास के बाकी लड़के भी घूर रहे थे, उसी की बगल की कुर्सी पर जा बैठी थी. शायद इसके आगे भी बखान करने लायक कई बातें घटित होती लेकिन यकायक प्रार्थना की घंटी बजने से अफ़रा-तफ़री मच गई.
वीरभद्र जब असेम्बली में खड़ा हुआ तो आज उसे पहली बार लाइन में सबसे आगे खड़े होने का फ़ख़्र नहीं था. आज उसे इस बात की ख़ुशी नहीं थी कि प्रार्थना ख़त्म होने के बाद वह सबसे पहले चलना शुरु करेगा बल्कि इस बात का ग़म था कि वह अपनी क्लास का सबसे छोटा लड़का है. बौना, नाटा, ठिगना, टिंगु, छुटकु - वह अपने ही कई उपनाम सोचकर मानो ईश्वर को उसकी फ़ैक्ट्री से निकले किसी पीस की गलतियां गिना रहा था.
अगली बार उसने सोफी को गौर से देखा और क़ाफ़ी दूर से देखा ताकि बहुत देर तक देख सके. पहले दिन ही फ़्री पीरियड मिल गया था और इसी के फलस्वरूप वीरभद्र अब सोफी को किसी पेशेवर खिलाड़ी की तरह बास्केट-बॉल खेलता देख रहा था. इसके पहले, पहले पीरियड में सोफी उसे देख कर दो बार मुस्कुरायी थी और इस बात से वीरभद्र तीन बार सकपकाया था. शायद बास्केट-बॉल की इस बला की ख़ूबसूरत खिलाड़ी से दोस्ती हो सकती थी.
इंटरवल हुई और वीरभद्र की भविष्य की योजनाओं को एक और झटका लगा. बॉय्ज़ टॉयलेट में, जहां अक्सर किताबों में ना छपने लायक चर्चायें हुआ करती थीं, आज एक नया ही विषय चल रहा था. इरफ़ान, अशोक, मनोहर और उनके कुछ साथी बाकी लड़कों को अपनी नई-नई आई दाढ़ी-मूंछों के बारे में बताते हुए शेविंग के मूलभूत सिद्धांतों की जानकारी दे रहे थे. उनका प्रासंगिक वार्तालाप सुनकर वीरभद्र की उंगलियां उसकी नाक और मुंह के बीच की गुगली-वुगली वुश त्वचा की रेकी करने लगीं. वहां एक भी ऐसा बाल नहीं था जिसे मूंछ नहीं तो उसका बच्चा ही कहा जा सके. नवीं के बाद भी वीरभद्र की क़द काठी नहीं बदली थी. लेकिन पिछले एक साल में उसकी ज़िन्दगी के बदल जाने के बाद इस बार फिर सैक्शंस बदल दिये गये थे और अब सोफी उसकी क्लास में नहीं रह गई थी. हालांकि, इसके पहले किस्मत बहुत से ऐसे बीज बो चुकी थी जिन्हें एक बारिश बाद ही फूट पड़ना था. सोफी से वीरभद्र का अंदर ही अंदर उमड़ने वाला प्रेम तो कम नहीं हुआ था अलबत्ता वे दोनों साथ-साथ बैठने वाले दोस्त ज़रूर बन गये थे. दोस्ती सोफी ने ही की थी. शेक-हैन्ड की मुद्रा में आगे बढ़ा हुआ उसका दोस्ती का हाथ वीरभद्र को क़ानून के हाथ जैसा लंबा-चौड़ा मालूम हुआ. उस दिन मस्ती में सोफी ने उसकी उंगलियां भी भींच दी थीं.
“मस्ती में!” ये उसका तकिया-कलाम जैसा कुछ था. सोफी हर काम मस्ती में किया करती थी. चित्रा मैम के पर्स में मेंढ़क रख दिया, अकाउंट्स डिपार्टमेंट के बाहर सुतली बम लगा दिया और एक-दो बार वीरभद्र के गाल पर किस भी कर दिया. सब कुछ मस्ती में. वीरभद्र जितना-जितना अपनी सौन्दर्य की देवी को एक इंसान के तौर पर जानता जा रहा था उतना ही उसका भक्तिभाव कम होकर सांसारिक मोह में बदल रहा था. जानने वाले जानते हैं कि दोनों निश्छल प्रेम के ही दो रूप हैं. और यहां प्यार के लपकते ग्राफ़ के साथ ख़ुद की कमतरी पर बढ़ता विश्वास भी था. वीरभद्र सिंह चौहान, जिसके नाम के रोम-रोम में क्षत्रिय ख़ून की ललकार थी और जिसके दादा ने कितने ही चीतों को अपनी दुनाली से परलोक रवाना किया था, स्वभाव से ज़रा दब्बू किस्म का लड़का था. वह ख़ुद यह कहानी सुना रहा होता तो अपने प्राकृतिक दब्बूपन को स्वभाव की कोमलता कहता पर यह कोई गौर करने वाली बात नहीं थी क्योंकि अगर उसके बायलॉजी के टीचर सक्सेना सर ये कहानी सुना रहे होते तो इसी बात को ऐड्रैनलाइन हॉर्मोन से जोड़कर समझाते.
बहरहाल, सोफी और वीरभद्र दोस्त थे और सारा स्कूल इस बात को जानता था. वीरभद्र को इस बात का गहरा अफ़सोस था कि सोफी पर खुले आम मर-मिटने वाले बेहया किस्म के लड़कों को उस से कोई ख़तरा महसूस नहीं होता था. सोफी जब भी “बेबी फ़ेस डार्लिंग!” कहकर उसके गाल खींचती तो उसके मन में आता कि शिशुओं के उत्पाद वाले उन टीवी विज्ञापनों में घुसकर तोड़-फोड़ मचा दे जिनमें नन्हे-मुन्नों को कुछ ज़्यादा ही प्यारा और भला दिखाया जाता है. इंटरवल में वे साथ साथ लंच करते. इस परम्परा की शुरुआत तब हुई थी जब सोफी ने वीरभद्र की मम्मी के हाथों की इंटरनैशनल स्टैन्डर्ड की भिंडी चखी थी. वीरभद्र की मां मंजू देवी के हाथों भरवा भिंडी आज गुप्ता जी ठेकेदार की बेटी सोफी गुप्ता की सबसे पसंदीदा सब्ज़ी थी.
लेकिन यारी-दोस्ती, साथ बैठना, गप्पें लड़ाना, खी-खी करना, बिन्दु-बिन्दु जोड़कर घर-घर खेलना, साथ-साथ टिफ़िन खाना, होमवर्क टीपना, एक्ज़ाम में शीट बदलना और लगभग एक जैसे नम्बरों से पास होकर आठवीं से नवीं में आ जाना – ये सब चिकने फ़र्श जैसा था जिस पर वीरभद्र के प्यार की सीढ़ी नहीं टिक सकती थी. सोफी और उसकी दोस्ती स्कूल की चारदीवारी में ही अटकी हुई थी. इसके अलावा होमवर्क पूछने वगैराह के लिये कभी फ़ोन-वोन किया तो किया, वरना वे दोनों मानो अलग-अलग देशों से आकर क्लास में बैठते और फिर फ़ॉरन ऐक्सचेंज के स्टूडैंट्स की तरह ‘तुम्हारे वहां क्या होता है – हमारे यहां ये होता है’ वाली दोस्ती की पींगें बढातें.
वीरभद्र ने सालभर इंतज़ार किया था कि उसकी भी मूंछें निकल आएं और वो थोड़ा और लम्बा हो जाए. उसके पिता ने उसे बहकाया था कि एक खास कोण से बैठकर पढ़ने से क़द निकल आता है. उसके बाद वह सीधा सोफी के सामने प्रेम-प्रस्ताव रखने वाला था. सोफी के पहले, नर्सरी से सातवीं तक वह लगभग सात अलग-अलग लड़कियों को मन ही मन अपनी जीवन-संगिनी मान चुका था. बाद में उसे किसी ने बताया था कि इस तरह के बच्चा-बुद्धि प्यार को अंग्रेज़ी में क्रश कहा जाता है. पर सोफी तो उसे आठवीं में मिली थी. और तब तक वह बड़ा हो चुका था. उसे ऐसा ही लगता था. लम्बाई बढ़ना, मूंछ आना तो कभी भी हो सकता था और इसलिए वह ख़ुद ही कई दफ़े मन में दोहरा लिया करता था – “दिमागी रूप से तो मैं मैच्योर ही हूं.” हालांकि क्लास के कुछ लड़के शुद्ध अचरज के भाव से और कुछेक उसे छेड़ने के उद्देश्य से कभी-कभार पूछ लिया करते – “तेरा चेहरा तो एकदम साफ़ है यार! तू रोज़ ज़ीरो-मशीन करता है क्या?” उन्हीं दिनों फ़्रैंडशिप डे और वैलेंटाइन डे नाम के प्रवासी पक्षी भी पश्चिमी बयार पर सवार होकर भारत देश में आ गये थे जिनके बूते पर लड़के-लड़कियों के ख़ून में एक नई गर्मी मार्केट की जा रही थी. खैर, इस बार का वैलेंटाइन डे तो शायद नवरात्रों वगैराह के दौरान ही निकल गया था लेकिन अब जो फ़्रैंडशिप डे आ रहा था उसके लिये वीरभद्र ने तय किया था कि वह सोफी को भविष्य में उनके बीच होने वाले अंतर्जातीय विवाह के लिये मना लेगा. वह उस दिन मां से भिंडी की वही मददगार सब्ज़ी बनवाकर और बस्ते में टिफ़िन के बराबर ही एक सूरजमुखी का फूल (गुलाब सुबह-सुबह उसे कहीं मिला नहीं) रखकर स्कूल आया था. ब्लैकबोर्ड देखते-देखते सारे पीरियड ख़तम हो गए, भिंडी की सब्ज़ी भी, लेकिन वह फूल और वीरभद्र के दिल की बात वहीं के वहीं रहे. छुट्टी के बाद वह क्लास में अकेला रुका, फिर डेस्क को परकार से खुरचते हुए उसने ख़ुद को थोड़ा कोसा और जब बाहर आया तो देखा कि राहुल आलोक उसकी सबसे अच्छी दोस्त और स्कूल की सबसे सुन्दर लड़की को लाल गुलाब का एक फूल दे रहा है.
स्कूल की सारी जनता साफ़ देख रही थी कि राहुल आलोक, जिसका उपनाम यानी सरनेम भी दूसरे लड़कों के पहले नाम जैसा था और जिसे इसी कारण ‘दोनामधारी’ कहकर चिढ़ाया जाता था; सोफी को नए-नए चलन में आए आर्ची कॉमिक स्टाइल में खुले-आम प्रपोज़ मार रहा था. राहुल की कहानी होती तो शायद कहा जाता कि वह अपनी बेपनाह मुहब्बत का शायराना इज़हार कर रहा है लेकिन वीरभद्र की नज़रों में यह लफ़ंगई तरीके से सरासर प्रपोज़ मारना ही था. लेकिन राहुल लड़का बुरा नहीं था. क़द, काठी और बास्केटबॉल में सोफी का जोड़ीदार था. तो क्या वीरभद्र, जिसके दादा कभी जंग में और पिता शतरंज में नहीं हारे और जो ख़ुद वीडियो-गेम में अपने चचेरे भाई से दो-एक दफ़े ही हारा है; आज एक ऐसे लड़के से हार जायेगा जो जिम जाता है रेज़र फिराता है? उसका दिल धड़क-धड़क कर रेलगाड़ी हुआ जा रहा था कि तभी सोफी ने राहुल का गुलाब एक ओर करते हुए कहा “मुझे ये सब पसन्द नहीं है.”
वीरभद्र को लगा जैसे सोफी ने उस चीज़ को ही किनारे कर दिया है जो उनके आने वाले दाम्पत्य जीवन में ज़हर घोल सकती थी. इशारा साफ़ था - “हर ऐरे-गैरे से नहीं, फूल सिर्फ अपनों से लिये जाते हैं.” वीरभद्र को लगा जैसे उसकी प्रियतमा ने खुलेआम मुनादी पीट दी थी – “देखो, मैं किसी और की नहीं. किसी और के मुंह से मुझे ऐसी बातें ही पसन्द नहीं – लेकिन तुम? अब आ जाओ!” वो उसी वक़्त बॉयज टॉयलेट में गया, चेहरा शीशे के पास ले गया और नाक के नीचे की त्वचा को सहलाते हुए बोला – “अब आ जाओ! अब आ जाओ!”
अब वीरभद्र ने ठान लिया था कि इस कहानी को इतना सुस्तचाल नहीं रहने देना है. उसे कुछ करना ही है. लोग बातों-बातों में हथेली पर सरसों उगा लेते हैं, वो दाढ़ी-मूंछ नहीं उगा सकता? जब सारे लड़के कच्ची पौध से ताड़ का पेड़ हुए जा रहे हैं तो उसके भीतर का बायलॉजिकल सिस्टम किसकी बांग का इंतज़ार कर रहा है? क्षत्रिय खून की ललकार आने वाले कई महीनों तक गूंजती रही. वीरभद्र सिंह चौहान साइक्लिंग और लटकने की प्रैक्टिस में जुट गये थे. हालांकि अब सर्दियां आ चुकी थीं और वैलैंटाइंस डे भी आने वाला था. लेकिन वीरभद्र के अभी भी उतनी ही लम्बाई की पैंट आ रही थी. दुबला-पतला शरीर दूध-च्यवनप्राश गपड़कर-गपड़कर भी जस का तस था. इस नाकामी का असर भी झलकने लगा. कुछेक-महीनों में दसवीं क्लास में जाने का वक़्त आने वाला था और वीरभद्र अभी भी अपनी क्लास की लाइन में लड़कियों के भी आगे खड़ा होता था. वह अब रोटी में नमक जितना खुश रहता और आटे जितना चिड़चिड़ा. सोफी अपने रोज़ के रूटीन के मुताबिक, उस दिन भी हाथों में टिफ़िन थामे क्लास से चलकर इंटरवल में उसके साथ लंच करने आई. डब्बा खुलते ही उसने पूछा “आंटी ने आज भी भिंडी की सब्ज़ी नहीं बनायी?” वीरभद्र ने तमककर कहा “तुम्हे भिंडी चाहिये या मैं?” फिर वह चला आया. उसे मालूम था उसने बुरी बात की है. लेकिन उससे भी बुरी बात थी कि सोफी मनाने के लिये उसके पीछे भी नहीं आई थी. वो दोनों अपनी-अपनी क्लास में चले गए. उस वक़्त वीरभद्र इतनी तकलीफ़ में था कि उसकी इच्छा थी काश, कोमा में ही चला जाता.
“आखिर कब तक मेरे कुछ कहने का वेट करोगी? तुम भी पहले बोल सकती हो? तुम जानती हो मैं देर सवेर तुम्हारे कान जितनी ऊंचाई तक पहुंच ही जाउंगा.” वीरभद्र अब अकेले में इस तरह की बातें भी बुदबुदाता था. उसे हर चीज़ से नफ़रत होने लगी थी – बीएफ़-जीएफ़ की बातें, दलेर मेहन्दी के गाने, फ़ेमिना का सैक्स-कॉलम, श्रीनाथ की बॉलिंग, सुपरकमांडो ध्रुव की कॉमिक्सें, इंटरवल की घंटी, फ़्री पीरियड, संजना मैम, नया वॉकमैन, भिंडी की सब्ज़ी और खैर, कैमिस्ट्री तो थी ही.
लेकिन वह टूटा नहीं था. वह जांबाज़ था. कम से कम उसके पुरखे तो थे और इसी कारण वह पीछे नहीं हट सकता था. उसने ठान लिया था कि वह स्व-चिकित्सा यानी अपना इलाज-अपने हाथ वाली पद्धति आज़मायेगा. वह लम्बाई बढ़ाने की नई कसरतें और मूंछ उगाने के नए नुस्खों की तलाश में था. सुना कि इंटरनेट नाम की एक चीज़ आई है जिस पर जो जानना चाहो पता चल जाता है. यह भी पता चला कि इंटरनेट की सिद्धी के लिये सायबर कैफ़े जाना होता है. जेब में बीस रुपयें डाल वीरभद्र ज्ञान चक्षुओं में अलख जगाने निकल पड़ा और वास्तव में, सायबर कैफ़े विचित्र जगह थी. छोटे-छोटे केबिन, पर्दे लगे हुए – जैसे कई गहन शोध एक साथ चल रहे हों. वीरभद्र इन मामलों में अनाड़ी ही था. ‘नंबर पांच’ सुनकर उसने बिना किसी हिचकिचाहट के छ: नंबर का पर्दा उठा दिया. जिस तरह प्रैशर कुकर मंद-मंद तैयारी से अपने अंदर की भाप को पूरे वेग से ढ़क्कन पर टंगी सीटी से जंग करने लायक बना देता है, वैसे ही कहानी ने परिस्थिति को वीरभद्र पर वज्रपात करने में सक्षम कर दिया था. छ: नंबर केबिन के अंदर राहुल आलोक की गोद में सोफी गुप्ता बैठी हुई थी. ****************** दसवीं में जब दीवाली आई तो वीरभद्र पटाखे चलाने के बजाय तकिए में मुंह छिपाए फुलझड़ी की तरह रोता रहा. घर उसको काट खाने को दौड़ता जबकि स्कूल में नैराश्य घर कर गया था. कहते हैं खुशी में आप गाना सुनकर नाचते हैं और दुख में आपको उसके बोल समझ आने लगते हैं. यह बात वीरभद्र ने इंटरनेट पर ही कहीं पढ़ी थी. वह इंटरनेट जो अब उसका संगी, साथी, सहारा, टाइमपास; सब कुछ था. प्यार में दिल टूटने के बाद वीरभद्र घर से बड़ा जेबखर्च लेने लगा था जिसे वो सायबर कैफ़े जाकर उड़ा देता. इस उड़ने-उड़ाने में कुछ पुरानी दहलीज़ों के भी परखच्चें उड़ गये थे. मासूमियत फ़ीकी पड़ने लगी थी और इंटरनेट की गंदगी, वासना को उसकी जगह लेने का तकाज़ा कर रही थी. सोफी अब वीरभद्र की दोस्त नहीं थी. दोनो इंटरवल में एक दूसरे को दूर से ही देखते. उस दिन के बाद ना दोनों ने बात की, ना ही मामले को सुलझाया. वीरभद्र को सफ़ाई सुननी ही नहीं थी. वह अब सोफी को घृणा की नज़रों से देखता था. उसी सोफी को जो कभी उसकी बैस्ट फ़्रैंड थी और जो उस दिन के बाद भी, अगले ही दिन स्कूल में उससे बात करने आई थी. लेकिन “तुमसे बात करनी है” – यह सुनकर ही वीरभद्र के माथे पर जो बल पड़े उन्हें देखकर सोफी के माथे पर पसीने की बूंदे टिमटिमा आईं. वीरभद्र ने उसे ऐसे देखा जैसे वह अब सोफी को अच्छी तरह जान गया था और सोफी वीरभद्र को ऐसे देखती रही जैसे पहचान ही नहीं पा रही थी कि सामने खड़ा इंसान कौन है. वह उल्टे पांव लौट गई. वीरभद्र पांव पटकता हुआ वहां से चला आया.
उसे अब लड़कियों में खोट, दोगलापन, मक्कारी और दूसरे भी नाना प्रकार के दोष दिखायी देने लगे थे. इतने सालों में कोई लड़का भी उसका लंगोटिया साबित नहीं हुआ था इसलिये वह ख़ुद में घुलता रहता. साइक्लिंग, लटकने की प्रैक्टिस, दूध-च्यवनप्राश सड़पना; सब बंद था. काया दिन-ब-दिन ढ़लती जा रही थी. मां-बाप को लगता था कि बेटे को बोर्ड की परीक्षाओं का डर खाये जा रहा है. उसके शतरंजी पिता ग्यारहवीं में दो बार फ़ेल हुए थे और उसका जी हल्का करने के लिये मज़े ले लेकर यह बात उसे बताया करते थे. लेकिन चूंकि उन्होंने अपने टूटे दिल का कोई किस्सा कभी नहीं छेड़ा था, पुत्र का जी मन भर भारी ही रहा.
उस पर एक नया फितूर सवार था. वह सोफी का पीछा करने लगा था. उसे लगता था कि सोफी दुनिया की सबसे बिगड़ी हुई लड़की है और अब ‘मस्ती में’ का मतलब उसके लिये कुछ और ही था. लेकिन क्या राहुल आलोक के अलावा भी उसका कोई बॉयफ़्रेंड हैं? क्या वह दूसरे लड़कों के साथ भी सायबर कैफ़े में जाकर, केबिन के पीछे, पर्दा डालकर...? बहुत से सवाल थे जिनका समाधान ज़रूरी था. एक और प्रश्न था जो वीरभद्र को रात में मच्छर की तरह सुई चुभोता था - क्या सोफी आज भी स्कूल की सबसे सुंदर लड़की है? वह इंटरवल में उसके पीछे जाता, कैंटीन तक, बास्केट-बॉल कोर्ट तक, गर्ल्स टॉयलेट के पास बनी सीढ़ियों के मुहाने तक. बार-बार उसे देखता और अपने आप को बताता - “हां, सोफी से ज़बर कोई नहीं!” एक दिन इंटरवल में वीरभद्र सिंह चौहान, कक्षा टैन डी, सोफी गुप्ता, टैन ए, के पीछे दूर-दूर से ही चकरी की तरह लगा हुआ था. सोफी को अंदाजा भी नहीं था कि उसकी ये तिकड़म कितने दिन से चालू है. वह प्रिंसिपल के ऑफ़िस तक गई और इधर-उधर देखने लगी. वीरभद्र पीछे हो लिया. जब उसने वापस झांककर देखा तो सोफी वहां नहीं थी. वह प्रिंसिपल ऑफ़िस तक गया. उसे लगा वह अंदर गई है. लेकिन क्यों? और उसने पीछे मुड़कर क्यों देखा था? उसे पता था कि वह उसके पीछे था? क्या वह उसकी शिकायत कर रही थी? वीरभद्र ने दरवाज़े के कान लगाकर सुनने की कोशिश की. एक ही सैकिंड हुआ था कि एक पटाखा फटा और आधे सेकेंड के अंदर ही वीरभद्र की नाक से हल्का-सा ख़ून आने लगा. प्रिंसिपल सर ने कमरे से बाहर आने में जो चंद सेकेंड लिए उतने वक़्त में वीरभद्र बॉयज टॉयलेट में पहुंच चुका था. उसने नाक से बहते ख़ून की बून्द पौंछने के लिये शीशे में झांका तो हैरान रह गया. वहां मूंछ के तीन नए-नए बाल अभी-अभी आकर चमकने लगे थे. प्रिंसिपल ऑफ़िस के बाहर कब शोर मचा, कब बम रखने वाले की धरपकड़ हुई, कब सोफी और उसके बजाय कोई तीसरा ही पकड़ा गया – वीरभद्र को कुछ याद नहीं. मूंछों के तीन नए बालों के दम पर वह पांचवे आसमान पर जा पहुंचा था. तय किया था कि सातवें पर तब पहुंचेगा जिस दिन पूरी शेव बनायेगा. वीरभद्र के अंतर में एक मनमयूर मुग्ध होकर नाच रहा. भीतर कहीं कीर्तन गाये जा रहे थे – “आओ! बड़ी देर भयी, अब आ भी जाओ!” वीरभद्र को उस दिन ज्यॉग्राफ़ी की क्लास में बैठकर भी हिन्दी की पाठ्य पुस्तिका के रस ख़ान और बिहारी याद आ रहे थे. मानो उसके हिन्दी के टीचर विजय सर ख़ुद कह रहे हों– “वत्स वीरभद्र, तुम्हारे लिये अब बाल-गोपाल की अवस्था से निकलकर रास-रचैय्या की पदवी गृहण करने का समय आन पड़ा है. इस वसुन्धरा पर तुम्हारे लिये ही विचरण करती अनेकानेक गोपियां आरती के थाल अपने मानस में सजाये कह रही हैं- अब आप ग्वाले नहीं रहें, हमारे कन्हैय्या! अब दही, दूध, मक्खन के भोग की आपकी आयु बीत चुकी है. अब आप आइये, हमारे चैन, हृदय और वस्त्रों का हरण कीजिये!”
उसी दिन से शाम की कसरत फिर शुरु हो गई. उमंग और जोश तो आ ही चुके थे, आत्मविश्वास और ख़ुद्दारी का फैसला था कि वे पूरी तरह तब ही आएंगे जिस दिन वीरभद्र सातवें आसमान पर जा पहुंचेगा- यानी जिस दिन पूरी शेव बनायेगा. जाने यह बदलाव शरीर के अंदर से आया, मन को मिली खुशी से या शंखपुष्पी टाइप उस चीज़ से जो मां उसे पिलाने लगी थीं – लेकिन वीरभद्र सिंह चौहान की भूख चार बांस-बीस अंगुल बढ़ गई थी. कभी-कभार मन मारते हुए जी लगाकर पढ़ना भी शुरु हो गया था. रोमांटिक मिजाज़ की कहानी में निकम्मी पढ़ाई घुस आई थी क्योंकि – “दसवीं बोर्ड के मार्क्स कैरियर पर बहुत असर डालते हैं.” यह बात स्कूल से गोत लगाने के लिये मशहूर वो फूफाजी कहा करते थे जिन्होंने दस छोटी-मोटी नौकरियों के बाद हाल ही में कस्टमर-चेन बनाने का कोई धंधा शुरु किया था.
सोफी दिलो-दिमाग़ में अब भी थी. लेकिन उस से जुड़ी नफ़रत नहीं. राहुल आलोक और सोफी उस दिन के बाद आज तक साथ दिखायी नहीं दिये थे और इस बात से वीरभद्र को सैडिस्टिक प्लैज़र जैसी कोई चीज़ महसूस होती थी. इसी बीच जब एक दिन बच्चों का मैडिकल चैकअप किया गया तो पता चला कि उसकी लम्बाई भी तीन इंच बढ़ चुकी है – पांच इंच चार फुट से पांच सात. शाम से रात बनते दिन की हवा में बहाया गया पसीना फल दे रहा था. “क्या मेरी हाइट और बढ़ सकती है?” उसने डॉक्टर से पूछा. जवाब मिला – “बिल्कुल बीस-इक्कीस साल तक भी बढ़ सकती है. तुम साइकिल चलाते हो?” बदले में वीरभद्र सिर्फ मुस्कुरा दिया. क्यों गिनाये कि क़द बढ़ाने के लिये उसने कितने जतन किये हैं. सोफी का प्यार फ़ीका पड़ने लगा था. वीरभद्र को लगने लगा था कि अभी तो उसके आगे पूरी कॉलेज-लाइफ़ पड़ी है. तब वह फ़्रेंच-कट रखा करेगा और पिताजी से नई-सी कोई गाड़ी मांगकर लड़कियों पर रौब जमाया करेगा. तब वह वो सारे काम करेगा जो स्कूल में नहीं कर पाया. शायद वो भी जो राहुल आलोक ने किये थे. जैसे, सोफी जैसी लड़की को सायबर कैफ़े में ले जाना. ‘सोफी जैसी लड़की’ – यह अब उसके लिये एक तसल्लीभरा मुहावरा था. सोफी को थोड़ा बहुत कोस लिया, थोड़ा भविष्य की सुनहरी योजनायें बना लीं, बाकी टाइम पढ़ाई और शाम की साइक्लिंग. दिन जल्दी-जल्दी कट रहे थे. असल में, पूरे स्कूल में ही बोर्ड की परीक्षाओं का बुखार सर पर था. टीचर्स के भी एक सौ एक बजे हुए थे. प्रिंसिपल सर दसवीं के सैक्शंस की ख़ास ख़बर रखते थे. फिर जनवरी में प्री-बोर्ड की परीक्षाओं के ठीक बाद स्कूल का सालाना मेला आया. उस दिन के बाद कोई भी स्कूल नहीं आने वाला था. सबको सीधा बोर्ड की परीक्षा देने ही पहुंचना था. सभी को पता था ये टैंथ का आखिरी दिन है.
शाम छ: बजते-बजते मेला जब लगभग उठ ही चुका था, महौल में ना जाने कहां से भावुकता का छौंका पड़ गया. सब एक दूसरे को “गुड बाय, यार!” कह रहे थे. जैसे-जैसे शाम रात में मिलकर हल्की काली कॉफ़ी होने लगी, सब्र का आपा भी उफ़नने लगा. वीरभद्र ज़रा दूर खड़ा सोफी को एकटक देख रहा था. वह अब भी उस से इंच भर ज़्यादा लम्बी थी. इधर जाने किस कोने से रुलाई फूट पड़ी. सारे जनें एक दूसरे के गले लग रोने लगे. मानो पुराने साथियों से हमेशा के लिये बिछड़ रहे हों. वीरभद्र की आंखें अब भी सोफी पर ही थीं. अब, सोफी की भी उस पर थीं. वह धीरे-धीरे पास आई. पहले यह सुनिश्चित किया कि वीरभद्र के माथे पर उसे देखकर कोई बल तो नहीं पड़ गया है. वह ख़ामोश हिरन-सा स्कूल की सबसे सुन्दर लड़की को देख रहा था.
सोफी ने कहा “थैंक्स! तूने उस दिन की बात किसी को नहीं बतायी... यू आर अ गुड मैन वीर!” वीरभद्र के कानों में मानो किसी ने क़ायनात का सारा इत्र उंडेल दिया था. बरसों से बूंद भर पानी को तरसती धरती, सोंधी हवा से ही भीग गई थी. बस, बारिश होने की देर थी. बारिश हो भी गई. वीरभद्र फड़ाक से सोफी के गले लगा और बुक्का फाड़कर रोने लगा. वह भी कसकर उससे चिमट गई. दोनो बहुत देर रोते रहे. बहुत कुछ धुल गया था जिसका नाम लेना ज़रूरी नहीं. उस दिन के गुज़रने के कई सालों बाद वीरभद्र सिंह चौहान और सोफी गुप्ता इंटरनेट पर फिर से दोस्त तो बने, लेकिन कभी मिल नहीं पाए. दरअसल, सैंट जॉर्ज चर्च स्कूल सिर्फ दसवीं तक ही था.
सुबह बुआ के पूजाघर में ढेर सारा धुआं मिला, बुआ नहीं मिलीं