वैसे कहानी का विषय आप सब का जाना पहचाना है. एक मोटे शानदार प्रिंट कागज को बीच में से तह किया हुआ संदेश वाहक. मुझे याद है कि बचपन में अपनी सबसे खूबसूरत स्कूल टीचर को उसके जन्मदिन पर या नए साल पर यह ग्रीटिंग कार्ड बड़े मौलिक रूप में दिया करता. पहले या दूसरी कक्षा का वह मासूम प्रेम. कितना मजाकिया लगता है जब आज मैं इसे याद करता हूं. हर साल घर वाले नववर्ष के आगमन से एक महीना पहले घर में मूंगफली खाते हुए एक लिस्ट बनाया करते, जिसमे उन खास रिश्तेदारो और दोस्तों का नाम लिखा जाता जिन्हे ग्रीटिंग कार्ड भेजने होते. पिता जी इकट्ठे ही दर्जन या इससे कुछ ऊपर एक जैसे ग्रीटिंग कार्ड ले आते. फिर लिस्ट के हिसाब से सबका नाम और पता लिखा जाता और यह उम्मीद भी की जाती कि इस संदेश के बदले जवाब भी खूब आएंगे. मैं अक्सर अपनी मासूमियत के कारण या बचपने के कारण उन एक जैसे कार्डों से कुछ इतर करना चाहता था. मेरे लिए तो सबसे ख़ास दोस्त मेरी वो अंग्रेजी की टीचर थी. पद्मिनी कोल्हापुरी जैसी. हंसती तो उसकी मुस्कुराहट को जैसे मैं अपने लिए ही घेर लेना चाहता. शायद मेरी मां की शक्ल भी दोनों शक्लों का मिला-जुला रूप थी. वो मुझे अक्सर प्यार से बुलाया करती. खैर धीरे-धीरे मैं बड़ा हुआ और एक छोटे स्कूल से निकल कर शहर के बड़े स्कूल में आ गया. कुछ दिन बड़ा अकेलापन महसूस हुआ. ज्यादा कुछ बस में नहीं था. अभी तो कई बार अपनी कमीज का सबसे ऊपरी बटन भी लगाना न सीख पाया था. वो दौर कब गुजर गया. पता ही न चला. बस अपनी टीचर की शक्ल याद रही. जवान होते होते कई चेहरे दिमाग और दिल को चौंकते रहे पर पद्मिनी कोल्हापुरी वाली इमेज ने दिमाग में एक चौखटा बना दिया जिसमे और कोई इतने गहरे रूप में फिट न हो सके. मुझे याद है कि बचपन में एक बार पिता जी एक प्यारे से पिल्ले को घर ले आए. बड़ा ही स्याना पिल्ला था. उसे पेशाब आ रहा होता तो अपने आप नाली की और दौड़ जाता. स्कूल जाने से पहले और स्कूल से आने के बाद उसे देखना, छूना और उसके बालों वाले शरीर और माथे को सहलाना. मेरी सबसे बड़ी आदत बन चुके थे. पर एक महीने बाद ही मैं रोज की तरह स्कूल से लौटा और उसे घर के बगीचे में ढूंढा. शेरू शेरू कह कर उसे कई बार पुकारा. पर कहीं से उसके मेरी तरफ भागते हुए आने की आहट या दृश्य नहीं बना. शायद बगीचे के पिछले बड़े गेट के नीचे से बाहर निकल गया हो. मैं भरी हुई आंखों में उसकी मासूम सी आकृति लिए उसे शाम होने तक खोजता रहा. मां ने प्यार से बहुत समझाने की कोशिश की. पर न मैंने चाय पी और न ही रात का खाना खाया. पिता जी काम से वापिस आए और मुझे यूं सुस्त पड़ा देखकर मेरे सर पर हाथ फेरा. मुझे बुखार था. "तू घबरा मत बेटा. मैं अभी आसपास के मुहल्ले में देखकर आता हूं. कई बार कोई बच्चा ही जान-बूझकर उठा ले जाता है. पर तू फ़िक्र न कर कुत्तों को उस घर की बड़ी पहचान होती है. जहां उसे तेरे जैसा प्यार करने वाला बच्चा मिले. सुबह तक तो लौट ही आएगा." इतना कहकर पिता जी टॉर्च लेकर उसे ढूंढने निकल गए. खैर वो न मिला और न ही लौटा. उसके जैसा एक कुत्ता घर में लाया गया. घरवालों को डर था कि कही मैं ज्यादा बीमार न पड़ जाऊं. पर एक जैसा दिखने में और एक जैसा होने में बहुत फर्क होता है. आप सोच रहे होगे कि कहानी में ग्रीटिंग कार्ड की जगह ये पिल्ले या कुत्ते का प्रसंग कहां से आ गया. पर जैसा कि मैंने कहा कुछ ग्रीटिंग कार्ड हम दूसरों को देते है तो कुदरत भी हमें कुछ अच्छे संदेश प्यार, मासूमियत और स्पर्श के रूप में भेजती है. पर सबका एक ही केंद्र होता है प्यार का संदेश. बस हम उसे कैद करने का प्रयास करके खो देते है. खैर ये बात जितनी आसान लगती है उतनी होती नहीं. तो जवानी की दहलीज की ओर बढ़ते हुए हर नए साल पर ग्रीटिंग कार्ड का चलन पिछली स्मृतियों से जोड़ने और नए अनुभवों और अहसासों के चलते उन्हें भूलते चले जाने का माध्यम बनते रहे. ये दौर अभी जुकरबर्ग और मोबाइल संदेश के क्षणभंगुर अहसासों के घेरे में नहीं आया था. उन दिनों अनुभव और अहसासों की दुनिया बड़ी जरखेज हुआ करती थी. उन दिनों प्रेम बड़ा निश्छल अहसास था. बेवफाई और वफ़ा के सन्दर्भ सामाजिक मर्यादाओं में दबे घुटे रहते. विशेषकर ये सब बाते मध्यवर्गीय परिवारों के परिवेश से जुडी हुई थी. बहरहाल बात निकली है तो दूर तलक जाएगी. मैं आपको लम्बी औपन्यासिक यात्रा पर नहीं ले जा रहा. कहानी मुझे फिर याद दिलाती है कि बात इंग्लिश टीचर और पद्मिनी कोल्हापुरी की मुस्कान में रंगे ग्रीटिंग कार्ड की खुशबु लिए चल रही है. वो शायद कालेज के दिनों का पहला प्रेम रहा होगा, शायद नहीं भी. पास से गुजरते हुए अपनी ही सहपाठिका का मुस्कुरा भर देना प्रेम है या नहीं? ये बड़ा अजीब प्रश्न है और पहेली भी. ऐसी पहेली के साथ जीना भी एक अजीब सी जिज्ञासा में उलझायए हुए आपके मन को सर्दियों की धूप जैसा आराम देता है. मुझे याद है कॉलेज का पहला दिन. मैं सुबह-सुबह छत पर बने कमरे में लगे शीशे को देख कर अपने बाल संवार रहा था. सामने की छत पर से राज भाभी ने कहा.
"अरे वाह, आज तो ऐसा लग रहा है कि कॉलेज जाना है. "
मेरे लिए ये समझना बड़ा कठिन था कि भाभी को कैसे पता चला और बाल संवारने से इसका क्या सम्बन्ध है?
अब अचानक ही अकेले रहना और किसी की मुस्कुराहट को याद करते हुए मुस्करा देना वाकई मेरे भीतर बचपन की ग्रीटिंग कार्ड और पद्मिनी कोल्हापुरी की याद ताजा कर रहा था. अगर भाभी छत पर होती तो मैं छत पर न जाता. मुझे उससे शर्म आती थी. जैसे वो मेरे सारे भेद मेरी आंखों से ही जान लेगी, मुझे इसका डर सताता. नया साल फिर से नजदीक आ रहा था और अब मैं कालेज में था. मेरे पास से गुजरने वाली मुस्कुराती लड़की मेरी मित्र बन चुकी थी. इसके आगे अभी हम न बढे थे. मुझे कहीं न कहीं उसे खोने का डर सताता. खोने का दर्द क्या होता है शायद इसका अहसास मेरे खो गए उस पिल्ले की याद से गहरा जुड़ा था.
कॉलेज के ये दिन बड़े सुहाने थे. गर्मी का चिपचिपा अहसास और ऊब ख़त्म हो चुके थे. दिसम्बर के शुरूआती दिन थे. धूप का आनंद उसमे ज्यादा देर तक बैठे रहने से खो जाता और फिर हम कॉलेज में लगे पेड़ों की छाव में ठंडा पानी पीकर बैठ जाते. कुछ दोस्तों के ग्रुप में हम दोनों भी शामिल थे. हम ग्रुप में ही घूमते पर इस ग्रुप में भी सबके अपने निजी साथी थे. मैं और वो ग्रुप में होते हुए भी अपने में ज्यादा खोए रहते. घर आने के बाद अगले दिन का इंतजार बड़ा लम्बा लगता. मैंने नए साल पर अपनी इस मित्र को ग्रीटिंग कार्ड देने की कई योजनाएं बनाई. क्या लिखना है, इस बारे में घंटों सोचा. मै अपने कमरे में इस को लेकर अजीब कल्पनाओं में खोया रहता और घरवालों की आवाज मुझे न सुनाई देती. "पता नहीं ये लड़का सारा दिन क्या खिचड़ी पकाता रहता है ,चीनी ख़त्म हो गई है, जा बाजार से ले आ जाकर. अभी ये आ जाएंगे तो कहेंगे कि लड़का बड़ा हो गया है जो सामान चाहिए होता है इसे लिस्ट बना कर दे दिया करो. बाजार से ले आया करेगा. अब इसे चीजों के मोलभाव की समझ आनी चाहिए. " मां बड़बड़ाती हुई कहती. मैं मुस्कराता हुआ और कई बार खीझते हुआ सामान की पर्ची लेकर बाजार चला जाता. मेरी नजर बाजार की दुकानो पर सजे रंग-बिरंगे, खूबसूरत ग्रीटिंग कार्डों पर ही रुक जाती. मैं उन्हें हसरत भरी निगाहों से देखता और उनमे से कई कार्ड्स हाथ में लेकर एक काल्पनिक दृश्य देखता. जिसमें मैं कार्ड अपनी उस मुस्कुराती मित्र को दे रहा होता. मुझे लगता कि मेरा प्रेम निवेदन सफल संदेश के रूप में उस तक पहुंचेगा. और ये सोचता हुआ मैं ग्रीटिंग कार्ड पर बने बड़े से दिल और उस पर प्यार की लिखी खूबसूरत चंद पंक्तियां बार-बार पढ़ता. मैं ये यकीन करना चाहता था कि जो मैं कहना चाहता हूं. उस बात का हर शब्द इन इबारतों में पूरी तरह समाया हो. पर ये डर भी था कि कही मेरे अहसास मेरी इस हसीन मित्रता और अहसास का अंत न कर दे. अपनी प्रिय चीजों के खो जाने का भी मेरे अन्दर एक गांठ बन गया था. आशिकी फिल्म के सारे गीत मुझे मुंह जबानी याद हो गए थे. खासकर 'हां इक सनम चाहिए, आशिकी के लिए' वाला. फिल्म का हीरो राहुल राय मेरी आंखों में बैठ गया था. शीशे में स्वयं को देखता तो शक्ल हूबहू उसके जैसे लगती. मैंने बाल बढ़ाकर उस जैसा स्टाइल भी बना लिया. पिता जी मेरे चेहरे की ओर गौर से देखते और मेरी पीठ पीछे मां से अक्सर कहते ," लड़के को कालेज की हवा लग रही है ,सारा दिन इसके नक़्शे ही नहीं ठीक आ रहे. पढ़ाई वढ़ाई का तो अब नतीजा आने पर ही पता चलेगा. " उन्होंने मेरा जेब खर्च बहुत कंजूसी से सेट किया था ,पर मां इसकी कमी पूरी कर देती. खैर कोई महंगा शौक तो मैंने भी नहीं पाला था. साल भर में दो जोड़ी नए पेंट कमीज से काम चल जाता पर सर्दियों में हम दोस्त एक दूसरे की जैकेट बदल-बदल कर पहनते. हां एक अच्छा ग्रीटिंग कार्ड और वो भी आर्चिज का खरीदना ज्यादा बड़ी बात नहीं थी. लगभग 15 दिन कई कार्ड देखते और उनमें लिखी इबारतों को पढ़ते मुझे एक नया ग्रीटिंग कार्ड पसंद आया. लाल रंग के गुलाबों वाले चित्र से सजा हुआ , खास बात यह थी की उसे खोलो तो उसके अंदर लगा दिल जगमगाने लगता और म्यूजिक बजता. ये बाजार में आया नया परिवर्तन था. कार्ड में ये खासियत घड़ी के एक सेल से पैदा की गयी थी. मुझे लगा कि इसे बनाने वाले ने जैसे मेरी कल्पना को पढ़ लिया था ,बिलकुल वैसे ही जैसे पड़ोस की छत वाली भाभी मेरी आंखों को पढ़कर मेरे कालेज जाने के उत्साह को पढ़ लेती थी. कॉलेज में सर्दियों की छुट्टियां हो चुकी थीं और नए साल के पहले दिन कॉलेज खुलने वाला था. मेरे लिए ये छु्ट्टियां पहाड़ सी बीती. कितनी ही कल्पनायें, ऊब,मिले जुले स्वप्न, जिसमे मैं उस जादुई कार्ड को खरीद कर अपनी उस मित्र को दे रहा था और अपनी मित्रता को प्रेमी प्रेमिका के रिश्ते में बदलने की ओर बढ़ रहा था. देखते हुए बितायी. कई बार ऐसा होता कि मेरा कार्ड देखकर मेरी मित्र कोई भी प्रतिक्रिया न करती ,न हस्ती ,न मुस्कुराती ,ऐसा लगता कि उसके चेहरे पर एक शून्यता सी छा गयी है. मुझे ये सब डरा देता. और एक उदासी मेरे मन पर छा जाती. खैर मैं वो कार्ड खरीद लाया. साल के समाप्त होने में अभी दो दिन बाकी थे और कालेज खुलने में तीन. इन तीन दिनों में मैंने कार्ड के साथ एक गुलाब का फूल भी देने की सोची. जैसे जैसे नए साल का दिन आ रहा था कार्ड देना मेरे लिए एक आयोजन सा बनता रहा जिसका मेजबान सिर्फ और सिर्फ मई था और मेहमान भी सिर्फ और सिर्फ मेरी वो मित्र जिसे अपनी प्रेमिका बनाने की ख्वाहिश मेरी इकलौती ख्वाहिश बन चुकी थी.
"अरे वाह ,हमारा इतना इन्तेजार ,वाकई मैंने भी तुम्हें बहुत मिस किया. नए साल की बहुत बहुत मुबारक " उसने बड़ी बेबाकी से कालेज के प्रवेश द्वार पर मुझे देखकर कहा . जैसे उसे इस बात का कोई अहसास ही न हो कि सिर्फ उसे ही इतने दिनों के बाद देखने के लिए मैं सुबह से उसकी राह देख रहा हूं.
मैं अपने दिमाग में चल रही भूमिकाओं के भंवर में फंसा हुआ उसके इस बोल्ड व्यवहार से चकित था. इसलिए हड़बड़ाते हुए मैंने भी उसे नए साल की बधाई देते हुए सिर्फ इतना कहा , 'तुम्हें भी.' न जाने वो तमाम बाते जो मैंने न जाने कितने अहसासों से बुनी थी. सब उलझ पुलझ सी गयी.
" अरे यार ,कोई कार्ड वगैरह नहीं लाए तुम मेरे लिए. दोस्ती में इतना हक़ तो बनता है. " कहते हुए उसने अपने बैग से एक ग्रीटिंग कार्ड निकल कर मुझे दे दिया.
" अब देखो न छुट्टियों में कही घूमने चली गयी थी, कल ही लौटी थी. जल्दबाजी में सभी दोस्तों के लिए शायद खूबसूरत कार्ड नहीं खरीद पायी. फिर भी मैं तुम लोगो को कार्ड देना कैसे भूल जाती.
" ऐसे कोई बात नहीं. ये कार्ड तो बहुत सुन्दर है. कितना सुंदर लिखा है इस पर 'फ्रेंड्स फॉरएवर. आई आम सॉरी कि तुम्हारा कार्ड जल्दबाजी में घर ही भूल आया. " मैंने सफ़ेद झूठ कह दिया, अपनी सारी हैरानी को मुस्कुराहट में बदलते हुए हकलाकर कहा.
नववर्ष के इस दिन हम सभी दोस्त अपने ग्रुप सहित कालेज की कैंटीन में आ गए. आज बहुत चहल पहल थी. मित्रता और प्रेम के नए दृश्य वहां बिखरे पड़े थे. और मैं खोया खोया सा बार बार अपने बैग में रखे उस प्यार के परवाने ग्रीटिंग कार्ड को छूकर देख लेता. मेरे दिल की धड़कने निराशा और भय से दुबकी जा रही थी.
नए साल के इस मौसम में सीनियर छात्र कुर्सियों का गोल घेरा बना कर बैठ गए. फिर बरी कुछ न कुछ गाने लगे. हमारा एक सीनियर म्यूजिक का छात्र था और मुझे भी म्यूजिक के छात्र होने के नाते जानता था. मेरे साथ बैठे एक मित्र राहुल और अंजलि ने भी उसी की सिफारिश पर कुछ चलती फिल्मों के रोमांटिक गीत गाकर सुनाए. आवाज कैसी है इस बात कि ज्यादा परवाह किसी को नहीं थी बस सब एक मस्ती में थे और शायद सर्दी की छुटियों के बाद अपने अंदर के अकेलेपन की बोरियत काट रहे थे.
मेरे मन में अपने अहसासों को कहने की एक ललक सी पैदा हुई. वहां गए जा रहे कई गीत सुनकर मैं अपने आप को, अपने दर्द को अपने बेबस शब्दों को कहने के लिए मचल रहा था कि अचानक उसने मेरा हाथ पकड़ा और ऊपर की ओर उठते हुए चीख पड़ी.
" अब मेरा दोस्त भी एक रोमांटिक गाना सुनाना चाहेगा. "
" क्यों नहीं ,क्यों नहीं , लेटस एन्जॉय द फन. " बैठे हुए कुछ सीनियर्स हमारी तरफ देखकर बोले.
मैं अचानक आये इस प्रस्ताव के लिए तैयार नहीं था ,पर शरमाते हुए खड़ा हो गया और गाने लगा ,"ऐ अजनबी तू भी कभी ,आवाज़ दे कही से......... ."
गनीमत मानिये कि मैं भावुकता में रोया नहीं ,पर मेरी आवाज़ जरूर कांप रही थी. गीत के ख़त्म होते ही खूब तालियां बजी और भावुकता दिन बड़ी मुश्किल से बीता. मेरा प्रेम मेरे बैग में पड़े ग्रीटिंग कार्ड के साथ ही वापिस घर लौट आया. नींद बड़ी बेचैनी से आई और मैंने सपने में उस ग्रीटिंग कार्ड को कई बार उसे देते देखा. जब मैं अपने इस स्वप्न के सुखद अहसास की चर्म सीमा पर था . नींद खुली और पता चला 'सपना क्या है जैसे सोयी हुई आंख का पानी.
खैर ये सिलसिला चलता रहा. उसकी दोस्ती और साथ के लिए मैंने अपने जज्बातों पर काबू पा लिया और उस खूबसूरत ग्रीटिंग कार्ड को अपनी किताबों की अलमारी में छुपा दिया. हम वैसे ही एक दूसरे से मिलते रहे जैसे पहले मिलते थे. कई बार लगता कि उसे मेरे दिल का हाल मालूम है. वो अक्सर मजाक में कहती.
"हमारे क्लासमेट्स को लगता है कि हमारे बीच कुछ चल रहा है . मैंने तो कह दिया निशि और सूद से कि देखो यार हमारी दोस्ती ही इतनी प्यारी है कि सबको ऐसा लगता है. क्या मैंने गलत कहा. "
" शायद उनका अंदाजा सही भी हो. "
मेरे दिमाग में गूंजते ये शब्द मुंह से निकलते ही बदल जाते और मैं उससे नजरे चुराकर कहता ,"हां ,बिलकुल ,इन लोगं को बाते बनाने से फुर्सत नहीं. "
मुझे ऐसा लगा कि जैसे वो मेरी आंखें पढ़ लेगी. कॉलेज के दूसरे ही साल के बाद हमारे रास्ते बदल गए. एक आर्मी ऑफिसर की बेटी होने के कारण ट्रांसफर के चलते उसे मेरे शहर से हजारों किलोमीटर दूर जाना पड़ा. उसके शहर छोड़ने के अंतिम दिन न जाने मैंने कितना कुछ कह देना चाहा. पर कह न सका. उसने जाते जाते मेरे कान में सिर्फ इतना कहकर विदा ली,
" मैं तुम्हें याद रखूंगी और हमेशा प्यार करती रहूंगी. "
मैं बस इतना कह पाया ," मैं भी. "
आज इस बात को कई साल बीत गए हैं. पर अब भी हर साल जब नया आता है तो किताबों की अलमारी में रखे उस ग्रीटिंग कार्ड को बड़े प्यार से खोलता हूं और उसके संगीत में उसे याद करता हूं. शायद पिता या पति हो जाने पर भी कई हसीं गीत गुनगुनाये जाते है. मेरी पत्नी की शक्ल में भी एक पद्मिनी कोल्हा पुरी है.