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पहले 'चपाती' लाल होती थी और फिर इस वैज्ञानिक ने उसका रंग बदल दिया

जब देश गेहूं की कमी से जूझ रहा था, तब इस वैज्ञानिक ने शानदार काम किया, अब वो इस दुनिया में नहीं रहे.

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डॉ. दिलबाग सिंह अटवाल
जब देश को आज़ादी मिली थी. उससे तकरीबन चार साल पहले बंगाल में भयानक अकाल पड़ा था. लाखों लोगों ने भूख से तड़पकर जान गंवाई थी. मौत का ये आंकड़ा कहीं 20 लाख मिलता है तो कहीं 30 लाख. उस वक़्त 10 फीसदी से भी कम ज़मीन पर सिंचाई की सुविधा थी. कृषि की हालत खस्ता हो गई थी. और फिर हरित क्रांति हुई. इस क्रांति के दौरान ही गेहूं की पैदावार बढ़ाने पर जोर दिया गया. मैक्सिको से गेहूं मंगाया गया. मगर ये गेहूं लाल था. आटा भी लाल होता था. जो लोगों को पसंद नहीं आता था, तब डॉ. दिलबाग सिंह अटवाल ने मैक्सिको के लाल गेहूं को उस रंग में तब्दील कर दिया जो आज मिलता है. उन्होंने रंग ही नहीं बदला बल्कि गेहूं की पैदावार भी बढ़ गई. गेहूं की नई नस्ल को पैदा करने वाले पंजाब के डॉ. दिलबाग सिंह अटवाल अब इस दुनिया में नहीं रहे.
14 मई को अमेरिका के न्यू जर्सी में लंबी बीमारी के बाद डॉ. दिलबाग की मौत हो गई. डॉ. दिलबाग पंजाब में जालंधर के लांबड़ा के नज़दीक कल्याणपुर में पैदा हुए थे. बताया जाता है कि उनके गांव का नाम कल्याणपुर तब ही कल्याण हुआ, जब उन्होंने मैक्सिकन गेहूं की वैरायटी को देसी किस्मों से क्रॉस कराकर कल्याण किस्म तैयार की.

कैसे नई किस्म को तैयार किया गया

भारत का प्रधानमंत्री बनने के बाद जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, 'अन्य चीजों के लिए इंतजार किया जा सकता है लेकिन कृषि के लिए नहीं.'
आज़ादी के बाद देश गेहूं की कमी से जूझ रहा था. और फिर 1960 में हरित क्रांति शुरू हुई. डॉ. दिलबाग के बारे में कहा जाता है कि वो पहले इंडियन साइंटिस्ट थे, जिन्होंने अमेरिकी साइंटिस्ट डॉ. नॉर्मन बोरलॉग के साथ मिलकर भारत की हरित क्रांति में अहम रोल अदा किया और गेहूं की कमी से जूझ रहे देश को उस परेशानी से निकाला. डॉ. नॉर्मन बोरलॉग को नोबेल से सम्मानित किया गया था. साल 2009 में उनकी मौत हुई.
डॉ. नॉर्मन बोरलॉग
डॉ. नॉर्मन बोरलॉग

साल 1964 में उस वक़्त के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने मैक्सिको से गेहूं के बीजों को इम्पोर्ट करने की मंजूरी दी. मैक्सिको से गेहूं की 'लर्मा रोजो 64 और पीवी 18' वैरायटी मंगाई गई. और फिर गेहूं का उत्पादन भारत में तेज़ी से बढ़ा. पैदावार तो बढ़ गई थी. मगर ये गेहूं लाल रंग का था जिस वजह से चपाती का रंग ऐसा था कि लोगों को नहीं भाया. आटा लाल होने की वजह से अजीब रंग की चपातियां बनती थीं. तब डॉ. दिलबाग ने मैक्सिकन गेहूं की वैरायटी पीवी 18 को देसी किस्मों से क्रॉस करवाकर 'कल्याण' वैरायटी तैयार की. अब भारत के पास गेहूं की कल्याण किस्म थी. जब इस गेहूं की इस किस्म की फसल तैयार हुई, उससे गेहूं का रंग ही बदल गया. जिसे 'अम्बर' कहा गया. जो आज मौजूदा रंग है.
दिल्ली के इंडियन काउंसिल ऑफ़ एग्रीकल्चरल रिसर्च ने एक और किस्म तैयार की जिसे 'सोना' कहा गया. बाद में सोना और कल्याण को मिलाकर 'कल्याण सोना' कर दिया गया.
'कल्याण सोना' गेहूं की वही किस्म है जो आज खेतों में देखने को मिलती है.
'कल्याण सोना' गेहूं की वही किस्म है जो आज खेतों में देखने को मिलती है.

और फिर गेहूं की पैदावार बढ़ गई

ये डॉ. दिलबाग़ की रिसर्च का ही नतीजा था कि साल 1960-61 की तुलना में साल 1970-71 में गेहूं की पैदावार तीन गुना बढ़ गई थी.
डॉ. दिलबाग ने सिर्फ गेहूं की तरह ही ध्यान नहीं दिया, बल्कि उनकी कामयाबी में बाजरे की पहली हाईब्रिड किस्म तैयार करना भी शामिल है. उन्होंने हाइब्रिड बाजरा-1 तैयार किया था.

ये मिले अवार्ड

डॉ. दिलबाग पंजाब एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी में प्लांट ब्रीडिंग डिपार्टमेंट के फाउंडर थे. साल 1967 में वो इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट मनीला फिलीपिंस में काम करने लगे थे. 1955 में उन्हें सिडनी की यूनिवर्सिटी ने डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी की डिग्री से नवाजा था. साल 1964 में उन्हें कृषि में रिसर्च शांति स्वरूप भटनागर सम्मान दिया गया. यह सम्मान भारत में विज्ञान के क्षेत्र में सबसे बड़ा सम्मान है. भारत सरकार ने उन्हें 1975 में पद्म भूषण अवार्ड से नवाजा था.

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