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आत्महत्या की कोशिश कर चुके बंदे ने बताया, दिमाग में ये 13 बातें चल रही थीं

पढ़िए लगभग आत्महत्या कर चुके इंसान की डायरी.

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फोटो - thelallantop
मर जाना एक बहुत बड़ी त्रासदी है. शायद सबसे बड़ी. तमाम दुख, तकलीफें, खुशियां, असंतुष्टि, नेम, फेम या बदनामी का अस्तित्व तभी तक है, जब तक सांसें चल रही हों. एक बार दम निकला नहीं कि सब कुछ निरर्थक हो जाता है. फिर भी लोग मर जाते हैं. ख़ुशी-ख़ुशी. पूरे होशो-हवास में जान जैसी चीज़ लुटा देते हैं, जिसको वापस पाने का कोई ज़रिया नहीं. 14 जून 2020 को  मुंबई में एक्टर सुशांत सिंह राजपूत ने अपनी जान ले ली. मौत को गले लगाने को तत्पर एक मनुष्य की ज़िंदगी के प्रति वो उदासीनता विचलित करने वाली थी. उसे देख कर एक ज़हन में बार-बार बज रहा है कि जो लोग मौत को गले लगाने का इरादा कर लेते हैं, उनके अंदर क्या चल रहा होता है!

मर जाना एक त्रासदी है. वो अंत है, दुखों का और खुशियों का भी.
मर जाना एक त्रासदी है. वो अंत है, दुखों का और खुशियों का भी.


मेरा एक करीबी मित्र है. इतना अज़ीज़ जैसे अपना ही एक हिस्सा हो. वो भी लगभग छू चुका था उस सीमा रेखा को, जिसे अगर क्रॉस कर लिया जाए तो लौटना नामुमकिन है. किसी वजह से वो उस लकीर को पार करने में नाकामयाब रहा. मुझसे सब कुछ शेयर किया उसने. तब की मनस्थिति, उपायों के लिए किए गए प्रयास, ज़हन में हर वक़्त चलने वाली बातें, उसके बाद की ज़िंदगी की तरफ देखने का नज़रिया. सब कुछ. उसकी इजाज़त से आपसे शेयर कर रहा हूं. ज़ाहिर है नाम नहीं बताऊंगा.
जब इंसान मरने की ठान लेता है, उसके दिमाग में एक पैरेलल यूनिवर्स जन्म ले लेता है. एक और दुनिया! जहां सिर्फ मौत से जुड़ी चीज़ों के विजुअल्स चलते रहते हैं. उसी से जुड़े ख़याल ज़हन पर हावी रहते हैं. कुछ भी कर रहे हो, बैकड्रॉप में एक ही सीन चलता रहता है. मौत का, उसे अंजाम देने वाले संभावित पलों का. उन संभावित घटनाओं और प्रतिक्रियाओं का, जो उसकी मौत के बाद वजूद में आएंगी. इंसान मौत के अलावा और कुछ सोचता ही नहीं. नीचे कुछ ऐसी बातें हैं जो मौत की राह का राही बनने के ख्वाहिशमंद शख्स के दिमाग में चलती रहती हैं. उसके साथ होती रहती हैं.
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सुसाइड की चाहत रखने वाले शख्स को एक अलग दुनिया नज़र आती है.


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उसकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में एक अजीब किस्म का थ्रिल घुस आता है. दुनिया को देखने का नज़रिया ही बदल जाता है. जो कुछ भी आस-पास हो रहा है, वो सब निरर्थक लगने लगता है. बल्कि हास्यास्पद.
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मरने वाला आदमी जीने की जद्दोजहद में लगी दुनिया को मूर्ख समझने लगता है. उसे लगता है कि कितने बेवक़ूफ़ हैं ये लोग, जो ज़िंदगी जैसी ‘फ़ालतू’ चीज़ के मोह में पड़े हैं. उसे खुद के फैसले पर गर्व होता है कि उसने बेवक़ूफ़ होना कबूल नहीं किया. बल्कि इस सबमें ठोकर लगाने का जिगरा है उसके पास.
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जान देने जैसे एक्स्ट्रीम कदम को जस्टिफाई करने के लिए वो तर्क खोजने लगता है. ऐसे शब्द ढूंढता है, ऐसी दलीलें इजाद करता है जो इस बात पर मुहर लगा सके कि मर जाना ही इकलौता और बेहतरीन हल था. खुद को यकीन दिला देता है कि यही बेस्ट है उसके लिए.
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अपने से पहले ख़ुदकुशी कर चुके लोगों के बारे में जानकारियां जुटाता है. उनके फैसले की दुनिया ने जो आलोचना की, उसे रद्द करता है और इस बात में संतुष्टि महसूस करता है कि वो उनकी मन:स्थिति को समझ सकता है.
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वो सुसाइड को बहादुरी का तमगा देने लगता है.

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लोगों से बहस भी करता है इस बारे में कि कैसे जान देना कायरता नहीं, बहादुरी है. संवेदनशीलता की पराकाष्ठा है. ज़िंदगी जैसी चीज़ को लुटा देने का फैसला करने वालों को ये कह के डिफेंड करने लगता है कि एक ऐसा फैसला लेना जो बदला न जा सके, बहुत हौसले का काम है.
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एक बार मरने का तय कर लेने के बाद उपायों की खोज शुरू हो जाती है. ज़हर, फांसी, बिल्डिंग से कूदना, रेल की पटरी जैसे तमाम विकल्पों के बारे में संजीदगी से सोचता है. ज़हन में मौत के सौंदर्यशास्त्र से जुड़ी बातें भी चलती है. वो मरने के बाद बदसूरत नहीं दिखना चाहता. साथ ही ये भी चाहता है कि मौत दर्दरहित हो. जो भी होना है वो बस हो जाए जल्दी से. सिलसिला लंबा न हो.
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सबसे दिलचस्प हिस्सा होता है उन संभावित प्रतिक्रियाओं के बारे में सोचना, जो उसकी मौत की ख़बर सुन कर आएंगी. पहले अपने करीबी दोस्तों के बारे में सोचता है कि फलां दोस्त ये सोचेगा, तो फलां ये कहेगा. जो शब्द वो कहेंगे उन्हें भी खुद ही इमैजिन करने लगता है. हर एक को अलग-अलग सोच के थ्रिल महसूस करता है कि उसे कितना शॉक लगेगा!
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सिर्फ दोस्त ही नहीं बल्कि रैंडम लोग भी ज़हन में आते हैं. किसी पल अचानक कोई बचपन का सहपाठी याद आता है, जिससे सालों से राब्ता न हो. दिमाग में ख़याल आता है कि उसे देर-सवेर जब ख़बर लगेगी, वो कैसे रिएक्ट करेगा! यही नहीं घर में कूड़ा उठाने आने वाला शख्स, उसका धोबी, उसका परमानेंट रिक्शा वाला, मोहल्ले का पंसारी सब-सब ज़हन में आते हैं. हर एक को लेकर उनके संभावित रिएक्शन की एक काल्पनिक फिल्म चलती रहती है आंखों के आगे.
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कई ख्याल एक साथ उसे दबोचे रहते हैं.

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वो अपने आस-पास के लगभग सभी लोगों की प्रतिक्रिया जी लेता है मरने से पहले. शायद इसके पीछे ये एहसास हो कि मरने के बाद उसको पता नहीं चलेगा कि किसने क्या कहा. इसलिए जीते जी ही सोच लिया जाए.
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एक बड़ा मसला उन जिम्मेदारियों का होता है, जो उसके कंधों पर होती हैं. उनसे मुंह चुराना सबसे विकट काम होता है. उसकी फैमिली, उसकी संतान का उसके बाद क्या होगा, ये ख़याल सबसे ज़्यादा विचलित करता है. ऐसे में वो जबरन ऐसे लोगों को सीन में फिट करता है जो उसकी जगह को भरेंगे. पत्नी के मायके वाले, अपना बड़ा भाई, पत्नी की दूसरी शादी की कल्पना, कुछ भी. मकसद सिर्फ इतना होता है कि उस मानसिक छटपटाहट से मुक्ति पा सके, जो कम से कम एक फ्रंट पर उसके बुरी तरह नाकाम हो जाने की भविष्यवाणी कर रही हो.
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एक और बड़ा बदलाव ये आता है कि आदमी संत, फ़रिश्ता वगैरह-वगैरह हो जाता है. अचानक से लोगों के प्रति नफ़रत, गुस्सा या चिढ़ ख़त्म हो जाती है. अपने बड़े से बड़े दुश्मन को भी दिल से माफ़ कर देता है. जिन लोगों को अब तक सख्त नापसंद करता आया है, उनके बारे में अच्छी बातें सोचने लगता है. मरते हुए किसी नकारात्मकता को जगह नहीं देना चाहता अपने दिल में.
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दिमाग उन फिल्मों के बारे में भी सोचता है, जो आने वाली हैं और जिन्हें वो देख नहीं पाएगा. इस सूरतेहाल पर हंसता भी है कि उन फिल्मों को देखने की उसे कितनी तलब थी. इसी तरह वो तमाम संभावित घटनाएं ज़हन से गुजारता है, जो उसकी मौत की संभावित तारीख़ के बाद वजूद में आएंगी और जिनमें उसकी शिरकत नहीं होगी.
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वो अपने सुसाइड नोट को बड़ा दिलचस्प बनाना चाहता है.

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सबसे बड़ा मसला होता है सुसाइड नोट को आकर्षक बनाने का. वो तरह-तरह के लफ्ज़, वाक्यप्रयोग खोजता है जो उसके दुनिया के साथ अंतिम संवाद को कालजयी बना के रख दें. वो चाहता है कि उसका आखिरी वार्तालाप आकर्षक हो. साथ ही वो अपने फैसले को हर तरह से जायज़ ठहराकर जाना चाहता है. इसके लिए वो जीवन के निरर्थक होने की ढेर सारी दलीलें इकट्ठी करता है. वो नहीं चाहता कि कोई उसके पीछे उसे मूर्ख कहे, कायर कहे. इसलिए वो हर तीसरी लाइन में ये बात दोहराता है कि मरना सबसे शानदार हल था तकलीफों से निजात पाने का.
इन सबके अलावा भी बहुत कुछ ऐसा चलता रहता है ज़हन में. तमाम बातें शब्दबद्ध करना नामुमकिन है. डर भी लगता है उसे. और फिर उस डर को ओवरटेक करने की संभावना से बहादुर वाली फीलिंग भी आती है.
मेरे उस दोस्त ने उन दिनों – जब उसके ज़हन पर मौत सवार थी – अपनी डायरी के पन्ने काले किए थे. नीचे लिखा पैराग्राफ उसी डायरी से उठाया गया है. एक भी शब्द नहीं बदला है. पढ़िए इसमें उसने कैसे दार्शनिक टच देकर मौत को एक सामान्य घटना साबित करने की कोशिश की है. आज इस पन्ने को पढ़ कर वो खुद भी दहल जाता है.
हर किसी को दिलचस्पी है ये जानने में कि मौत के आगे क्या है.
हर किसी को दिलचस्पी है ये जानने में कि मौत के आगे क्या है.

“मौत पर मातम का रिवाज़ बेहद अटपटी चीज़ है. सांसें बंद होने को उतनी ही सहज सामान्य घटना मान लिया जाना चाहिए जितना मोबाइल की बैटरी ख़त्म हो जाना. असुविधाजनक लेकिन पूरी तरह काबिले-क़बूल. मौत को एक अमूर्त, अकल्पित शय का जामा पहना कर हमने उसके इर्द-गिर्द एक दहशत का आवरण बुन रखा है. जबकि हक़ीक़त में ये हो सकता है कि रूह आज़ाद करा देने वाली ये घटना चैन-ओ-सुकून के नए दरवाज़े खोलती हो! किसे पता!
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इस कशमकश से निकलना मुश्किल है, नामुमकिन नहीं.


जीने का जश्न यकीनन एक खुशनुमा उपलब्धि है, लेकिन हयात की बेड़ियों से अपनी शर्तों पर आज़ादी पाने का हक़ भी होना चाहिए हर एक को. मौत पर विलाप के पीछे आखिर क्या वजह हो सकती है? आप चाहे हज़ार दुनियावी वजहें गिना दो, मरने वाले से पीछे रह गए लोगों की मुहब्बत के दावे पेश करो, लेकिन मेरी निगाह में इसकी एक सिंपल सी एक्सप्लेनेशन है. हमें मौत की दहलीज़ के उस पार क्या है, ये नहीं पता और ऐसी अनिश्चित राहों पर अपने अज़ीज़ को तनहा सफ़र पे भेजते हुए दिल तो लरज़ेगा ही. लेकिन अगर किसी करिश्मे से ये अनिश्चितता ख़त्म हो जाए तो फिर? अगर पता चल जाए कि सांसें थम जाने के बाद बंदा कौन सी राह का राही बना तो फिर? क्या चुनाव आसान नहीं हो जाएगा? और फिर क्या मौत से लिपटे हुए मनहूसियत के टैग हवा नहीं हो जाएंगे?
यूं तो चमत्कारों में मेरा यकीन नहीं लेकिन ऐसे किसी मोज़िज़े का मैं खुले दिल से स्वागत करूंगा. कभी-कभी दिल करता है ज़िंदगी-मौत के इस खेले को इस ग्रह से बाहर निकल कर तटस्थ निगाहों से देखूं. कहीं किसी बहुत ऊंची जगह से. जहां से ये महसूस हो कि उस सीमारेखा पर असल में होता क्या है, जहां शरीर से रूह जुदा हो जाती है. क्या वो वाकई मातम का, अफ़सोस का, विलाप का मुकाम है? या फिर जश्न का मरकज़! मौत से जुड़े हुए तमाम डर लांघकर देखना है मुझे. क्या पता कोई आबेहयात उस पार छुपा हो, जिसे हम यहां खोजते हुए अपनी सांसें फुलाये दे रहे हैं! क्या पता ये ज़िंदगी का तमाम सफ़र ही पॉइंटलेस हो! या कम से कम उस अटेंशन के लायक ना हो, जो इसे सहज ही प्राप्त है! मुझे बेहद उत्सुकता है जानने की.”
इसे गौर से पढ़िएगा दोस्तों. ये वो रोजनामचा है, जो आपको बताएगा कि ज़िंदगी जैसी कीमती चीज़ फेंक देने का इरादा करने से पहले दिमाग किस हद तक आपको कायल करने की कोशिशें करता है. आज मेरा वो दोस्त वो सब याद करता है, तो उस घड़ी को शुक्रिया अदा करता है, जब वो मौत के सम्मोहन से खुद को छुड़ा सका.अब वो उन तमाम पलों को याद करता है, जो उसने उस भयानक रात के बाद जिए. और फिर उसे एहसास होता है कि मर जाना भी उतना ही निरर्थक है, जितनी कभी-कभी ज़िंदगी लगती है.


एक वीडियो देख लें: