
अविनाश दास
अविनाश दास पत्रकार रहे. फिर अपना पोर्टल बनाया, मोहल्ला लाइव
नाम से. मन फिल्मों में अटका था, इसलिए सारी हिम्मत जुटाकर मुंबई चले गए. अब फिल्म बना रहे हैं, ‘आरा वाली अनारकली’ नाम से. पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है. कविताएं लिखते हैं तो तखल्लुस ‘दास दरभंगवी’ का होता है. इन दिनों वह किस्से सुना रहे हैं एक फकीरनुमा कवि बुलाकी साव के, जो दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आ रहा है. बुलाकी के किस्सों की सत्ताइस किस्तें आप पढ़ चुके हैं. जिन्हें आप यहां क्लिक कर पा सकते हैं.
हाजिर है अट्ठाइसवीं किस्त, पढ़िए.
वह तश्तरी जिसमें लज़ीज़ खाने की बेशुमार चीज़ें रखी थीं मेरी सबसे बड़ी बहन मुझसे बहुत बड़ी है. जब वह नौवीं-दसवीं में पढ़ रही थी, मैं कुइरा गुरुजी से पहाड़ा सीख रहा था. मेरी बहनेंं ही मेरे लिए दुनिया को अलग तरह से देखने-समझने का दरवाज़ा थीं. पिता की सबसे अधिक लगाम मेरे ऊपर ही रही. मेरी बहनों को उन्होंने जीवन जीने की पर्याप्त सुविधा दे रखी थी. मुझे मेरे जन्मदिन पर गीताप्रेस की एक किताब और एक कलम के अलावा साल भर मार-पिटाई और डांट-फटकार ही मिलती थी. चूंकि हम गरीबी रेखा के नीचे गुज़र-बसर करने वाले लोग थे, मेरी बहनों की सखी-सहेलियां रहन-सहन, पहनावे-ओढ़ावे में काफी उन्नत थीं. छोटे से शहर में यह एक अलग किस्म का समाजवाद था, जिसने मेरी बहनों को आत्मविश्वास का नया आकाश दिया. जाति और धर्म को लेकर मेरी मां बहुत संकीर्ण थी, लेकिन बहनें सोच की इस छाया से मुक्त ही रहीं.
बड़ी दीदी की एक दोस्त थी, फिरदौस. उनके पिता जेल में अधिकारी थे. हमारा गांव जेल के पश्चिमी कोने से आधा-पौन किलोमीटर की दूरी पर था. फिरदौस दीदी का घर जेल कैंपस में था. वह लाल सितारों वाले सुनहरे कपड़े पहनती थी. बड़ी दीदी मुझे उनके घर लेकर जाती थी, तो वहां कोने कोने में रूह आफ़्ज़ा की खुशबू महसूस होती थी. अक्सर स्कूल से लौटने में बड़ी दीदी को देर हो जाती, तो मां के पूछने पर उसका जवाब होता - फिरदौस के यहां रुक गयी थी. मां बस इतना पूछती - कुछ खाया-पीया तो नहीं? मां के सवाल के जवाब में बड़ी दीदी के पास सिर्फ एक मुस्कराहट होती थी. मुझे वह मुस्कराहट अच्छी लगती थी. मैं भी मुस्कराना चाहता था और बड़ी दीदी से कहता कि अगली बार फिरदौस दीदी के घर जाना, तो मुझे भी ले जाना.
जैसे हमारे यहां होली मनायी जाती थी, वैसे ही रौनक से भरा हुआ मुसलमानों का त्यौहार है - ईद उल फितर. पहला ईद उल-फ़ितर पैगंबर मुहम्मद ने सन 624 ईस्वी में जंग-ए-बदर के बाद मनाया था. हमारे गांव में मुसलमानों की छोटी सी बस्ती है. रमजान का चांद डूबने और ईद का चांद नज़र आने पर उसके अगले दिन शव्वाल की पहली तारीख़ को हमारे गांव में भी अच्छी ख़ासी चहल-पहल होती थी. उन दिनों बुलाकी साव मुझे बांध पर घुमाने के लिए ले जाता था, तो हम मुसलिम टोले से गुज़रते थे. बच्चे चमचमाते नये कपड़ों में मस्जिद के बाहर डोलते नज़र आते. तरह-तरह की ख़शबू में हमारी मदहोशी पनाह मांगती थी, लेकिन बुलाकी साव को मां की सख़्त हिदायत थी कि इफ्तारी का एक टुकड़ा निवाला भी मेरे मुंह में नहीं गिरना चाहिए. यही वजह है कि मुसलिम टोले में क़दम पड़ते ही बुलाकी साव की चाल तेज़ हो जाती थी.
वह रमजान के दिनों की एक शाम थी, जब बड़ी दीदी मुझे फिरदौस दीदी के घर लेकर गयी. बड़ी दीदी के पास ननिहाल से मिला एक सलवार-कुर्ता था, जो वह ख़ास मौक़ों पर पहनती थी. उसने वही पहना और मैंने पूरी बांह वाली लाल बुश्शर्ट और नीचे नीले रंग की हाफ पैंट. पैंट के पीछे, दायां वाला हिस्सा स्कूल के स्लाइड से फिसल कर फट गया था, फिर भी वही पैंट सबसे नयी थी. मां ने वहां रफू लगा दिया था. फिरदौस दीदी हमें देख कर बहुत खुश हो गयी. वह बड़ी दीदी को लेकर अंदर चली गयी. मैं बाहर के कमरे में ही सोफे पर बैठ गया. मुझे याद नहीं, हम वहां कितनी देर रहे - पर वह तश्तरी अच्छी तरह याद है, जिसमें लज़ीज़ खाने की बेशुमार चीज़ें रख कर हमारे सामने की टेबल पर सजायी गयी थी. मैंने छक कर खाया था और छोटी उमर में ही बड़ों की तरह डकार ली थी. सब हंस पड़े थे. बड़ी दीदी को भी हंसी आ गयी थी.
उस शाम मेरी मां आंगन में मुंह फुला कर बैठी थी. हम घर लौट कर उससे लिपटने ही जा रहे थे कि वह उठ कर खड़ी हो गयी. बुलाकी साव पास में खड़ा था. मैंने मां से पूछा, क्या हुआ? मां ने कहा - वहां कुछ खाये-पीये भी थे? मैंने खाने की तारीफ़ करनी शुरू की, तो उसने बड़बड़ाते हुए बुुलाकी साव की ओर देखा - अछिंजल (गंगाजल) ले आओ. बुलाकी गोसाईं घर से पीतल के लोटे में रखा अछिंजल ले आया. मां ने लोटा लेकर हाथ में थोड़ा अछिंजल लिया और मुझ पर और बड़ी दीदी पर छींटे मारने शुरू कर दिये. दावत की गर्मी के बाद अछिंजल की ठंडी फुहार में भीगनेे पर अच्छा लग रहा था. मां को भी इस बात से ठंडक मिल रही थी कि उसने हम दोनों भाई-बहन को पवित्र कर दिया है. किसी भी किस्म के पाप के बाद पवित्रता पाने का हिंदू धर्म में यह आसान तरीका बहुत आकर्षक है. मैंने देखा कि बुलाकी साव ज़ोर-ज़ोर से हंस रहा है, तो मैं उसे मारने के लिए दौड़ा. उसने मुझे गोद में उठा कर कंधे पर बिठा लिया और गाछी (बगीचे) की तरफ चल पड़ा. रास्ते में उसने यह कविता मुझे सुनायी.
रिश्तों में ही नाप-तोल है दुनिया पूरी गोल गोल है