
अविनाश दास
अविनाश दास पत्रकार रहे. फिर अपना पोर्टल बनाया, मोहल्ला लाइव
नाम से. मन फिल्मों में अटका था, इसलिए सारी हिम्मत जुटाकर मुंबई चले गए. अब फिल्म बना रहे हैं, ‘आरा वाली अनारकली’ नाम से. पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है. कविताएं लिखते हैं तो तखल्लुस ‘दास दरभंगवी’ का होता है. इन दिनों वह किस्से सुना रहे हैं एक फकीरनुमा कवि बुलाकी साव के, जो दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आ रहा है. बुलाकी के किस्सों की उन्नीस किस्तें आप पढ़ चुके हैं. जिन्हें आप यहां क्लिक कर पा सकते हैं.
हाजिर है बीसवीं किस्त, पढ़िए.
जहां-जहां उसके क़दम पड़े, ज़मीन लाल होती चली गयी मशहूर था कि श्यामा माई के पास साफ दिल लेकर जाओ और कुछ भी मांगो तो वह दे देती हैं. उन दिनों मैं रांची के बरियातू हाई स्कूल में पढ़ता था. छुट्टियों में दरभंगा आया था. मेरी कक्षा में सुधा नाम की एक लड़की थी, जिससे मुझे प्यार हो गया था. मैं रोज़ एक चिट्ठी लिख कर उसके बस्ते में डाल देता था. एक दिन लंच के वक्त वह मुझे कोने में ले गयी और कहा कि शादी वाला प्यार तो ख़ैर कभी भी तुमसे नहीं करूंगी, लेकिन भाई-बहन वाला प्यार ज़रूर कर सकती हूं. मैंने श्यामा माई से प्रार्थना की कि अगर वह लड़की मुझसे मेरे ही जैसा प्यार करेगी, तो मैं इक्कीस रुपये का लड्डू चढ़ाऊंगा. फिर मैं निश्चिंंत होकर मंदिर के प्रांगण में इधर-उधर घूमने लगा. सबसे आकर्षक वह दीवार लगी, जिस पर गणित के सूत्रों की तरह ढेर सारे नाम पत्थर, कोयला और खल्ली से उकेरे गये थे.
सारे के सारे नाम जोड़ियों में थे. सोनी जोड़ पिंटू. रूबी जोड़ टुन्ना. बिट्टू जोड़ बबिता. ऐसी हज़ारों जोड़ियां उस दीवार पर ही बनीं या असल जीवन में भी बन पायी थीं - यह पता नहीं - मगर विश्वास सघन हो गया कि श्यामा माई जोड़ियां बना सकती हैं. सुधा ने कभी मेरा प्रेम-निवेदन स्वीकार नहीं किया, लेकिन जब मेरे ही शहर में मुझे एक लड़की से प्यार हुआ, उस वक्त का श्यामा माई के मंदिर से जुड़ा एक किस्सा याद आ रहा है. उस लड़की का ज़िक्र मैंने पहले किया था, जिससे गुटखा खाकर बिछड़ जाना पड़ा था. एक दिन सिनेमा हॉल के अंधेरे में उसी लड़की को जब मैंने ज़बर्दस्ती चूमनेे की कोशिश की, तो वह तुनक कर खड़ी हो गयी और बाहर के उजाले में आ गयी. मैं पीछे-पीछे गया. वह एक रिक्शे पर बैठ गयी. मैं भी उस रिक्शे पर बैठ गया. रास्ते में उसने रिक्शा रुकवाया. उतर कर एक दुकान में गई और लौट आयी. हम रिक्शे पर चले जा रहे थे, चले जा रहे थे.
श्यामा मंदिर के सामने उसने रिक्शा रुकवाया. हम मंदिर की उसी दीवार के पास जाकर बैठ गये, जहां हज़ारों जोड़ी नाम हमें निहार रहे थे. उसने पर्स की चैन की खोली. उसमें से एक छोटी सी डिबिया निकाली. वह सिंदूर की डिबिया थी, जिसे उसने रास्ते में ख़रीदा था. उसने वह डिबिया मेरे आगे बढ़ा दिया. उसकी आंख से लगातार आंसू गिर रहे थे. मैं भी रोना चाहता था, लेकिन मेरे होश उड़े हुए थे. वह मुझसे तीन साल बड़ी थी और मैं सचमुच उससे प्रेम करता था. लेकिन शादी एक बड़ा फ़ैसला थी. मैंने दार्शनिक अंदाज़ में उससे विनती की कि मुझे थोड़ा वक्त दो. प्यार और शादी दो अलग-अलग चीज है. उसने कहा कि तुम सारे मर्द एक जैसे होते हो. मैंने कहा, एक बार फिर सोच लो. वह अच्छी तरह सोच कर आयी थी, लेकिन मुझे दुविधा से बाहर निकालने के लिए उसने सिंदूर की डिबिया वहीं फेंक दी.
वह डिबिया पास से गुज़र रहे एक आदमी के पांव पर गिर कर खुल गई. मैंने देखा कि वह बुलाकी साव है, तो मैं एकदम से उल्टा घूम गया. काफी देर बाद जब मैं मुड़ा, तो वह लड़की वहां से जा चुकी थी. सिर्फ बुलाकी साव बचा था. सिंदूर की डिबिया अब भी उसके पांव के पास औंधी पड़ी थी. बुलाकी साव का पांव लाल हो गया था. वह मेरी ओर देखे जा रहा था. मैं अपनी चोर नज़र में प्रायश्चित के भाव लाना चाहता था, लेकिन वह नहीं आया. बुलाकी साव ने मेरा हाथ पकड़ा और मंदिर के सामने बने तालाब के पास ले आया. जहां-जहां उसके क़दम पड़े, ज़मीन लाल होती चली गयी. तालाब की आख़िरी सीढ़ी पर बैठ कर उसने पानी में अपना पांव रखा. पानी लाल और लाल होता चला गया. हम दोनों चुप थे. मुझे याद है, उसने अपनी इस कविता से वह चुप्पी तोड़ी थी.
मन के पंख उगे लेकिन थी पांवों में ज़ंजीर सुखी रहे सब दुनिया वाले रोता रहा कबीर