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किस्सा बुलाकी साव-3, जब बुलाकी को इश्क हुआ

एक आदमी था फकीर टाइप का. रोज नई-नई कविताएं सुनाता था. उससे मैंने पूछा बगावत के गीत मैथिली में कब लिखे जायेंगे?

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Avinash Das
अविनाश दास

अविनाश दास पत्रकार रहे. फिर अपना पोर्टल बनाया, मोहल्ला लाइव
  नाम से. मन फिल्मों में अटका था, इसलिए सारी हिम्मत जुटाकर मुंबई चले गए. अब फिल्म बना रहे हैं, ‘आरा वाली अनारकली’ नाम से. पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है. कविताएं लिखते हैं तो तखल्लुस ‘दास दरभंगवी’ का होता है. इन दिनों वह किस्से सुना रहे हैं एक फकीरनुमा कवि बुलाकी साव के, जो दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आ रहा है. किस्सों की अगली किस्त हाजिर है, पढ़िए.


  रायसाहेब पोखर के पास मिला बुलाकी मैथिली के राइटर रामदेव झा से मिलकर जब मैथिली के दूसरे राइटर रामानंद रेणु से मिलने जा रहा था, तो बीच में रायसाहेब पोखर के पास एक पेड़ के नीचे रुक गया. दूसरी तरफ कुछ लड़के बंसी फंसाये हुए थे. उन्‍हें एक आदमी निहार रहा था. ऐसा लगा कि वह बुलाकी साव है. मैंने आवाज लगायी. पोखरे के ठहरे पानी पर तैरती हुई मेरी आवाज दूसरी तरफ पहुंची. उसके चौंकने से पता चला कि वह बुलाकी साव ही है. दौड़ कर उसके पास पहुंचा. हालांकि मैं उसे लेखक नहीं मानता था, क्‍योंकि उसका लिखा हुआ कभी सामने नहीं आया. पर उससे मिलने में लेखक से मिलने की संतुष्टि मिलती थी. उसने पूछा, इधर किधर? मैंने बताया कि दरअसल यह जानना चाहता हूं कि हमारी मैथिली में बग़ावत के गीत कब लिखे जाएंगे. सो आज सिर्फ मैथिली के साहित्‍यकारों से मिल रहा हूं. बुलाकी साव हंसा और जोर से हंसा. कहने लगा कि बगावत के गीत किसी योजना के तहत नहीं पैदा होते, जिसमें खरीदे हुए क्रांतिकारी शब्‍द पकाये जाएं. विद्यापति ने जो भी जितना भी लिखा, वह सब बगावत के गीत हैं. बोलना ही बगावत है. उसने फैज की नज्म सुनायी, "बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, बोल जबां अब तक तेरी है..." लेकिन इस नज्म के अधिकांश शब्‍द मुझे समझ ही नहीं आये. मुझे उर्दू नहीं आती थी. फिर बुलाकी साव ने उसका जो तर्जुमा (अनुवाद) सुनाया, वह आज आप सबके सामने रख रहा हूं. उम्‍मीद है, वह एक अलग और स्‍वतंत्र कविता जैसी लगेगी.

जीभ के दाने खुरच कुछ बोल बोल सब बातें दफ़न हैं जो कई सालों से सीने में
फुसफुसा कर बोलते थे कौन सुनता था कौन चेहरे में छुपी चुप्‍पी समझता था कौन आंखों की ज़बां पढ़ कर पिघलता था इसलिए अब बोल क्‍योंकि बोलना हथियार है साथी और बोलना ही वार है साथी
जीभ के दाने खुरच कुछ बोल बोल सब बातें दफ़न हैं जो कई सालों से सीने में!


  बुलाकी की कनपटी फटी, बांह का मांस बाहर आ गया आप सब इन दिनों बुलाकी साव को जितना प्‍यार कर रहे हैं, सच यह है कि मैं इतने प्‍यार से उन दिनों उसे नहीं समझ पाया था. यह मेरा कनफेशन है. मुझे लगता था कि वह तुक्‍कड़ है, कुछ से कुछ बोलता है. मैं सिर्फ उसका हमदर्द था. उसे उसके गांव से बाहर कर दिया गया था क्‍योंकि वह एक कायस्‍थ की लड़की से प्‍यार कर बैठा था. लड़की भी उससे प्‍यार करती थी और एक दिन जब रात के वक्‍त दोनों गांव से भाग रहे थे, मुखिया के बेटे ने अपने दोस्‍तों के साथ उसे पकड़ लिया था. लड़की को वापस घर भेज दिया गया. लेकिन बुलाकी साव की इतनी पिटाई की गयी कि उसकी कनपटी फट गयी और बांह का मांस निकलकर बाहर आ गया. यह बुलाकी साव से हमारी मुलाकात के पहले का वाक़या है. दोनों घाव उसकी जिंदगी में कभी नहीं भरे. मैं जब भी उन घावों के बारे में उससे पूछता. वह हंस कर टाल जाता. मैंने अपने सोर्स से सब पता लगा लिया. लेकिन उससे कभी जिक्र नहीं किया. हां, मोहब्‍बत के बारे में उसके विचार जानने को मैं हमेशा उत्‍सुक रहा. जब भी मैंने मोहब्‍बत का तराना उससे छेड़ा, वह हंस कर टाल गया. उस वक्‍त गंभीरता से बोलता- रोजमर्रे पर ध्‍यान दो मियां. ऐसे ही एक बार उसने रोजमर्रे पर लिखी अपनी यह कविता सुनायी थी.

खट से पट की बात कराओ खटपट बंद कराओ चट से पट की सब्‍ज़ी लेकर चटपट भात खिलाओ नट से खट में घुंघरू बांधो नटखट नटिन नचाओ लट से पट का जाला बुन कर लटपट बात बनाओ
सूरज जब तक डूब रहा है तब तक देह गलाओ सांझ सकारे घर आ जाओ मन का दिया जलाओ पोथी लेकर पतरा बांचो दास कबीरा गाओ चादर जितने पांव पसारो बिस्‍तर पर सो जाओ


 
बुलाकी साव के किस्सों की पिछली दो कड़ियां यहां हैं-