
अविनाश दास
अविनाश दास पत्रकार रहे. फिर अपना पोर्टल बनाया, मोहल्ला लाइव
नाम से. मन फिल्मों में अटका था, इसलिए सारी हिम्मत जुटाकर मुंबई चले गए. अब फिल्म बना रहे हैं, ‘आरा वाली अनारकली’ नाम से. पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है. कविताएं लिखते हैं तो तखल्लुस ‘दास दरभंगवी’ का होता है. इन दिनों वह किस्से सुना रहे हैं एक फकीरनुमा कवि बुलाकी साव के, जो दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आ रहा है. बुलाकी के किस्सों की बारह किस्तें आप पढ़ चुके हैं. जिन्हें आप यहां क्लिक कर पा सकते हैं.
हाजिर है तेरहवीं किस्त, पढ़िए.
बागमती नदी के बीच त्यागी जी ने जलसमाधि ले ली उस दिन गांव के मंदिर पर सुबह से भीड़ लगी थी. मंदिर के अहाते में एक सूखा कुआं था, जिसके चबूतरे पर त्यागी जी का शव रखा था. त्यागी जी इसी मंदिर के पुजारी थे. ब्राह्मण नहीं, कर्ण कायस्थ थे. उस साल अगर मैं पांच-छह साल का था, तो उनकी उम्र मुझसे बारह-तेरह गुना ज़्यादा थी. यानी वे सत्तर साल के आसपास रहे होंगे. मेरे बाबा लगते थे. पर चूंकि गांव में सब उन्हें त्यागी जी कह कर बुलाते थे, मैं भी उन्हें बाबा नहीं कहता था. त्यागी जी कहता था. हालांकि मेरी उम्र कुछ भी कहने की नहीं थी. बस आंखें खोल कर घटनाओं को देखते रहने की थी. तो मैं देख रहा था कि मंदिर के चबूतरे पर त्यागी जी का शव रखा है. गांव के लगभग सारे लोग जमा हैं. स्त्री-पुरुष-बच्चे. शव के दाहिने पैर की तरफ बुलाकी साव बैठा है. लोग उससे पूछ रहे हैं कि क्या हुआ? कैसे हुआ?
त्यागी जी को हमने कभी बोलते हुए नहीं सुना. जिन्होंने सुना था, वे कहते थे कि उन्हें वेद के सारे श्लोक और मानस की पूरी चौपाई कंठस्थ थी. वे रोज़मर्रा की ज़बान कम और धर्म की भाषा ज़्यादा बोलते थे. जब उन्होंने मौन व्रत का संकल्प लिया, तब एकमात्र बुलाकी साव ही था जो नियम से रोज़ शाम को आकर उनके पास एकाध घंटा बैठता था. उनके मौन व्रत का लाभ सबसे ज़्यादा तशेड़ियों को हुआ. सुबह-दोपहर-शाम मंदिर पर ताश के पत्ते फेंटे जाने लगे. त्यागी जी बस देखते और दीवार से चिपकी हुई सिंदूरी रंग वाली हनुमान जी की मूर्ति के सामने बैठे रहते. उस दिन जब वह उठे, उन्होंने देखा कि उनका एक भतीजा मंदिर के बरामदे में लेट कर अनाप-शनाप बड़बड़ा रहा है. वह रात भर कहीं से ताड़ी पीकर सुबह-सुबह आ गया था.
उन दिनों बुलाकी साव का अपने गांव से निर्वासन का काल था, तो वह हमारे गांव में रहता था. त्यागी जी को उसने बागमती नदी की ओर जाते हुए देखा. वह त्यागी जी के साथ चल पड़ा. तब नदी पर एक अधूरा पुल बना था, जिसे कम्युनिस्ट विधायक उमाधर सिंह ने किन्हीं वजहों से पूरा नहीं होने दिया था. नदी की एक तरफ हमारा गांव बरहेता है, जो शहर से लगा हुआ है. और दूसरी तरफ आहिल गांव है. दोनों गांवों में विकास का अंतर सदियों के अंतर जैसा लगता था. नदी में एक बड़ी सी नाव (जेट्टी) थी, जो दोनों तरफ के लोगों को इधर से उधर लाती, ले जाती थी. उस सुबह जब त्यागी जी बागमती के किनारे पहुंचे, नाव हमारे गांव के किनारे पर लगी थी. उन्होंने बुलाकी साव को इशारे से नाव की रस्सी खोलने को कहा. बुलाकी साव ने रस्सी खोल दी. त्यागी जी नाव पर चढ़ गये. बुलाकी साव भी उनके पीछे नाव पर चढ़ गया.
नदी की धारा पश्चिम से पूरब की ओर जाती थी. नाव भी उस दिशा में चल पड़ी. थोड़ी दूर जाने पर बीच नदी में त्यागी जी खड़े हो गये. आंखें बंद की और नदी में कूद पड़े. बुलाकी साव इस पूरे दृश्य से सन्नाटे में आ गया. वह भी नदी में कूद पड़ा. पर त्यागी जी पता नहीं कहांं विलुप्त हो गये थे. बुलाकी साव उन्हें खोज नहीं पाया. गांव के मल्लाहों ने तीन घंटे की मेहनत के बाद त्यागी जी को खोज निकाला. लेकिन तब तक वे सिधार चुके थे. मैंने जब मंदिर में त्यागी जी के शव के पास बुलाकी साव को देखा, तो लोग उसे झकझोर रहे थे. ऐसा लग रहा था कि त्यागी जी ने अपने मौनव्रत का संकल्प उसके गले में बांध दिया है. लोगों ने जब बुलाकी साव का गला दबाया, उसके सब्र का बांध टूट गया. वह बेहिसाब रोने लगा. रोते हुए मैंने उसकी आवाज़ कई बार सुनी - पुजारी जी ने जल समाधि ले ली.
यही वह घटना थी, जिसके बाद गांव का पतन शुरू हुआ. उस पतन की पराकाष्ठा था एक बलात्कार, जो उसी मंदिर में किया गया था. उस रात गांव में रामलीला चल रही थी. और अरण्यकांड का वह दृश्य मंचित किया जा रहा था, जब लक्ष्मण ने शूर्पनखा की नाक काट ली थी. मुझे याद है, इसी रात को रामलीला देखकर लौटते हुए बुलाकी साव ने यह कविता सुनायी थी.
उसने कहा कैसे हो मैंने कहा सोने के लिए चांदी की करवट ले रहे हैं उसने कहा हीरा हो, हीरे का यही होता है मैंने कहा वह चमकते जगराते में नींद का अंधेरा खोजता है उसने कहा तुम्हारी समस्या यही है कि तुम सोचते बहुत हो मैंने कहा सोचना अपनी ही शवयात्रा में शामिल होने की पर्यायवाची क्रिया है उसने कहा नहीं सोचना अपनी तेरहवीं का भोज खाने जितना सुखद मैंने कहा नहीं सोचना जीवित रहने की गारंटी है उसने कहा गारंटी तो भाई आजकल गारंटी की भी नहीं मैंने कहा सोचना भूल कर देखो, जीवित रखने वाली लोकलुभावन हवाएं आसपास बहती हुई मिलेंगी उसने कहा इसके बारे में सोच कर देखना होगा मैंने कहा फिर तो मृत्यु के एहसास की कच्ची सड़क पर दिमाग़ का घोड़ा दौड़ाना होगा उसने कहा मौत, एक काम है, जो अब तक बाकी पड़ा है मैंने कहा मौत घर से दफ्तर जाने की तैयारी जैसी होती है, यह हर रोज़ करना होता है, हम रोज़ मरते हैं उसने कहा जीना एक पाठ्यक्रम है, जिसमें हमें सीखना है कि मरा कैसे जाए मैंने कहा संवादों की आख़िरी मुठभेड़ सहमति से होती है