
अविनाश दास पत्रकार रहे. फिर अपना पोर्टल बनाया, मोहल्ला लाइव
नाम से. मन फिल्मों में अटका था, इसलिए सारी हिम्मत जुटाकर मुंबई चले गए. अब फिल्म बना रहे हैं, ‘आरा वाली अनारकली’ नाम से. पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है. कविताएं लिखते हैं तो तखल्लुस ‘दास दरभंगवी’ का होता है. इन दिनों वह किस्से सुना रहे हैं एक फकीरनुमा कवि बुलाकी साव के, जो दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आ रहा है. बुलाकी के किस्सों की सोलह किस्तें आप पढ़ चुके हैं. जिन्हें आप यहां क्लिक कर पा सकते हैं.
हाजिर है सत्रहवीं किस्त, पढ़िए.
दी गूंगा इज इंडियाज फेमोस रिभर दुर्गापूजा का असली मेला पोलो मैदान में लगता था. लेकिन उत्सव की सामाजिक छटा वीणापाणि क्लब में दिखती थी. वीणापाणि क्लब बंगाली टोला (लहेरियासराय) का सांस्कृतिक केंद्र था. अभी भी होगा. बचपन में हम मिट्टी की रंगीन बिल्लियों के दीवाने थे और दुर्गापूजा का इंतज़ार रंग-बिरंगी बिल्लियों के लिए करते थे. हाईस्कूल से निकलने के बाद इन बिल्लियों की जगह उन लड़कियों ने ले ली, जो स्कूल में हमसे बिछड़ गयी थीं और दुर्गापूजा में अपनी सहेलियों, भाई-बहनों, परिवार के साथ मेला घूमने आती थीं. अक्सर हमें फुचका (गोलगप्पे) खाती हुईं दिख जाती थीं. हम कभी यह हिम्मत नहीं कर पाये कि जाकर उनसे पूछें, इंटर में क्या सब्जेक्ट लिया. मुझे एक ख़ास लड़की का इंतज़ार रहता था और ज़्यादातर वह हमें नवमी के मेले की रात दिखती थी. उस रात मेरा मन बड़ा बेचैन रहता था. उन दिनों मैं बुलाकी साव से मुकेश के दर्द भरे नग़में सुनाने की फरमाइश किया करता था.
ऐसे में एक दिन बुलाकी साव के साथ हम रूपा स्टूडियो के सामने से गुज़र रहे थे. बुलाकी मुकेश का नग़मा 'चांदी की दीवार न तोड़ी' गुनगुना रहा था. थोड़ा आगे जाकर अचानक रुक गया. एक उजले मकान की ओर देखने लगा. उस मकान की खिड़कियां बंद थीं. मकड़ियों ने उन पर जाले बनाने शुरू कर दिये थे. इसी मकान से बंगाली टोला शुरू होता था. बुलाकी ने बताया कि यह उस लेखक का मकान है, जिसने कभी शादी नहीं की. और 91 साल की उम्र में कुछ साल पहले गुज़र गया. यह वही लेखक था, जिसकी रानू शृंखला वाली कथाओं ने बंगाली साहित्य में धूम मचा दी थी. मैंने पूछा, कौन था वह लेखक? बुलाकी ने बताया, बिभूतिभूषण मुखोपाध्याय. तब तक साहित्य की लत मुझे लग चुकी थी और मैं बिभूति बाबू का एक नॉवेल 'पंक पल्लब' पढ़ चुका था. मैंने बुलाकी से पूछा कि क्या तुमने कभी उन्हें देखा था. बुलाकी ने बताया कि तुमने भी देखा था मुन्ना, पर तुम्हें याद नहीं.
बुलाकी ने याद दिलाया, तो मुझे याद आया. वह सन '86 की दुर्गापूजा थी. सप्तमी के दिन बुलाकी मुझे दुर्गा की प्रतिमाएं दिखाने ले आया था. शाम का वक्त था और वीणापाणि क्लब के प्रांगण में हाथों में छोटा-छोटा कलश लिये पंद्रह-बीस औरतें क्लब के अंदर जा रही थीं. अंदर दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की गयी थी. लाल धारियों वाली उजली साड़ियों से ढंकी बंगाली औरतें स्वर्ग से उतरी अप्सराओं जैसी लग रही थीं. हम किनारे खड़े होकर उन्हें देख रहे थे. ठीक उसी वक्त झक सफेद कुर्ता-पाजामा में एक अतिवृद्ध व्यक्ति एक किशोर का हाथ थामे क्लब के अंदर से धीमा-धीमा आते हुए दिखे. सभी औरतों ने उन्हें अदब से रास्ता दे दिया. वृद्ध व्यक्ति रुके, नज़र उठा कर सभी को देखा, मुस्कराये और एक दिव्य पुरुष की तरह अंतर्ध्यान हो गये. वह बिभूतिभूषण मुखोपाध्याय थे. मेरी नज़र उन पर ही जा टिकी थी. बुलाकी ने जब झकझोरा, तब तक वे जा चुके थे. बंगाली औरतें भी प्रांगण में नहीं थीं.
मैं चकित-भ्रमित उस उजले मकान को देख रहा था, जिसका वारिस अब कोई नहीं था. बुलाकी ने बताया कि बिभूतिभूषण मुखोपाध्याय दरभंगा महाराज के स्वामित्व वाले अंग्रेज़ी अख़बार 'इंडियन नेशन' के लंबे समय तक प्रबंधक रहे. वह अंग्रेज़ी भी अपनी मातृभाषा बांग्ला में ही बोलते थे, दी गूंगा इज इंडियाज फेमोस रिभर. पंडौल में पैदा हुए, तो मैथिली बहुत प्यार से बोलते थे. बिभूति बाबू ने बंगाली टोला में संस्कृति की बहुरंगी इमारतें खड़ी की थीं, जो अब उनके मकान की तरह ही भुरभुरा रही थी. अचानक मुझे लगा कि कोई सुबक रहा है. वह बुलाकी साव था. मैंने बुलाकी का हाथ पकड़ा, तो वह फूट पड़ा, ज़ोर-ज़ोर से हिचकियां लेकर रोने लगा. मैं उसे बिभूति बाबू के ही बरामदे में लगे चापाकल के पास ले गया. उसे पानी पिलाया. फिर वहीं सीढ़ियों पर हम बैठ गये. वहीं बैठ कर बुलाकी ने यह कविता मुझे सुनायी थी.
लोग हुए कितने संसारी भीगी आंखें सीना भारी