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‘मेल नहीं, कहां अपने नामवर और कहां दुलहिन?’

डॉ. नामवर सिंह नहीं रहे. पढ़िए उनके भाई काशीनाथ सिंह की उन पर लिखी किताब 'घर का जोगी जोगड़ा' का एक अंश

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नामवर सिंह ने आलोचना की विधा को पूरी तरह से स्थापित किया. बकलम खुद, हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ, छायावाद, पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, दूसरी परंपरा की खोज, वाद विवाद संवाद इसका उदाहरण हैं. (Photo: Sumer Singh Rathore)

धाकड़ लेखक और आलोचक नामवर सिंह नहीं रहे. 93 साल की उम्र हो गई थी. दिल्ली के एम्स में भर्ती थे. एएनआई के मुताबिक रात 11.51 पर उन्होंने आखिरी सांस ली. तबीयत काफी समय से खराब चल रही थी. पिछले महीने अपने कमरे में गिर गए थे. सिर में गंभीर चोट आ गई थी जिसके बाद उन्होंने एम्स में भर्ती कराया गया था. उनको याद करते हुए आज पढ़िए उनके भाई काशीनाथ सिंह की उन पर लिखी किताब 'घर का जोगी जोगड़ा' का एक अंश - 




तीन भाइयों के संयुक्त परिवार में मंझले भाई नागर सिंह, गांव के पहले पढ़े लिखे नौकरी पेशा, प्राइमरी स्कूल के मास्टर, दस बीघे खेतों के हिस्सेदार, हार्निया को जानलेवा रोग समझने वाले नागर सिंह. इन्हीं नागर सिंह के बड़े पुत्र नामवर सिंह जिन्हें उनके पिता ‘बड़के जने’ छोड़ कर, नामवर कभी नहीं बोले. लड़का लम्बा, सुन्दर, जहीन. उदय प्रताप कॉलेज में हाईस्कूल का विद्यार्थी. हर महीने वजीफा की कमाई अभी से. नार्मल की ट्रेनिंग कर लेगा तो मिडिल की मास्टरी कहीं गई नहीं. खेती-बारी भी देखेगा और आमदनी भी होती रहेगी. अगर कहीं शहर की हवा लग गई तो बेहाथ हो जाएगा. यही सही वक़्त है लगाम भी लगाने का.
नामवर को पता नहीं और पिताजी ने जबान दे दी. न पूछा-ताछा, ना जांचा-परखा, न देखा-ताका. जबान दे दी, तो दे दी. नामवर बहुत आगबबूला हुए, बहुत रोए-गाए, कोई रास्ता न देख भाग खड़े हुए. पिताजी ने सोचा- जवानी का जोश है, बीवी आ जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा. यह बात उनके दिमाग़ में आ ही नहीं सकती थी कि वे अपनी जबान के ठीहे पर अपने बेटे को ही नहीं, दूसरे की बेटी को भी हलाल करने जा रहे हैं.
पकड़ मंगाए गए नामवर और शादी धूमधाम से हुई. आठ-नौ साल का छोटा भाई मैं - उनका सहबाला बना. पालकी में जामा जोरा में नामवर एक सिरे पर, दूसरे सिरे पर मैं, बीच में हमारे पांवों के पास पड़ा मउर. इतना ही याद है कि वे गुमसुम और चिन्तित थे. चेहरे पर ब्याह की खुशी का कोई अता-पता नहीं था.
भौजी आईं तीसरे दिन डोली में. वे सांवली, सलोनी और हृष्ट-पुष्ट थीं. घराने की औरतों ने देखा और सबने तारीफ़ की. स्वभाव से गम्भीर और कम बोलने वाली- लेकिन जहां तक जोड़े का सवाल है- ‘मेल नहीं, कहां अपने नामवर और कहां दुलहिन?’ यह भी उन्हीं के मुंह से सुना.
और हुआ वही जो पिताजी ने सोचा था. ’45 में शादी हुई और ’48 में विजय पैदा हुआ. सारा घर खुश और सबसे ज़्यादा पिताजी कि उनके फ़ैसले में कहीं कोई ग़लती नहीं हुई.
तीन सास, तीन जेठानियां और पांच-छह छोटे-बडे़ देवर और आंगन और कोठरियों में लड़ते, झगड़ते, खेलते, रोते बच्चे-बच्चियां. इन्हीं के बीच भौजी अपने काम से काम रखतीं. सबसे छोटी होने के कारण सुनना और सबको देखना भी था. पिताजी, मां और चाचाओं के पास जितना प्यार था, सब विजय के लिए.
नामवर सिंह की पैदाइश बनारस के पास जीयनपुर गांव की है. तारीख 28 जुलाई 1927 की. बाकी सारी पढ़ाई लिखाई बनारस में ही हुई. नामवर सिंह की पैदाइश बनारस के पास जीयनपुर गांव की है. तारीख 28 जुलाई 1927 की. बाकी सारी पढ़ाई लिखाई बनारस में ही हुई.(Photo: Sumer Singh Rathore)

मुझे नहीं याद कि भैया ने कभी भौजी को दिन के उजाले में देखा हो. भौजी ने भी उन्हें देखा होगा तो घूंघट से ही. साल में एक दो बार ही सही, बनारस से घर आते वे. इतने बेहया भी नहीं थे गांव की नज़रों में कि औरत आ गई तो जब-तब दौड़ा करें. भौजी दिन भर पूरा नहीं, तो आधा घूंघट में ही रहतीं हमेशा. यहां तक कि औरतों के साथ नित्यकर्म के लिए रात और भिनुसार बाहर निकलतीं तो भी घूंघट में ही.

एक रिवाज़ था गांव का, घराने का भी. जिसे किसी रात पत्नी के साथ सोना होता, वह सबसे अन्त में खाने जाता, उसे थाली उसकी औरत ही परोसती. मर्द इशारे से या फुसफुसा कर अपने आने की बात बता देता. यह बहुत कुछ पूर्वनिर्धारित रहता. औरतें भी जानतीं और मर्द भी. इसमें अगर किसी तरह का असमंजस होता तो मर्द रात में कोठरी में घुसने से पहले बाहर खड़ाऊं छोड़ जाता.
मेरा ख़्याल है कि नामवर के वैवाहिक जीवन की चन्द रातें भी इसी शैली में गुजरी होंगी जिसका सुफल विजय था.
सच पूछिए तो नामवर को ठीक से तब तक न पिता जी जानते थे, न हम दोनों भाई. भौजी का तो सवाल ही नहीं था. 1941 में उन्होंने गांव छोड़ा था. छुट्टियों में दो-चार दिनों के लिए जब कभी आते, गांव में छोटे-बड़े सबसे मिलते और चले जाते.
हमें इतना पता था कि ‘कवी’ हैं. पिताजी इतना जातने थे कि डेढ़-दो साल पहले विश्वविद्यालय की पढ़ाई खत्म कर चुके हैं. उसके बाद भी वहां क्यों पड़े हुए हैं- यह नहीं समझ पाते थे.
पिताजी के भाइयों में एक ठंडा तनाव था लेकिन घर के अंदर भयावह कलह. और वह बढ़ता जा रहा था. मैं हाईस्कूल का इम्तिहान देने जा रहा था और मंझले भाई इंटर का. जुलाई से विजय की भी पढ़ाई शुरू होनी थी. बंटवारे की धौंस दो-तीन साल पहले से ही दी जा रही थी लेकिन बेटों के हित में पिताजी सहते और टालते जा रहे थे. वे खुद खेतीबारी में अनाड़ी थे. लेकिन अब टालना सम्भव नहीं रह गया था. वे परेशान और चिन्तित.
ऐसे ही में उन्होंने बनारस से भैया को बुलाया. भैया चुपचाप उन्हें सुनते रहे और कुछ नहीं बोले. मेरी जानकारी में यह ‘पिता-पुत्र’ का पहला लम्बा संवाद था- दस-पन्द्रह मिनट का. इससे पहले ‘कब आए? कब जाना है?’ से अधिक कभी नहीं सुना था.
सागर और जोधपुर यूनिवर्सिटी होते हुए दिल्ली की जवाहरलाल यूनिवर्सिटी पहुंचे. सागर और जोधपुर यूनिवर्सिटी होते हुए दिल्ली की जवाहरलाल यूनिवर्सिटी पहुंचे. (Photo: Sumer Singh Rathore)

शाम को पिताजी और उनके दोनों भाई जुटे. भैया ने व्यवहार में कभी उन तीनों में फर्क नहीं किया था. वे भी शायद पहली बार मुंह खोल रहे थे उन तीनों के सामने. सिर्फ़ निवेदनवश. वह कुछ इस तरह था जो मुझे याद है - ‘आप तीनों मेरे पिता हैं. कभी जबान नहीं खोली आप सबके सामने. लेकिन जो कुछ देखा-सुना उसी के आधार पर कहना चाहता हूं कि बात और बिगड़े और लोग हम पर हंसें, इसके पहले आप तीनों अलग हो जाएं. आपस में प्रेम बना रहे, इसके लिए भी यह ज़रूरी है.

‘इतना ध्यान रखें कि गांव से बाहर किसी को खबर न हो. किसी रिश्तेदार या पास-पड़ोस के किसी आदमी को पंचायत करने का मौका न मिले. इसी में आपकी प्रतिष्ठा है.’
और अन्तिम बात उन्होंने पिताजी से कही - ‘बड़का बाबू घर के मालिक हैं. और कक्का आपके छोटे भाई. बड़का बाबू जो उचित और सही समझेंगे, बिना भेद के करेंगे. इतना विश्वास कीजिए और सिर झुका कर स्वीकार कीजिए.’
‘मेरी यही सलाह है, बाकी आप लोग बड़े हैं, जो ठीक समझें, करें.’
वे बड़का बाबू के पैताने बैठे थे, उठकर खड़े हो गए आधे घंटे के अन्दर.
तीनों ने घर के अपने ही एक बच्चे की ऐसी ‘निःसंगता’ की कल्पना नहीं की थी.
अगली सुबह वे लौट गए पिता जी से यह कहते हुए कि पढ़ाई न रामजी की बन्द होगी, न काशी की. आप स्कूल मत छोड़िए, उतना ही कीजिए जितना बन पड़े, जो हंसें उन्हें हंसने दीजिए. अधिक से अधिक यही होगा कि फसल नहीं होगी या कम होगी.
गांव पर हम दोनों भाई भैया के आगे पीछे रहते थे - हर समय और हर जगह. यह हमने देखा कि जिस पिता के सामने हमीं नहीं, भैया ने भी, कभी कुछ कहने की हिम्मत नहीं की थी, उसी के सामने बड़े बेटे की ज़िम्मेदारी के साथ बोलते रहे, और वे सुनते रहे.
बंटवारा हो गया- वैसे ही जैसे भैया ने कहा था.
किसी को खबर तक नहीं लगी- न विवाद, न मनमुटाव, न कहासुनी, न शिकवा-शिकायत! तीनों दुखी, लेकिन सन्तुष्ट.
पिता जी के हिस्से दो बैल, दस बीघे खेत, घर की दो कोठरियां, आंगन और रसोई के आधे-आधे भाग आए. दुआर साझा - जब तक सबके अपने-अपने न हो जाएं.
बंटवारे से सबसे खुश औरतें थीं. काम का बोझ खत्म. आंगन छोटा हो गया था - न बुहारने में दिक्कत, न लीपने में. खानेवाले कम हो गए थे - चाहे जब पका लो- राशन खर्च भी कम, मेहनत भी कम. दिन भर ढेकी चलाने, मूसल कूटने और जांता पीसने से छुट्टी. बर्तन कम हो गए थे- जब चाहे मांज लो. गाय भैंस थी नहीं कि दूध गरमाओ, दही जमाओ. अब तो भौजी की मदद के लिए एक देवरानी भी आ गई थी. और देखो तो अब दो औरतों का काम ही नहीं रह गया था घर में.
इसी समय खबर आई कि विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में भैया की नौकरी लग गई.
इस समाचार से सब खुश थे लेकिन सबसे ज़्यादा भौजी. सही भी था. ब्याह कर आए आठ साल हो गए थे और अब तक वे किसके पीछे मर-खप रही थीं? सास-ससुर, जेठ-जेठानी, देवर-देवरानी, इनके बच्चे. क्या इन्हीं के लिए ब्याही गई थीं? अपना ‘मरद’ कहां था इनमें? उन्हें याद आई होंगी अपनी सखियां. अपने रिश्तेदार-नातेदार भी याद आए होंगे जो परदेश में अपने बीवी और बच्चों के साथ मौज कर रहे हैं. भौजी के भीतर भी सपने उग आए होंगे कि अब उन्हें भी जीयनपुर के सारे झमेलों से छुट्टी मिल जाएगी और चली जाएंगी अपने आदमी के पास. वहां उनका अपना घर होगा, अपना राज होगा, वे होंगी, उनका मरद होगा, बेटा होगा - बस. और यह सोचना सही भी था. पास-पड़ोस के गांवों के नौकरिहा यही कर रहे थे.
नामवर सिंह के लिखे का प्रताप ऐसा है कि उनके छोटे भाई, काशी का अस्सी लिखने वाले काशीनाथ सिंह कहते हैं - 'हिंदी आलोचकों में जो लोकप्रियता नामवर सिंह की है वैसी किसी की नहीं.' नामवर सिंह के लिखे का प्रताप ऐसा है कि उनके छोटे भाई, काशी का अस्सी लिखने वाले काशीनाथ सिंह कहते हैं - 'हिंदी आलोचकों में जो लोकप्रियता नामवर सिंह की है वैसी किसी की नहीं.' (Photo: Sumer Singh Rathore)

इन सपनों में पहला पलीता लगाया पिताजी ने कि वे अपने पोते को अपने से तब तक दूर नहीं करेंगे जब तक उसकी बुनियाद मजबूत नहीं हो जाएगी और वह हाईस्कूल नहीं कर लेगा. उन्हें शहर की पढ़ाई पर भरोसा नहीं था. बिगड़ सकता है बच्चा. कोई देखने-ताकनेवाला भी न होगा. इन सारी बातों के पीछे उनका उससे भावनात्मक लगाव भी था. बेटों से जीवन भर बातें नहीं कर सके थे लेकिन वह उनका मुंहलगा था. दिन भर उलझे रहते थे उससे.

दूसरा पलीता पहले ही लग चुका था- यदि उसे भी पलीता मानें तो.
‘रामजी भी पढ़ेंगे और काशी भी. पढ़ाई किसी की बन्द नहीं होगी.’- बोल गए थे भैया. इसका मतलब इनमें से एक शहर जाएगा और जाएगा वह जिसके लिए गांव पर पढ़ाई की गुंजाइश नहीं. रामजी इंटर कर चुके थे. गांवों में कहीं डिग्री कॉलेज नहीं. काशी तो शहीद गांव से इंटर कर भी सकते हैं लेकिन रामजी?
पिताजी एक दूसरी मुश्किल में उलझे थे- वे तो रहेंगे दिनभर स्कूल- गांव से एक-डेढ़ मील दूर यहां घर कौन देखेगा ? उस बीच कोई जरूरत पड़ी तो ? रोपनी है, जुताई है, हेंगाई है, बुवाई है, कटिया है, दौंरी है, खेत-खलिहान है, आया-गया है, बनिहार कर रहा है- नहीं कर रहा है, बंटवारे का पहला ही साल है, कौन देखेगा ? काशी अभी छोटा है, कोई अनुभव भी नहीं. अगर रामजी भी चले गए तो क्या होगा ?
एक नई समस्या. पिताजी ने भैया के सामने रखी.
भैया दुविधा में. उन्होंने यह बात हम दोनों भाइयों के सामने रखी. रामजी भैया ने मेरे चेहरे की ओर देखा- ‘ऐसा है भैया कि आप काशी को ले जाइए. यह पढ़ने में भी तेज है और इतना सब इसके वश का भी नहीं. मैं तो प्राइवेट भी बी.ए. कर सकता हूं.’ यह कहते हुए उन्होंने मेरा ही नहीं, भैया का मन भी पढ़ लिया था.
मैं स्वार्थी और घुन्ना. एक बार भी मेरे मुंह से नहीं निकला कि ये झूठ बोल रहे हैं. इन्हें ही जाना चाहिए. मैं सब देख भी लूंगा और पढ़ भी लूंगा. जब सुविधाएं हैं तो प्राइवेट क्यों ?
(लोगों, ‘भाई और भाई के प्रेम’ को हम तीनों भाइयों में सबसे ज़्यादा भुगता है रामजी भैया ने- इतना कि कभी-कभी मैं आत्मग्लानि से भर उठता हूं. एक बार उनकी पढ़ाई का क्रम जो टूटा सो टूट ही गया - वे कई बार कोशिश करने के बाद भी बी.ए. नहीं कर सके - मजबूरी में उन्हें ‘चकबन्दी काननूगो’ की मामूली-सी नौकरी करनी पड़ी. सारी ज़िन्दगी भौजी उन्हें कोसती रहीं और वे चुपचाप सहते रहे - उनके बेटे-बेटियों ने ‘भ्रातृ प्रेम’ के इस अपराध के लिए उन्हें कभी क्षमा नहीं किया.)


Ghar Ka

पुस्तक: घर का जोगी जोगड़ा

लेखक: काशीनाथ सिंह

पृष्ठ: 135 

प्रकाशक: राजकमल प्रकाशक

मूल्य: 150 (पेपरबैक) | 266 (हार्डकवर)

उपलब्धता: अमेज़न 




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