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गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ के पुस्तक अंश

लेखिका गीतांजलि श्री का उपन्यास ‘रेत समाधि’ साहित्य की दुनिया में उसने धूम मचाई हुई है. इसे इंटरनेशनल बुकर प्राइज की लॉन्ग लिस्ट में शामिल किया गया है. हिंदी की यह पहली किताब है जो इस प्रतिष्ठित पुरस्कार की सूची में शामिल की गयी है.

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हिंदी की यह पहली किताब है जो इस प्रतिष्ठित पुरस्कार की सूची में शामिल की गयी है. (फोटो- दी लल्लनटॉप)

वरिष्ठ लेखिका गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ ने इंटरनेशनल बुकर प्राइज की लॉन्ग लिस्ट में अपना नाम दर्ज कराया है. हिंदी की यह पहली किताब है जो इस प्रतिष्ठित पुरस्कार की सूची में शामिल की गयी है. पढ़िए इसका एक अंश.

परिवार की दशा दिल्ली नगरी सी है. ठस्समठस्सा तितर बितर अस्त व्यस्त चीलसपट्टा खील बताशा पुराना सिकंदर लोदी सबसे पुरानी इन्द्रप्रस्थ जगर जगर मॉल बुक्कायंधी झोपड़पट्टी और ऊपर और नीचे धरती और अम्बर के चीथड़े बिजली और टेलीफोन के तारों पर मटमैली पन्नियों से झूलते और कभी पास खड़े मति-मारे को छुल जाते और करंट लगा के उसका सफ़ाया कर जाते. पर इससे न तो शहर साफ़ होता, न आबादी घटती. दिल्ली और परिवार अजर अमर, बमगोले पे टिके, फटते, फूटते, चलते रहते.

उसी तरह जैसे किसी को नहीं ख़बर कि क्या हो रहा है दिल्ली में, किसी को नहीं मालूम परिवार के भीतर भी. मसलन इस घर की माँ जी कहाँ गयीं और क्यों गयीं किसी को नहीं पता. जितने सर उतनी बातें और सर तो कितने उस साँसत के दिन. क्योंकि पुराना दस्तूर निभाते जनता दौड़ी, सारी की सारी, अपनी उम्र के हिसाब से तेज़ या मट्ठर, उतावली या संजीदा, और बहुत चिन्तित कि हाय कैसे ये हुआ, बेचारी, और एनजीओ के कार्यकर्ता भी आ धमके कि कहीं बुजुर्गों के संग ज़्यादती का मामला तो नहीं?

वर्ग पाठ का दिन वो बन गया और सीख सकते थे कि कहाँ वर्गों में लचीलापन है कि इधर से उधर झूल लें, कहाँ किलेबंदी है कि न आर न पार और ये कि उनका सारा वैविध्य एक जगह जमा. एक तो छात्र निकला, किसी हमदर्द अफ़सर का बेटा, जिसके शोध का विषय वर्गीकरण का ब्यौरा माँगता था. उसका लैपटॉप साथ रहता ही था, झट निकाल के नोट्स लेने लगा कि इसकी चाल, उसकी ढाल, कैसे उनके वर्ग को दर्शा देती है.

एक सर आसमान में उठाये घुसती है, अगला 'एक्सक्यूज़ मी’ कह कर गलियारा पार करता है, कौन सबको अनदेखा करके धढ़धढ़ा के जाता है, किसके लिए जनता स्वयं पीछे हट जाती है, कौन गर्भगृह में पहुँचकर कुछ पूछेंगी, कौन नौकरों के क्वार्टरों में जाकर फुसफुसायेगा, कौन बस खिड़की की ओट से पलक झपकायेगा, कौन खाली बिस्तर पर बैठ जाएगा, कौन पैताने खड़े, अनुपस्थित पाँवों पर माथा टेकेगी, ऐसा कुछ, ऐसे नोट्स. ये जगह नहीं है उसकी तफ़सील में जाएँ पर ढेरों बारीकियाँ नोट कीं शोधार्थी ने, कि किस वर्ग में खानदानीपन का विनीत बड़प्पन था, किसमें नवधनाढ्य की फूहड़ अहंमन्यता और किस निचले तबके में जाति-विशेष निरीहता, किसमें अस्मिता उद्दंडता. इतना कहना फ़िलहाल काफी होगा कि वर्ग के सारे प्रकार जो दिल्ली में पूरे में फैले थे, यहाँ एक जगह मिल गए और स्टूडेंट की तो चांदी हो गयी.

उधर से गुज़रते ऑटोरिक्शा वाले भी इंजन चलाये रखे रुकते और पूछते क्या हो गया और कोई आगे बढ़ जाता कोई पूरा रुक जाता व हुजूम में जुड़ जाता. जैसी जिसकी रुचि और मसरूफ़ियत.

एक बच्ची ने माता जी के कमरे की दीवार पर, बाहर की तरफ़, घाव देख लिया. वहाँ वो आए दिन लकड़ी से शक्लें खुरचती थी. डरी कि मैया ने पकड़ लिया तो बोलेंगी तेरी ही कारस्तानी है. तो वो क्या कहेगी? ऊँहूँ, कह देगी दीवार ठंडी से सिकुड़ते सिकुड़ते चटख गयी मैया, मैं क्या जानूँ इस फटे के बारे में. उसे नहीं पता था कि इस फटे के उस तरफ़ माताजी का पलंग था जिस पर से वो गायब हो गयी थीं. उसने यूँ ही तीन ईंट एक पर एक रखीं और डिगडिगाती उन पर खड़ी हो गयी. फटा है तो दूरबीन हो जा. भीतर झाँकने की आज़माइश की, नज़र ऐसे अन्दर घुसाती जैसे धागा पिरोती हो होशियारी से. गुपचुप मुस्करायी, आँख-देखे पे कम, मन-देखे पे ज़्यादा. क्या-आ, किसी ने नहीं पूछा क्योंकि सब अपने अलग तनाव में थे. अन्दर सुनसान था.

सब ठीक हो जाएगा, बड़े की पत्नी बोलीं, सीधे पति से नहीं पर उन्हीं के लिए, जैसे उनका अक्सर ढंग था एक दूसरे से बोलने का, आधे अलग घूमकर. वो आ जाएँगी, जैसे पापा बिना बताये निकल जाते थे और अपनी मज़बूरी से लौट आते थे.

उसी पल बड़े की बहन ने फ़ोन नीचे पटका और तमतमा के कहा आज तक कुछ नहीं पड़ी थी, अब सब हमदर्दी में मरे जा रहे हैं.

नौकरों को लगा यह बात मेमसाहब के लिए कही गयी है. आपस में बोलने लगे कि फरक तो है ही अपने और पराये खून में, अपने बच्चे जैसे तड़पते हैं, गैर कैसे वो महसूस कर सके हैं, तभी तो इतनी आसानी से मैडम कह रही हैं कहीं नहीं जाएँगी आ जाएँगी और पहले से नहीं कहती रहीं जाएँगी कहाँ घूम फिरकर यहीं आएँगी? बेचारी, तिनका सी जान रह गयी थीं, खाना भी कुछ नहीं पचता था, दो दाने दिक्कत से चुगती थीं, सुबह एक फुल्का, संझा को ज़रा सा सूप, दो निवाले टोस्ट के, सबकी जि़द पर, उस पर तोपगोला रोज़ कि महँगाई है महँगाई.

साहब अपनी अलमारी में कपड़े नहीं रखते, मेवा मिठाई चॉकलेट पे ताला लगाते हैं, कि मेमसाहब अपनी साथिनों और रिश्तेदारों को बाँट दती हैं, फुसफुसी हँसी छूटी.

गुलाबी चटख नेल-पोलिश लगाये हैं मैडम, आज भी, दिल टूटता है. साहिब का तो एकदम रोनू चेहरा हो गया है.

वो तो पहले से लगी थी.

मिटा नहीं सकतीं? कौन अपने से करना है — हाथ फैला के बैठ जाती हैं कि स्पिरिट से साफ़ कर दो.

उधर सिड बाबा भी नहीं हैं और दूसरे बाबा तो फ़ोन से सारी चिन्ता कर लेवे हैं. वहाँ से माँ की सुन लो और दु:ख जता दो. और माँ भी हर छोटी बात की शिकायत वहीं लगाती हैं. आज सुना गयीं कि साहब को चाय में शहद नहीं दिया तो बिफर गए. खाने पीने से बेचारे यों ही बेज़ार हो गए हैं, क्या नन्हा सा मुँह निकल आया है, एक चाय अपनी पसन्द की चाह लें तो उस पर भी ऐतराज़. मुझ पे चिल्लायीं कि उनका हरा पेटीकोट नहीं फैलाया. भई किसे कुछ याद आज के दिन, सब परेशान, कहाँ हैं माताजी, क्या हो क्या सकत है?

माने चिन्ता की सरगोशियों में बहू पर ताने कसे जा रहे थे या इसी के बहाने अपनी बहुओं को लेकर भड़ास निकल रही थी. क्योंकि किसी को ऐसा नहीं लगा कि पति के चेहरे पे पसीज के पत्नी ने कहा हो कि खुद को सँभालो, कोई ऐसे नहीं उड़ जाएगा.

बड़े की पत्नी के भी होंठ काँपने लगे और आँखों में यों बड़े बड़े आँसू छलक आये और निकलीं तीर की तरह सेल-फ़ोन लिए कि ऑस्ट्रेलिया फ़ोन लगायें कि मुँह खोलो न खोलो हम तो खलनायिका हैं, एक बाप तुम्हारे, एक बुआ, सारी चिन्ता उन्हीं को, और उनके देखादेखी अमलों की भी ज़बान कतरनी बनी हुई.

बहू का एड़ियाँ ठोंकते बाहर निकलना, बेटी का थकी चप्पलें घसीटते अन्दर आना, चलता रहा. दरवाज़े पर दोनों उलटी दिशाओं में बढ़ते हुए रुक जातीं, आँख न मिलाने सा मिलातीं, और दरवाज़े ने कुछ कहा तो कहाँ सुन पातीं, जो बातों में एक और बात.

ख़ैर बातें तो बातें होती हैं, सही ग़लत चलती रहती हैं और मुँह बंद रखना किसे आता है, पर मुद्दा तो माताजी थीं जो कब से बस पड़ी थीं, पीठ बनी, फिर कल्पतरु बन गयीं और फिर हवा.

पुस्तक – रेत समाधि

लेखक –गीतांजलि श्री

प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन

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