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बासु चैटर्जी: जिन्होंने इतनी खूबसूरत फ़िल्में बनाई, जो अभी भी फ्रेश लगती हैं और हमेशा लगेंगी

एल.एल.बी., जर्नलिज़्म, फेमिनिज़्म, सकल संसार की पढ़ाई करा देंगी इनकी फिल्में.

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बासु चैटर्जी की फिल्में - "एक रुका हुआ फैसला" और "त्रियाचरित्र".
एक संवाद पढ़िए.
“बिजली गायब! ये हालत है इस देश की. इस साली गवर्नमेंट की. खाने में कटौती! पीने में कटौती! हर चीज़ में कटौती! लानत है ऐसी कटौती पे.”
“बहुत मशहूर इकॉनॉमिस्ट गुन्नार मर्डल ने एक जगह लिखा है, सरकारों का कटौती के लिए कहना बिल्कुल ऐसा ही है जैसे आपका जूता छोटा है, अपने पांव काट लो.”
ये संवाद है सदी की कुछ चुनिंदा बेहतरीन फिल्मों में शामिल और 1986 में रिलीज हुई ‘एक रुका हुआ फैसला’ का. फिल्म के शुरूआती 5 मिनटों में ही ये संवाद आपके सामने आता है और तबसे आप फिल्म से ऐसे चिपक जाते हैं, जैसे किसी ने आप पर सम्मोहन कर दिया हो. आगे परत-दर-परत खुलती जाती कहानी आपको आख़िर तक बांधे रखती है. सभी कलाकारों का सहज अभिनय, संवादों का चुटीलापन, कथानक की टेंशन आपको एक अलग ही दुनिया में ले जाती है. बला के काबिल अदाकारों से सजी ये फिल्म भारतीय फिल्मों के इतिहास में बेहद सम्मान का स्थान रखती है. इसके निर्देशक थे बासु चैटर्जी.
बासुदा.
बासुदा.

बासु दा और 'एक रुका हुआ फैसला '

1930 में 10  जनवरी के दिन पैदा हुए बासु चैटर्जी हिंदी सिनेमा जगत के उन महान फिल्मकारों में से एक हैं, जिनके नाम के आगे ‘शो-मैन’ जैसा कोई तमगा तो नहीं दिखाई देता, लेकिन जिनका काम इतना शानदार है कि उन्हें आने वाले बरसों-बरस तक याद किया जा सकेगा. बॉलीवुड हमेशा स्टारडम का पिछलग्गू रहा है. बासु चैटर्जी ने अदाकारी को तरजीह दी. लो-प्रोफाइल किरदारों के साथ उन्होंने इतनी खूबसूरत फ़िल्में बनाई, जो अभी भी फ्रेश लगती हैं और हमेशा-हमेशा लगेंगी. मिसरी की डली की तरह मीठी, घुल जाने वाली. 'रजनीगंधा', 'चितचोर', 'छोटी सी बात', 'खट्टा-मीठा', 'बातों बातों में'.. क्या-क्या गिनाएं!
‘एक रुका हुआ फैसला’ तो उनके करियर का एवरेस्ट मानी जानी चाहिए. 1957 में आई महान फिल्ममेकर सिडनी लुमे की आइकॉनिक कोर्टरूम-डामा ‘ट्वेल्व एंग्री मेन’ की ये रीमेक थी. और कहना न होगा कि ओरिजिनल के कद की रीमेक थी. अक्सर हम भारतीय जब बाहर की फिल्मों को हिंदी में बनाते हैं, तो उनके साथ न्याय नहीं कर पाते. साफ शब्दों में कहा जाए तो उसकी ऐसी-तैसी फेर देते हैं. ‘एक रुका हुआ फैसला’ इस मुहाज़ पर क्लियर-कट विनर साबित होती है. हिन्दुस्तानी समाज की अलग-अलग जटिलताओं को ओवर हुए बगैर खूबसूरती से इसमें फिल्माया गया है.
इसका ट्रीटमेंट इतना ख़ालिस भारतीय है कि किसी सिंगल फ्रेम से नहीं लगता कि इसका ओरिजिनल आईडिया कोई विदेशी कहानी है. उपरोक्त संवाद हो, किसी किरदार का क्षेत्रवाद हो या बारह अलग-अलग ज्यूरी मेम्बर्स का सामाजिक बैकग्राउंड. सब कुछ टॉप-क्लास इंडियन है.
कहते हैं और सच ही कहते हैं कि सिनेमा डायरेक्टर का माध्यम है. ये फैक्ट ‘एक रुका हुआ फैसला’ देखने के बाद झमाके से समझ में आता है. कोई कलाकार अपने आप में अद्वितीय हो सकता है, अपने दम पर दर्शक को फिल्म से जोड़े रखने की काबिलियत रखता हो सकता है. लेकिन किसी फिल्म में अगर पूरी टीम ही अपने अभिनय की सर्वश्रेष्ठता छूती दिखाई दे, तो ये यकीनन डायरेक्टर का करिश्मा है. बासु चैटर्जी ने ‘एक रुका हुआ फैसला’ में यही कर दिखाया है. हर एक एक्टर अपनी जगह परफेक्ट है. हर एक संवाद बैंग-ऑन है.
एक आदमी की जल्दबाजी में फैसला ना करने की ज़िद, बाकी के ग्यारह लोगों के लिए पहले असुविधा की वजह और फिर धीरे-धीरे तथ्य की तलाश बन जाती है. हर एक को तर्क की यात्रा करते हुए राय बदलते देखना अद्भुत अनुभव है. केके रैना की कन्विंसिंग पावर, पंकज कपूर की चिढ़ दिलाने वाली ज़िद, अन्नू कपूर का अपनी वास्तविक उम्र से काफी बड़े किरदार को पूरे मैनरिज्म के साथ निभाना, एम. के. रैना की इरीटेट करती जल्दबाजी. सब कुछ इतने स्वाभाविक ढंग से अनफोल्ड होता है कि किरदारों को अदाकारों से अलग कर के देखना लगभग नामुमकिन लगता है. यकीनन बासु चैटर्जी की अपनी निर्देशकीय पारी में लगाई ये सबसे दर्शनीय सेंचुरी है. सब कुछ परफेक्ट.

एक अलग ही अदा का फिल्मकार

साफ़-सुथरी लेकिन सार्थक फिल्में बनाने के मामले बासु दा का नाम एक और लैजेंड ऋषिकेश मुखर्जी जितने ही आदर के साथ लिया जाता है. सिक्स्टीज़ से लेकर नाइंटीज़ के दौर में हिंदी सिनेमा पर एक्शन हावी था. ख़ास तौर से इसके दूसरे हिस्से में. अमिताभ, विनोद खन्ना, धर्मेन्द्र जैसे सितारे यूथ आइकॉन थे. प्रकाश मेहरा, रमेश सिप्पी, मनमोहन देसाई, यश चोपड़ा जैसे दिग्गज फिल्मकार लोगों के दिलों पर और बॉक्स ऑफिस पर राज कर रहे थे.
ऐसे वक़्त में बासु चैटर्जी ने ‘नॉन-ग्लैमरस एक्टर्स’ को लेकर आम-आदमी की कहानियां सुनाती फ़िल्में बनाई. जिन्हें जनता ने हाथों-हाथ लिया. क्या दर्शक, क्या समीक्षक सभी ने उनके काम को सराहा. ताज़ा हवा के झोंके की तरह आई उनकी फ़िल्में, हिंदी सिनेमा जगत में हमेशा-हमेशा के लिए उंचे स्थान पर विराजमान हो गईं. और एक-दो नहीं कई सारी. तीस-तीस, चालीस-चालीस साल बीतने के बाद भी ये फ़िल्में आज भी फ्रेश लगती हैं. ये एक बहुत बड़ी उपलब्धि है.
इतना सशक्त हस्ताक्षर विरले ही आदमियों का होता है. आज जब 'रोमांटिक कॉमेडी' की टर्म लापरवाही से इस्तेमाल करते फिल्मकार नज़र आते हैं, तो दिल करता है उनको बासु चैटर्जी की फ़िल्में देखने की सलाह चिपका दूं. रोमांटिक कॉमेडी क्या होती है, क्या होनी चाहिए इसका इंस्टिट्यूट हैं वो फ़िल्में.

# एक नज़र बासुदा की असाधारण फिल्मों पर

1. रजनीगंधा, 1974

हिंदी की अग्रणी लेखिका मनु भंडारी के उपन्यास ‘यह सच है’ पर आधारित यह फिल्म दो प्रेमियों के बीच चुनाव को लेकर दुविधा में जीती एक लड़की की कहानी थी. उस ज़माने में एक प्रेम-कहानी को बासु दा ने असाधारण ट्रीटमेंट दिया. हौले-हौले गुदगुदाती ये फिल्म कई-कई बार देखी जा सकती है. इसका गीत ‘कई बार यूं भी देखा है’ कौन संगीतप्रेमी भुला सकता है!
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2. चितचोर, 1976

ये वो फिल्म थी जिसने बासु दा को प्रतिभाशाली निर्देशक के साथ सफल निर्देशक का भी ख़िताब दिलाया. इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर धूम मचा दी थी. इस फिल्म में भी बासु दा के फेवरेट एक्टर अमोल पालेकर थे. 'मिस्टेकन आइडेंटिटी' की थीम पर बनी ये स्वीट रोमांटिक फिल्म बम्पर चली. कई सालों बाद राजश्री प्रोडक्शन्स ने इसका ‘मैं प्रेम की दीवानी हूं’ नाम से रीमेक बनाया, जो बुरा होने की इन्तेहा थी.
संगीत के मामले में बासु दा की 'चितचोर' संगीत-प्रेमियों के लिए लॉटरी साबित हुई. इसके सभी गाने शानदार, जानदार और जो भी विशेषण दिए जा सकते हैं, वो थे. ‘गोरी तेरा गांव बड़ा प्यारा’, ‘जब दीप जले आना’, ‘आज से पहले, आज से ज़्यादा’ - कोई भी गीत उठा लीजिये. माधुर्य बहता हुआ मिलेगा. आज भी गायक येसुदास का नाम आता है, तो सबसे पहले चितचोर ही ज़हन में आती है.
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3. छोटी सी बात, 1976

एक सीधा-सादा शर्मीला आदमी. पड़ गया है प्यार में. लेकिन हिम्मत तो है नहीं बताने की. ऐसे में मदद के लिए एक रिटायर्ड फौजी की शरण में जाता है. आगे की फिल्म हंसी के ठहाकों और दिलफ़रेब रूमानियत के साथ आपके दिल में उतरती चली जाती है. और फिर हमेशा आपके साथ रहती है. इसका गाना ‘न जाने क्यों, होता है ये ज़िन्दगी के साथ’ लता की आवाज़ में आपको एक अलग ही दुनिया में ले के जाता है.choti

4. खट्टा-मीठा, 1977

दो बूढ़े लोग शादी करना चाहते हैं. और दोनों की औलादों को इसके बारे में पता है. अब कल्पना कीजिये उस धमाल की, जो इस सिचुएशन से उपजेगा. इतनी सिंपल कहानी में ह्यूमर, इमोशंस, फॅमिली वैल्यूज़, प्रेम, बलिदान क्या नहीं था!
इसका शानदार गीत ‘थोड़ा है थोड़े की ज़रूरत है’ तो जैसे इंडियन मिडल क्लास का एंथम बन गया था. आज भी ये गीत भारतीय मध्यम वर्ग को भावुक कर देता है. करता रहेगा भी.

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5. चमेली की शादी, 1986

अनिल कपूर की शायद सबसे स्वीट फिल्म. 'चमेली की शादी' भारत की जाति-व्यवस्था पर बेहद असरदार व्यंग्य है. एक शौकिया पहलवान को एक कोयला गोदाम के मालिक की बेटी से प्यार हो गया है. लेकिन शादी में बड़ी अड़चन है जाति. दोनों अलग-अलग कास्ट से हैं. इस दिक्कत से जूझते हुए कैसे वो मंज़िल पर पहुंचते हैं, इसका बेहद सुंदर चित्रण है ये फिल्म. कॉमेडी फिल्मों में फूहड़ता से कैसे बचा जाए ये आज के कथित लीडिंग फिल्मकार बासु दा से सीख सकते हैं.chameli

# अंत में बासु दा की वो फिल्म, जो देखने से चूकना पाप है

बासु दा की कितनी फ़िल्में चुनी जाएं, ये एक मुश्किल फैसला है. उनकी तो लगभग हर फिल्म पर इतना ही लंबा आर्टिकल लिखा जा सकता है. चुनाव बेहद मुश्किल था. इतनी सारी फ़िल्में तो बता दी है लेकिन मैं चाहता हूं आप उनकी एक फिल्म वक़्त निकालकर ज़रूर-ज़रूर देखें. ‘त्रियाचरित्र'. ‘एक रुका हुआ फैसला’ एक कॉम्प्लेक्स थ्रिलर थी. ऊपर लिस्टेड फ़िल्में हल्की-फुल्की, गुदगुदाती रोमांटिक फ़िल्में थी. लेकिन ‘त्रियाचरित्र' उनकी ऐसी फिल्म है, जो अपने थर्रा देने वाले यथार्थ से आपको कंपा देगी. आप में बेचैनी भर देगी.
पति की गैर-मौजूदगी में लड़की का उसके ससुर द्वारा रेप किया जाता है. और जब इंसाफ की घड़ी आती है, तो समूचा समाज पीड़िता को ही गुनाहगार साबित करने पर उतारू हो जाता है. ‘त्रियाचरित्र’ का तमगा देता है. तब से लेकर आज तक भी पाखंडी भारतीय समाज में चरित्र के पैमाने कुछ ख़ास बदले नहीं हैं. और ना ही बदली है बलात्कार की शिकार लड़की की तरफ देखने की निगाह.
संस्कृति के दोगले अभिमान से दिन-रात चिपटे रहते हमारे महान भारतीय समाज के इस बदबू मारते सच को बरसों पहले नंगा कर गए थे बासु दा. मिस करने लायक नहीं है ये फिल्म.
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आपका शुक्रिया बासु दा जो आपने हमें इतना कुछ सौंपा है. 

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