नमक सत्याग्रह की कहानी
साल 1930. अंग्रेजों का जमाना था. अंग्रेज आग पानी सब एक किए हुए थे. भारत में नमक बनाने और उसको बेचने पर मनमाना टैक्स लगा रखा था. गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्लान बनाया. मार्च महीने की 12 तारीख को गांधी ने 80 लोगों को अपने साथ लिया. अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से दांडी तक पैदल मार्च शुरू किया. गुजरात के समुद्र तट पर ये गांव बसा हुआ है. 24 दिन, 241 मील की दूरी. इस दूरी और इन दिनों में उनके साथ हजारों लोग जुड़े. 6 अप्रैल 1930 को समुद्र के किनारे गांधी ने एक मुट्ठी नमक उठाया. इस काम ने अंग्रेजों को इतनी तगड़ी चोट दी कि हजार बातें उतनी चोट न दे पातीं. ये सिर्फ नमक आंदोलन नहीं था बल्कि आगे देश आजाद कराने के लिए एक संदेश भी था. ताकि लोगों को उस बड़े लक्ष्य के लिए एकजुट किया जा सके.

दांडी मार्च
स्मारक का आइडिया
इस स्मारक का आइडिया गांधी जी के प्रपौत्र तुषार गांधी का था. ये 2005 की बात है. उनका मन था कि जैसे अमेरिका के वाशिंगटन में वियतनाम वेटरन मेमोरियल है, वैसे ही अपने यहां उन 80 दांडी यात्रियों का कोई स्मारक हो. उन्होंने अपना आइडिया तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक पहुंचाया. उनको पसंद आया. तो उन्होंने गोपालकृष्ण गांधी को उच्चस्तरीय दांडी स्मारक समिति का अध्यक्ष बनाया. ये पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल और महात्मा गांधी के पोते हैं. इनके साथ सुदर्शन आयंगर को भी इस समिति का उपाध्यक्ष बनाया गया. ये गुजरात विद्यापीठ के पूर्व कुलपति हैं. 1920 में अहमदाबाद में गांधी के हाथों इस विद्यापीठ की स्थापना हुई थी. तो अब मुख्य आदमी हो गए तीन. 2010 में गोपालकृष्ण गांधी ने इस्तीफा दे दिया तो आयंगर अध्यक्ष बन गए.

बांई तरफ तुषार गांधी. दांई तरफ गोपालकृष्ण
स्मारक की राह में मुश्किलें
तो 2005 का आइडिया 2019 में साकार हो रहा है. इसका मतलब कि इस स्मारक की यात्रा सीधी और आसान नहीं रही है. पिछली सरकार की तरफ से फंड दिया नहीं जा रहा था और मामला लेट हो रहा था. लेकिन आयंगर की लीडरशिप में समिति इसे बनवाने पर अड़ी हुई थी. 2010 में आईआईटी बॉम्बे से कीर्ति त्रिवेदी और सेतु दास को लाया गया. सलाहकार के रूप में. 2013 तक रूपरेखा तो पूरी तैयार हो गई लेकिन सपना साकार होता अब भी नहीं दिख रहा था. सरकार बदली तो नई सरकार ने इस योजना में रुचि दिखाई, फिर चीजें स्पीड पकड़ने लगीं. केंद्रीय लोकनिर्माण और इंजीनियरिंग विभाग यानी सीपीडब्लूडी ने 20 महीने में स्मारक खड़ा कर दिया.

निर्माण कार्य
स्मारक की खासियतें
इस स्मारक में 80 लोगों की मूर्तियां लगी हैं. जो दांडी मार्च के मुख्य लोग थे. मूर्तियां बनाने में 42 मूर्तिकार लगे. जिनमें से 9 मूर्तिकार अलग देशों से आए थे. ये मूर्तियां सिलिकॉन ब्रांज की बनी हैं. गांधी की मूर्ति पांच मीटर ऊंची है. जिसके हाथ में एक छड़ी है. 91 साल के मूर्तिकार सदाशिव साठे की ये आखिरी कृति होगी. 1954 में इन्होंने ही गांधी की पहली मूर्ति भी बनाई थी. जो दिल्ली के टाउन हॉल पार्क में लगी है.

मूर्तियां
41 सोलर ट्री लगे हैं. हर सोलर ट्री में 12 पैनल लगे हैं. ये 182 किलोवाट बिजली पैदा करते हैं और ये बिजली गुजरात सरकार को बेची जाती है. जिससे स्मारक को हर महीने डेढ़ लाख रुपए की आमदनी होती है. मेमोरियल के अंदर हीटरों से लैस नमक बनाने के 14 बर्तन लगे हैं. इनमें समुद्र का पानी डालकर एक मिनट में नमक बनाया जा सकता है. ये स्मारक 15 एकड़ में फैला है और इसके बीच में 14 हजार वर्गमीटर में एक कृत्रिम झील भी है. रिसर्च के लिए आने वालों के लिए यहां एक गेस्ट हाउस और एक लाइब्रेरी है. दीवारों पर उन लोगों के नाम लिखे हैं जो दांडी यात्रा में शुरू से आखिरी तक गांधी के साथ रहे. इन नामों में एक 16 साल के विपुल ठक्कर का नाम भी है.

टाउनहाल में गांधी प्रतिमा, सदाशिव साठे
इनके अलावा ग्राफिटी बनी हुई हैं. सत्याग्रह से जुड़ी हुई कहानियां इन भित्ति चित्रों के माध्यम से उकेरी गई हैं. इसमें एक अरुण टुकड़ी का जिक्र है जो वॉलंटियर ग्रुप था और गांधी से पहले उन गांवों में पहुंच जाता था जहां गांधी आने वाले होते थे. उनको इस मार्च से संबंधित पूरी जानकारी ये अरुण टुकड़ी देती थी. एक भित्ति में सरदार पटेल की गिरफ्तारी दिखाई गई है. अंग्रेजों ने गांधी को धमकाने के लिए ये कारनामा किया था.

गांधी और पटेल
मेमोरियल के सामने सैफी विला है. 2016 में इसको फोटोग्राफी संग्रहालय में बदला गया. ये इसलिए ऐतिहासिक है क्योंकि गांधी दांडी यात्रा के बाद 10 दिन इसमें रुके थे. ये बंगला दाउदी बोहरा मुस्लिम समुदाय के प्रमुख रहे सैयदना ताहिर सैफुद्दीन वासी का था. उस वक्त सैफुद्दीन ने गांधी को अपने यहां टिकाकर बहुत रिस्क वाला काम किया था. 30 जनवरी को जब पीएम मोदी ने मेमोरियल का उद्घाटन किया तो गुजरात पर्यटन से अपील की. कि वो रोज़ कम से कम 25 स्कूलों के स्टूडेंट्स को वहां लाने की व्यवस्था करें.