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भारत समंदर में कौन सा ख़ज़ाना खोजने वाला है?

हिंद महासागर में की तली में एक जगह है. नाम है, अफ़ानासी निकतिन सी माउंट. इसका साइज़ है, लगभग 3 हज़ार वर्ग किलोमीटर. ये पहाड़ इतना बड़ा है कि इसमें लगभग 2 दिल्ली शहर समा जाएं. इस पहाड़ में 150 ब्लॉक्स हैं.

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अफ़ानासी निकतिन सी माउंट में खनिजों की भरमार है (फोटो-गूगल मैप्स/विकीपीडिया)

ये कहानी है समंदर के नीचे बसे खज़ाने की. ये जगह भारत की दक्षिणी सीमा से लगभग डेढ़ हज़ार किलोमीटर दूर है. हिंद महासागर में की तली में. इसका नाम है, अफ़ानासी निकतिन सी माउंट. इसका साइज़ है, लगभग 3 हज़ार वर्ग किलोमीटर. ये पहाड़ इतना बड़ा है कि इसमें दिल्ली जैसे लगभग 2 शहर समा जाएं. इस पहाड़ में 150 ब्लॉक्स हैं.  
 

सीमाउंट क्या होता है?

ऐसे पहाड़ जो समंदर के अंदर होते हैं. उनको सी माउंट कहा जाता है.

कैसे बनते हैं सी माउंट?

जब समुद्र के नीचे ज्वालामुखी फटते हैं, तब उसका लावा जमकर पहाड़ का रूप ले लेता है. इन सी माउंट्स की ऊंचाई 1 किलोमीटर तक होती है. लेकिन ये हमेशा समुद्र की ऊपरी सतह के नीचे ही होते हैं. जब ये समुद्र तल के ऊपर चलते जाते हैं, तो इन्हें आइलैंड कहते हैं.

अफ़ानासी निकतिन में क्या ख़ास?

तांबा,  निकल, मैंगनीज और कोबाल्ट जैसे क़ीमती खनिज पदार्थ. सबसे ज़्यादा यहां कोबाल्ट होने की उम्मीद है.

कोबाल्ट का इस्तेमाल

इससे बैट्रियां बनती हैं. इसका इस्तेमाल इलेक्ट्रिक वाहनों में भी किया जाता है. कई जानकार इसको भविष्य का तेल कहते हैं. उनका दावा है कि आने वाले समय में ये बहुत ही बेशकीमती धातु हो जाएगी. क्योंकि एक समय बाद तेल खत्म हो जाएगा और हर क्षेत्र में इसका इस्तेमाल बढ़ेगा. कोबाल्ट का ये पहाड़ समुद्र के नीचे भारत के पास है. भारत वहां जाकर रिसर्च करना चाहता है. ताकि भविष्य में वहां से कोबाल्ट निकालने की संभावनाओं को तलाशा जा सके.

अफ़ानासी निकतिन की लोकेशन (फोटो-गूगल मैप्स)
दिक़्क़त क्या है?

अंतरराष्ट्रीय क़ानून के मुताबिक़, ज़मीनी सीमा से लगभग 22 किलोमीटर दूर तक का समंदर उस देश की संप्रभुता का हिस्सा होता है. जबकि 370 किलोमीटर दूर तक के इलाक़े में आर्थिक गतिविधि की जा सकती है. मगर अफ़ानासी निकतिन भारत से लगभग 1350 किलोमीटर दूर है. ये किसी और देश के स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन में भी नहीं आता. यानी, अफासानी निकतिन अंतरराष्ट्रीय जलक्षेत्र में है. उसपर किसी एक देश का हक़ नहीं बचता. अगर कोई देश ऐसे इलाक़ों में रिसर्च करना चाहता है तो उसको एक अंतरराष्ट्रीय संस्था में अर्ज़ी लगानी पड़ती है. इस संस्था का नाम है, इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी (ISA). इसका मुख्यालय जमैका में है. स्थापना 1994 में हुई थी.
 

ISA का काम

चूंकि अंतरराष्ट्रीय जलक्षेत्र में किसी एक देश का अधिकार नहीं होता है, इसलिए वहां क़ब्ज़े को लेकर विवाद हो सकता है. ISA इंटरनैशनल वॉटर्स में खनिज से जुड़े रिसर्च और प्रोडक्शन पर नज़र रखती है. देशों को उससे इजाज़त लेनी पड़ती है.भारत ने मार्च 2024 में ISA में अर्ज़ी लगाई थी. 04 करोड़ रुपये की फ़ीस भी भरी थी. इसके बावजूद एप्लिकेशन अटक गया. अलजज़ीरा की रिपोर्ट के मुताबिक़, ISA को पता चला कि एक और देश अफ़ानासी निकतिन पर पहले ही अपना दावा पेश कर चुका है. जानकारों के मुताबिक़, ये देश श्रीलंका है. कितने समुद्री इलाके पर किस देश का हक़ होगा, ये उसके कॉन्टिनेंटल शेल्फ़ पर निर्भर करता है. 
 

कॉन्टिनेंटल शेल्फ़

इसमें संबंधित देश के तट से 370 किलोमीटर तक का समंदर आता है. इतने इलाक़े में वो कोई भी आर्थिक गतिविधि कर सकता है. कोई देश 370 किलोमीटर से आगे भी अपना कॉन्टिनेंटल शेल्फ़ बढ़ा सकता है. इसके लिए जाना पड़ता है, यूनाइटेड नेशंस (UN) की एक और संस्था, कमिशन ऑन द लिमिट्स ऑफ़ द कॉन्टिनेंटल शेल्फ (CLCS). श्रीलंका 2009 में CLCS के पास ये मांग लेकर जा चुका है. अभी तक इस बात का फैसला नहीं हुआ है. अगर ये फैसला श्रीलंका के पक्ष में आता है तो अफ़ानासी निकतिन उसकी समुद्री सीमा के अंदर आ जाएगा. भारत ने 2010 में अपना पक्ष रखा था. तब उसने श्रीलंका के दावे को खारिज नहीं किया.

मगर 2022 में भारत ने अपना स्टैंड बदल दिया. भारत ने CLCS से कहा कि श्रीलंका के दावे से भारत के हितों को नुकसान हो सकता है. इसलिए, श्रीलंका के दावे को ख़ारिज कर देना चाहिए. जानकार कहते हैं इसके पीछे चीन है. भारत को आशंका है कि चीन, श्रीलंका के ज़रिए इस इलाके का इस्तेमाल भारत के ख़िलाफ़ कर सकता है.  हिन्द महासागर में चीन अपना प्रभाव बढ़ा रहा है. भारत चीन की प्रजेंस से चिंतित है. उसे श्रीलंका के क्लेम से दिक्कत नहीं है. भारत ने वहां जांच करने का आवेदन इसलिए नहीं किया है ताकि वो तुरंत वहां काम शुरू कर सके. बल्कि भारत चीन से पहले इस इलाके में अपनी उपस्थिति और हिस्सेदारी स्थापित करना चाहता है.

क्या-क्या दांव पर?

-नंबर एक: इंटरनैशनल रीन्यूएबल एनर्जी एजेंसी (IREA) के मुताबिक़, चीन के पास दुनिया का 70 फीसदी कोबाल्ट है. कोबाल्ट का इस्तेमाल सबसे ज़्यादा इलेक्ट्रिक गाड़ियों और बैटरियों में होता है. ये ग्रीन एनर्जी की तरफ़ जाने के लिए भी बेहद ज़रूरी है. अगर अफ़ानासी निकतिन भारत के नियंत्रण में आता है तो चीन को चुनौती देने का रास्ता खुलेगा.
-नंबर दो: भारत ने ख़ुद को ज़ीरो-कार्बन उत्सर्जन वाला देश बनाने के लिए 2070 तक का टारगेट रखा है. इसके लिए इलेक्ट्रिल कारों की देश में ज़रूरत होगी. उन्हें बनाने और चलाने के लिए कोबाल्ट की ज़रूरत होगी.
-नंबर तीन: 2021 में भारत सरकार ने गहरे समुद्री इलाके में रिसर्च और संसाधन निकालने के लिए डीप ओशन मिशन की शुरुआत की थी. 04 हज़ार करोड़ का बजट भी पास किया था. ऐसे में अगर ये पहाड़ हमको मिलता है तो समंदर में भारत के लिए नई संभावनाएं खुलेंगी.

ये थी बड़ी खबरें. अब नज़र डालते हैं सुर्खियों पर.
पहली सुर्खी वियतनाम से है. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन नॉर्थ कोरिया का दौरा खत्म कर वियतनाम पहुंच गए हैं. वहां उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी गुएन फ़ू त्रोन्ग, वियतनाम के राष्ट्रपति ‘तो लाम’ और प्रधानमंत्री फ़ाम मिन्ह चिन्ह से मुलाक़ात की.

पुतिन का वियतनाम दौरा अहम क्यों है?
फ़रवरी 2022 में रूस ने यूक्रेन पर हमला किया. तब से पुतिन ने रूस से बाहर निकलना कम कर दिया. मार्च 2023 में इंटरनैशनल क्रिमिनल कोर्ट (ICC) ने उनके ख़िलाफ़ अरेस्ट वॉरंट जारी किया. इसके बाद पुतिन विदेशी दौरों पर जाने से बचने लगे. अगस्त 2023 में ब्रिक्स समिट के लिए साउथ अफ़्रीका नहीं गए. सितंबर 2023 में भारत में G20 लीडर्स समिट हुई, उसमें भी नहीं आए. हालांकि, गिने-चुने देशों में वो इक्का-दुक्का बार ज़रूर गए. मसलन, अक्टूबर 2023 में अचानक चीन पहुंचे. नवंबर में कज़ाकिस्तान और बेलारूस गए. फिर दिसबंर में यूएई और सऊदी अरब का दौरा किया. वो सफर रूसी फ़ाइटर जेट्स की निगरानी में हुआ था.

 वियतनाम दौरे पर पुतिन (फोटो-एक्स)

मार्च 2024 में राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद पुतिन ने विदेश दौरों की संख्या बढ़ाई है. मई से अब तक वो पांच देश जा चुके हैं. चीन, बेलारूस, उज़्बेकिस्तान, नॉर्थ कोरिया और अब वियतनाम. ये सभी ऐसे देश हैं, जिन्होंने पश्चिम के दबाव के बावजूद रूस का साथ दिया है. पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों से निपटने में मदद की है. वियतनाम की बात करें तो रूस के साथ उसके संबंध सोवियत संघ के दौर से चले आ रहे हैं. 1950 के दशक में जब वियतनाम जंग शुरू हुई, तब सोवियत संघ ने नॉर्थ वियतनाम के कम्युनिस्टों की मदद की थी. अंत में कम्युनिस्ट जीते. फिर नॉर्थ और साउथ वियतनाम का एकीकरण हो गया. तब से वहां कम्युनिस्ट पार्टी सरकार चला रही है.

1978 में सोवियत संघ और वियतनाम की मज़बूत दोस्ती का एक और उदाहरण देखने को मिला. दिसंबर के महीने में वियतनाम की फ़ौज ने कम्बोडिया पर हमला किया. उन्होंने कुख़्यात ख़मेर रूज को सत्ता से हटाया. फिर कम्बोडिया पर क़ब्जा बनाकर रखा. इसका चीन और पश्चिमी देशों ने विरोध किया. मगर सोवियत संघ, वियतनाम के साथ खड़ा रहा. फिर 1991 में सोवियत संघ का विघटन हो गया. सोवियत संघ का उत्तराधिकार रूस के पास आया. मगर रूस के साथ संबंध बरकरार रहे. वियतनाम की सेना आज भी रूसी इक़्विपमेंट्स का इस्तेमाल करती है. दोनों देशों के बीच अच्छे व्यापारिक संबंध भी हैं. वियतनाम के कई नेताओं की पढ़ाई रूस में हुई है. उन नेताओं में वियतनाम की कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल-सेक्रेटरी गुएन फ़ू त्रोन्ग भी हैं. जानकारों का कहना है कि पुतिन इस संबंध को भुनाना चाहते हैं. वेस्ट ने उनको अलग-थलग करने की कोशिश की है. मगर पुतिन ये साबित करना चाहते हैं कि उनके पास विकल्पों की कमी नहीं है.

इस दौरे से अमरीका भी परेशान है. उसने पुतिन के दौरे का विरोध किया है. कहा कि इससे रूस को अलग-थलग करने की अंतरराष्ट्रीय कोशिश ख़तरे में पड़ी है. हालांकि, ये अमरीका के लिए आश्चर्य का विषय नहीं है. वियतनाम की विदेश-नीति का सिद्धांत है, कि किसी की साइड लिए बिना सबके साथ दोस्ती रखो. वे इसको बेम्बू डिप्लोमेसी का नाम देते हैं. इसलिए, वियतनाम ने रूस के साथ-साथ अमरीका के साथ भी अच्छे संबंध रखे हैं. जबकि अमरीका के ख़िलाफ़ वे दो दशक लंबा युद्ध लड़ चुके हैं.

दूसरी सुर्खी लेबनान से है.
चरमपंथी संगठन हिज़बुल्लाह के सरगना हसन नसरल्लाह ने एक बार फिर से इज़रायल को धमकी है. कहा है कि अगर इज़रायल ने जंग छेड़ी तो हिज़बुल्लाह नियमों की परवाह नहीं करेगा. नसरल्लाह का बयान ऐसे समय में आया है, जब इज़रायल के उत्तरी बॉर्डर पर तनाव बढ़ा है. हिज़बुल्लाह के हमले बढ़े हैं. और, इज़रायल पर जवाब देने का दबाव भी बढ़ रहा है.

 हिज़बुल्लाह के सरगना हसन नसरल्लाह (फोटो- एएफपी)

नसरल्लाह ने साइप्रस पर भी निशाना साधा है. साइप्रस भूमध्यसागर में बसा द्वीपीय देश है. लेबनान की सीमा से लगभग ढाई सौ किलोमीटर दूर. लेबनान से जंग की स्थिति में साइप्रस की भूमिका अहम हो जाएगी. नसरल्लाह ने कहा कि अगर उसने इज़रायल को अपने एयरपोर्ट्स और सैन्य अड्डों का इस्तेमाल करने दिया तो हम उसको भी नहीं छोड़ेंगे. ये पहली बार है, जब हिज़बुल्लाह ने साइप्रस पर हमले की चेतावनी दी है. साइप्रस में ब्रिटेन की फ़ौज का भी बेस है. अगर हिज़बुल्लाह हमला करता है तो जंग फैलने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता.

तीसरी और अंतिम खबर ब्रिटेन से है.
ब्रिटेन में 04 जुलाई को आम चुनाव होने वाला है. ब्रिटिश संसद के निचले सदन हाउस ऑफ़ कॉमंस की 650 सीटों के लिए वोटिंग होगी. इसमें बहुमत हासिल करने वाली पार्टी सरकार बनाएगी. और, उस पार्टी का नेता ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनेगा. अभी बहुमत कंज़र्वेटिव पार्टी के पास है. और, कंज़र्वेटिव पार्टी के ऋषि सुनक प्रधानमंत्री हैं. हालांकि, जिस तरह के रुझान आ रहे हैं, उनका पद पर बने रहना मुश्किल दिखता है.  कम से कम तीन ओपिनियन पोल्स ने लेबर पार्टी की एकतरफ़ा जीत का अनुमान लगाया है.  यू गव ने लेबर पार्टी को 425, सेवंता ने 516 और मोर इन कॉमन ने 406 सीटें मिलने का अनुमान जताया है. इन पोल्स में ये भी कहा जा रहा है कि सुनक अपनी सीट तक हार सकते हैं.

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