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अकबर और सलीम के बीच दुश्मनी का असली कारण 'अनारकली' नहीं थी!

जिसने मुग़लों की तारीख़ लिखी, सलीम ने उसका ही सिर कलम करवा दिया.

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अकबर के नवरत्न (तस्वीर: olympia, 19वीं सदी)
आज है 12 अगस्त और आज की तारीख़ का संबंध है एक हत्या से.
किसकी हत्या? अबुल फ़ज़ल इब्न मुबारक की. कौन थे ये?
अबुल फ़ज़ल अकबर के दरबार के नवरत्नों में से एक थे. आइन-ए-अकबरी और अकबर नामा इन्हीं ने लिखा था. अबुल फ़ज़ल को भारतीय इतिहास के महान लेखकों में से एक माना जाता है. 15 साल की उम्र में इन्होंने उस समय मौजूद फ़िलॉसफ़ी यानी दर्शनशास्त्र की सारी किताबें पढ़ डाली थीं. उनकी तेज बुद्धि को लेकर एक किस्सा फ़ेमस है, जिसका ज़िक्र खुद अबुल फ़ज़ल ने किया था.
जब वह 20 साल के थे तो उन्हें एक किताब मिली. किताब बहुत पुरानी थी और उसके आधे से ज़्यादा पन्ने दीमक ख़ा गए थे. किसी हिस्से की शुरुआत ग़ायब थी तो किसी का एंड ग़ायब था. सो अबुल फ़ज़ल ने ख़राब हुए पन्नों के साथ कुछ सादे काग़ज़ जोड़ दिए. इसके बाद अपनी समझ से हर लाइन को पूरा करने की कोशिश की. और इस तरह किताब पूरी कर डाली. आगे जाकर जब इस किताब की एक दूसरी कॉपी मिली, तो अबुल फ़ज़ल की कॉपी से उसका मिलान किया गया. सिवाय 2-3 शब्दों के दोनों किताबें हुबहू सेम थीं. अबुल फ़ज़ल और सलीम अपनी हाज़िर जवाबी और योग्यता के कारण अबुल फ़ज़ल अकबर के ख़ास बन गए थे. वह सूफ़ी विचारधारा में विश्वास रखते थे और कट्टर मौलवियों के साथ बहस में बादशाह की मदद किया करते थे. इसलिए उनके ख़िलाफ़ काफ़ी दुष्प्रचार भी चलाया गया. कहा गया कि वह काफिर है और इस्लाम को ना मानने वाला हैं.
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अकबर और अबुल फ़ज़ल (तस्वीर: wikimedia)


पॉप्युलर कल्चर में माना जाता है कि शहज़ादे सलीम और अकबर के बीच की दुश्मनी का कारण अनारकली थी. लेकिन अनारकली का किस्सा केवल सुनी-सुनाई बात है. पाकिस्तान के लाहौर में ज़रूर अनारकली के नाम की एक कब्र है. लेकिन उसका सलीम से कोई रिश्ता है, इसका ज़िक्र किसी इतिहासकार ने नहीं किया है.
असल में इस दुश्मनी की एक बड़ी वजह थे अबुल फ़ज़ल. अकबर के अपने बेटे सलीम से संबंध बहुत अच्छे नहीं थे. ऐसे में अबुल फ़ज़ल की बादशाह से निकटता देख वह उन्हें दुश्मनी की नज़र से देखा करता था. वह हमेशा इसी कोशिश में लगा रहता था कि किस तरह बादशाह और अबुल फ़ज़ल के रिश्तों में दरार पैदा कर सके. ऐसे में एक दिन शहज़ादा सलीम अबुल फ़ज़ल के घर पहुंचा. उसने देखा कि वहां कुछ लेखक क़ुरान तथा उसकी व्याख्याओं की नक़ल बना रहे थे. वह उन सबको अकबर के पास लेकर गया. इसके बाद उसने अकबर से कहा कि ये दरबार में क़ुरान में लिखी कई बातों की ख़िलाफ़त करता है और अकेले में क़ुरान की आयतें लिखवाता है. अकबर ने उन दिनों दीन-ए-इलाही नाम का पंथ चलाया हुआ था, जिसमें सभी धर्मों की शिक्षाओं को जोड़ा गया था. उसे अबुल फ़ज़ल की आयतें छपवाने वाली बात से अचरज तो हुआ. लेकिन वो अबुल फ़ज़ल की नीयत से वाक़िफ़ था. इसलिए उसने अबुल फ़ज़ल से कुछ ना कहा. इसके बाद भी सलीम ने कई कोशिशें कीं, जिसके बावजूद अबुल फ़ज़ल अकबर के ख़ास बना रहे. ओरछा के राजपूत  अब सवाल उठता है कि अबुल फ़ज़ल की हत्या किसने और क्यों की?
हत्या किसने की, इसका जवाब है, वीर सिंह बुंदेला ने. लेकिन वीर सिंह बुंदेला कौन था और उसने अबुल फ़ज़ल की हत्या क्यों की? ये समझने के लिए हमें ओरछा चलना होगा. आज के हिसाब से ओरछा मध्य प्रदेश में ग्वालियर से 123 किलोमीटर दूर पड़ता है. इसके बग़ल से ही बेतवा नदी बहती है.
ओरछा बुंदेलखंड में राजपूतों की राजधानी हुआ करती थी. 1592 में इसका शासक हुआ करता था मधुकर शाह. जिसकी मौत के बाद राम शाह ने उसकी गद्दी सम्भाल ली. ये सब अकबर की छत्रछाया में हुआ. अकबर को सम्पूर्ण भारत का सम्राट मान लेने के बाद राम शाह को किसी और का डर नहीं रह गया था. लेकिन उसका भाई वीर सिंह इससे सहमत नहीं था. वो खुद को ओरछा की गद्दी का असली वारिस समझता था. नतीजतन उसने विद्रोह कर दिया. वीर सिंह से जंग के लिए अकबर ने मुग़ल सेना को तीन बार राम शाह की मदद के लिए भेजा. जंग हार जाने की हालत में भी वीर सिंह हर बार बचकर निकल जाता था. उसे समझ आ गया था कि मुग़लों से अकेले लोहा लेना सम्भव नहीं था. उसे मदद की ज़रूरत थी. और हाथ कंगन को आरसी क्या. मदद हाज़िर हो गई. कहां से? खुद मुग़लों से.
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इलाहाबाद में जहांगीर द्वारा चलाए गए सिक्के (तस्वीर: Wikimedia)


ऊपर आपने पढ़ा कि अबुल फ़ज़ल की अकबर से बढ़ती निकटता देख सलीम खार खाया रहता था. सन 1600 में उसने आगरे की सल्तनत से विद्रोह कर दिया. और इलाहाबाद यानी आज के प्रयागराज में अपना दरबार लगाया. यहां तक कि अपनी अलग मुद्रा भी चला दी. अकबर ने उसे मनाने की बहुत कोशिश की लेकिन सलीम माना नहीं.
ऐसे में मौक़ा देखकर वीर सिंह ने सलीम से हाथ मिला लिया. लेकिन जैसा कि तारीख़ के औरंगज़ेब वाले एपिसोड में हमने बताया था. मुग़ल सल्तनत को लेकर उन दिनों एक कहावत चलती थी, तख़्त हासिल करो या ताबूत में जाओ. सलीम को किसी भी हाल में तख़्त चाहिए था. और इस खेल में वीर सिंह, सलीम के लिए एक ताकतवर मोहरा साबित हो सकता था.
इन्हीं दिनों अकबर दक्खिन के मसलों में उलझा हुआ था. अहमदनगर की निज़ामशाही और मुग़लों की जंग चल रही थी. 1602 में अकबर ने अपने सबसे भरोसेमंद सिपह सलाहकार अबुल फ़ज़ल को दक्खिन के मसलों का निपटारा करने भेजा. साथ ही साथ उसे ये हिदायत भी दी कि वापसी में वह सलीम से मिले और उसे मना लाए. जहांपनाह की ख्वाहिश सर आंखों पर. सो अबुल फ़ज़ल बादशाह की इच्छा पूरी करने दक्खिन चला गया. अकबर से वफ़ादारी  दक्खिन की एक घटना में उसकी वफ़ादारी की झलक मिलती है.
हुआ यूं कि दक्खिन की तरफ जाते हुए जब वह बुरहानपुर पहुंचा. वहां उसकी मुलाक़ात ख़ानदेश के अध्यक्ष बहादुर ख़ां से हुई. खानदेश यानी नर्मदा और ताप्ती के बीच वाला रीज़न. अबुल फ़ज़ल की बहन की शादी बहादुर ख़ां के भाई से हुई थी. इसलिए बहादुर ख़ां ने अबुल फ़ज़ल को अपने घर आने का न्योता दिया ताकि ख़ातिरदारी कर सके. अबुल फ़ज़ल ने उससे कहा कि अगर वो बादशाह के काम में मदद करे तो वो ज़रूर उसके घर चलेगा. तब बहादुर ख़ां ने उसे कुछ तोहफ़े और रुपये भिजवाए. अबुल फ़ज़ल ने उन्हें भी लेने से इनकार कर दिया. और जवाब भिजवाया कि जब तक चार शर्तें पूरी न हों, तब तक वो कोई उपहार स्वीकार नहीं कर सकता.
पहली शर्त ये थी कि उपहार देने वाले के साथ प्रेम का संबंध होना चाहिए. दूसरी शर्त ये कि उपहार देने वाला का उसके ऊपर कोई ऋण नहीं होगा. तीसरी कि वो उपहार उसने खुद ना मांगा हो. चौथी ये कि उपहार में मिलने वाली वस्तु की उसे ज़रूरत हो.
उसने जवाब में बहादुर ख़ां से कहा कि पहली तीन शर्तें तो पूरी हो सकती हैं. लेकिन चौथी शर्त पूरी नहीं हो सकती क्योंकि बादशाह अकबर की कृपा से उसे ऐसी किसी चीज़ की कमी नहीं, जिसकी उसे ज़रूरत हो. इस किस्से से पता चलता है कि सलीम की सारी कोशिशों के बावजूद अबुल फ़ज़ल अकबर का कितना वफ़ादार था.
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फ़ाइल फोटो : द ग्रेट मुग़ल, अकबर


अबुल फ़ज़ल की दरियादिली के क़िस्से भी मशहूर हैं.
कहते हैं कि दक्खिन की चढ़ाई के समय, रोज़ अबुल फ़ज़ल के लिए मसनद बिछता था. जिसमें रोज़ हज़ारों थालियों में भोजन आता और अफ़सरों में बंटता. उसके ख़ानसामे को ये निर्देश था कि शिविर के बाहर हमेशा एक नौगज़ी लगी रहे. जिसमें दिन–रात सबको पकी-पकाई खिचड़ी बंटती रहती थी. दक्खिन से वापसी  दक्खिन से काम निपटा कर अबुल फ़ज़ल इलाहाबाद की तरफ़ बढ़ चला. वो सोच रहा था कि किस प्रकार सलीम को मनाया जाए. वहीं इलाहाबाद में सलीम अबुल फ़ज़ल को रास्ते से हटाने की तरकीब भिड़ाने में बिज़ी था. इस काम के लिए उसे वीर सिंह सबसे सही आदमी लगा.
उसने वीर सिंह से कहा, एक हाथ लो एक हाथ दो. यानी सलीम उसकी मदद करेगा लेकिन पहले उसे सलीम का एक काम करना होगा. इसके बाद उसने वीर सिंह से कहा कि अगर वो अबुल फ़ज़ल का सिर काट कर ले आए तो वो उसे ओरछा का राजा बना देगा. वीर सिंह एक बहादुर योद्धा था. उसने सलीम को समझाने की कोशिश की. उसने सलीम से कहा कि अबुल फ़ज़ल से उसका रिश्ता एक मालिक और मुलाजिम का है. इसलिए वो अबुल फ़ज़ल को माफ़ कर दे. लेकिन सलीम माना नहीं. वीर सिंह की भी मजबूरी थी. सलीम की बात मानने के अलावा उसके पास कोई और रास्ता नहीं था.
उधर अबुल फ़ज़ल को रास्ते में ही वीर सिंह के मंसूबों का पता चल गया था. लेकिन वो वीर सिंह को छोटा-मोटा लुटेरा समझता था. अकबर नामा में उसने वीर सिंह को एक डाकू की संज्ञा दी थी. वीर सिंह के इरादे जान अबुल फ़ज़ल के साथियों ने उसे चेताया. उन्होंने राय दी कि उसे मालवा में चांदा घाटी के रास्ते जाना चाहिए. इस पर अबुल फ़ज़ल ने कहा,
"डाकुओं की क्या मजाल कि मेरा रास्ता रोकें.”
दक्खिन से लौटते हुए अबुल फ़ज़ल नरवर में रुका. वहां वीर सिंह ने एक छोटी टुकड़ी के साथ उस पर हमला कर दिया. और आज ही के दिन यानी 12 अगस्त 1602 को इस हमले में अबुल फ़ज़ल की मौत हो गई.
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31 अगस्त, 1569 में शहज़ादे सलीम का जन्म फ़तेहपुर सीकरी में हुआ (तस्वीर: wikimedia)


अबुल फ़ज़ल अकबर का चहेता सलाहकार था. मुसीबत के वक्त उसने कई बार अकबर की मदद की थी. इसलिए सवाल खड़ा हुआ कि अबुल फ़ज़ल की मौत की खबर अकबर को कौन देगा. उन दिनों एक नियम हुआ करता था. अगर किसी अज़ीज़ की मौत हो जाए तो बादशाह को सीधे नहीं बताया जाता था. दरबार का वकील हाथ में नीला रूमाल  बांधकर बादशाह के पास जाता और झुककर सलाम करता था. इससे बादशाह को पता चल जाता था कि किसी अज़ीज़ की मौत हो गई है. अबुल फ़ज़ल की मौत पर भी यही नियम बरता गया. अबुल फ़ज़ल की मौत की खबर सुनकर अकबर को बहुत दुःख हुआ. वो बोला, 'यदि शहज़ादा बादशाहत चाहता था, तो उसे मुझे मारना चाहिए था, ना कि अबुल फ़ज़ल को. यकायक उसके मुंह से एक शेर निकला, जिसका मज़मून कुछ इस प्रकार है,
'जब शेख़ हमारी ओर बड़े आग्रह से आया, तब हमारे पैर चूमने की इच्छा को बिना सिर-पैर के आया’
आशय था कि अबुल फ़ज़ल का सिर कटा हुआ था और इस हालत में उसे अकबर के सामने पेश होना पड़ा. इसके तीन साल बाद अक्टूबर 1605 में अकबर की भी मृत्यु हो गई. अकबर के नवरत्नों में से 6 की मृत्यु इससे पहले ही हो चुकी थी. जिसमें बीरबल, राजा टोडरमल, तानसेन और अबुल फ़ज़ल का भाई फ़ैज़ी शामिल थे. केवल 2 रत्न ऐसे थे जो अकबर की मृत्यु के बाद तक जीवित रहे. ये थे रहीम दास और राजा मान सिंह.