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कभी पत्थर तोड़ता था, आज ओलंपिक में तिरंगा किए है बुलंद

9 की उम्र में पापा संग पत्थर तोड़ने वाला दत्तू, आज नौवां एथलीट है जिसने रोइंग में भारत को रिप्रजेंट किया है.

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दत्तू अपने कोच के साथ
रियो में 2016 ओलंपिक शुरू हो चुका है. इंडिया के एथलीट्स वहां जा पहुंचे हैं. और गेम्स में पार्ट ले रहे हैं. ओलंपिक का पहला दिन हमारे लिए खास अच्छा नहीं रहा. इंडियन गर्ल्स शूटर्स पहले ही दिन टूर्नामेंट से बाहर हो गई. हॉकी में टीम ने बढ़िया किया. इस ओलंपिक में भारत की तरफ से एक एथलीट है जिसका ये पहला ओलंपिक है. दत्तू बब्बन भोकनाल. मेन्स रोइंग सिंगल्स के क्वालिफाइंग मुकाबले में बंदा थर्ड पोजीशन पर है. इसके साथ ही वो क्वार्टर फाइनल में भी पहुंच गया है. आपको जानकर हैरानी होगी कि इंडिया की उम्मीदों को जिंदा रखने वाला ये एथलीट चार साल पहले तक पत्थर तोड़ा करता था.

कौन है दत्तू बब्बन भोकनाल?

महाराष्ट्र के तालेगांव के एक छोटे से घर में पैदा हुआ था दत्तू. 5 अप्रैल का दिन था और 1991 साल. पत्थर तोड़ना इसके घर का खानदानी पेशा था. इसके पापा गांव-गांव जाकर कुंआ खोदने का काम करते थे. जिससे पूरा घर चलता था. 9 साल की उम्र से दत्तू अपने पापा के साथ उनके काम में हेल्प करता था. दत्तू को अच्छे से याद है कि उसने अपने पापा के साथ मिलकर अगले 10 सालों तक पत्थर तोड़ने का काम किया है. वो भी रोजाना के 8 घंटे. वो कहता है, 'कुंआ खोदना बहुत मेहनत का काम है. मैं अपने पापा के साथ घर को चलाने के लिए उनकी मदद करता था. दिन भर हम काम करते थे और रात को रेस्ट. काम के दौरान बड़े-बड़े पत्थरों को तोड़कर निकालना पड़ता था.' उस वक्त दत्तू को नहीं पता था कि ओलंपिक्स क्या होता है और रोइंग क्या. थोड़ा बहुत बस आर्मी के बारे में पता था. बचपन से पत्थरों को मारने-काटने वाले दत्तू को कहां पता था कि वो एक दिन ओलंपिक्स में भारत को रिप्रजेंट करेगा. जाने-अंजाने पत्थर तोड़ते-तोड़ते उसका स्टैमिना बढ़ा. साल 2011 में अचानक से दत्तू के पापा की मौत हो गई. घर की जिम्मेदारी अब इसके सर थी. दत्तू कहता है, 'पापा की डेथ के बाद मेरे पास कोई ऑप्शन नहीं था. तो मैं आर्मी में चला गया.' आर्मी ज्वाइन करने के बाद दत्तू की ट्रेनिंग शुरू हुई. एक साल ट्रेनिंग करने के बाद अचानक से एक दिन सबको लाइन में खड़े होने का ऑर्डर मिला. उस लाइन में खड़े लोगों को बोट चलाने की ट्रेनिंग मिलनी थी. दत्तू को तो तैरना भी नहीं आता था. उसके लिए रोइंग का मतलब था नाव में बैठकर घूमना. मरता क्या न करता. दत्तू के पास कोई चारा नहीं था सिवाए तैरना और रोइंग सीखने के. क्योंकि उसके सुबेदार कुदरत अली ने उससे कहा, 'तुम्हारी हाइट ठीक है. तुम्हें रोइंग करना चाहिए.' आज्ञाकारी बच्चों की तरह दत्तू ने अपने सुबेदार की बात मानी और 2012 के एंड में रोइंग सीखना शुरू किया. तीन महीने हचक के रोइंग की ट्रेनिंग की. और इंटर आर्मी रोइंग कॉम्पटिशन में पार्ट लिया. और पता इंटर बटालियन रोइंग कॉम्पटिशन में पूरे चार गोल्ड मेडल जीते. नेशनल में भी 2 गोल्ड अपने नाम किया. इतना करने के बाद उसे एंटरनेशनल रोइंग कॉम्पटिशन के लिए भेजा गया. एक मेडल कोरिया में जीता और एक चाइना में. इसके बाद तो दत्तू चमक गया. दत्तू यहीं नहीं रूका. एशियन गेम्स में पार्ट लिया. पर उसे वहां पीठ में चोट लग गई. चोट ज्यादा थी और ठीक होने में भी टाइम लग रहा था. इसलिए आर्मी वालों ने दत्तू को वापस आर्मी में भेजने का मन बना लिया. पर दत्तू के कोच को इसके टैलेंट की परख थी. उसने दत्तू की सिफारिश ऊपर के अफसरों से की. और उसे दूसरा मौका देने की बात कही. कोच की देखरेख में दत्तू ने अपनी फिटनेस ट्रेनिंग शुरू की. दत्तू कहता है, 'अगर मैंने अपने पापा के साथ पत्थर नहीं तोड़े होते तो शायद यहां तक नहीं पहुंच पाता'. दत्तू को हमारी तरफ से ढ़ेरों शुभकामनाएं. वो भारत के लिए मेडल जीते औऱ हमारा तिरंगा बुलंद करे.

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