सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में धर्म परिवर्तन पर बैन लगाने की मांग को लेकर याचिका दायर की गई. याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि संविधान के आर्टिकल 25 के तहत किसी को भी धर्म का प्रचार करने का अधिकार है, लेकिन धोखाधड़ी या बलपूर्वक धर्म परिवर्तन करने का अधिकार नहीं है. इस पर शीर्ष कोर्ट ने याचिकाकर्ता से पूछा कि यह तय करने का अधिकार किसे है कि धर्मपरिवर्तन ‘धोखाधड़ी’ है या नहीं.
धर्म परिवर्तन पर बैन लगाने की मांग हुई, तो सुप्रीम कोर्ट ने पूछा- 'कौन तय करेगा यह धोखाधड़ी है?'
एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि उनकी याचिका लालच और छल-कपट के जरिए धर्म परिवर्तन के खिलाफ है. भारत के चीफ जस्टिस बी.आर. गवई ने कहा कि कोर्ट कानूनों की संवैधानिकता की जांच करने के लिए बैठता है, न कि कानून बनाने के लिए. कोर्ट ने और क्या कहा?


द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, याचिकाकर्ता और एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि उनकी याचिका लालच और छल-कपट के जरिए धर्म परिवर्तन के खिलाफ है. भारत के चीफ जस्टिस बी.आर. गवई ने कहा कि कोर्ट कानूनों की संवैधानिकता की जांच करने के लिए बैठता है, न कि कानून बनाने के लिए. उन्होंने सीनियर एडवोकेट सी.यू. सिंह से सहमति व्यक्त की, जो एक NGO की तरफ से पेश हुए थे और जिन्होंने 10 राज्यों में तेजी से कठोर होते जा रहे ‘धर्म-परिवर्तन विरोधी कानूनों’ की वैधता पर सवाल उठाया था.
‘धर्मपरिवर्तन विरोधी’ कानून पर उठा सवाल
एडवोकेट सिंह ने कहा कि उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, छत्तीसगढ़, हरियाणा, झारखंड और कर्नाटक राज्यों ने एक के बाद एक 'धर्मपरिवर्तन विरोधी' एक्ट लागू किया है और हाल ही में राजस्थान ने भी ऐसा ही एक कानून बनाया है. आगे उन्होंने चिंता जताते हुए कहा,
इन कानूनों को धार्मिक स्वतंत्रता एक्ट कहा जाता है, लेकिन इनमें स्वतंत्रता के अलावा सब कुछ शामिल है. ये दरअसल धर्मांतरण विरोधी कानून हैं.
उन्होंने इन कानूनों पर रोक लगाने की मांग की, जो ज्यादा से ज्यादा कठोर होते जा रहे हैं. क्योंकि अब तक अदालतें इनके तहत आरोपी और गिरफ्तार लोगों को जमानत देती थीं और राहत देती थीं. लेकिन इस कानून के बाद अब ऐसा संभव नहीं है.
एडवोकेट सी.यू. सिंह ने कहा कि इन अधिनियमों में हाल ही में किए गए संशोधनों से तीसरे पक्ष को ‘अंतर-धार्मिक विवाह’ करने वाले जोड़ों के खिलाफ आपराधिक शिकायत दर्ज करने का अधिकार मिल गया है. जबकि अब तक सिर्फ पीड़ित पक्ष ही शिकायत दर्ज करा सकता था.
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इन कानूनों के तहत सजा में ‘न्यूनतम 20 साल की सजा या अधिकतम आजीवन कारावास’ शामिल है. जबकि जमानत की शर्तें भी कठोर हैं. सीनियर वकील ने तर्क दिया कि धर्म परिवर्तन करने वाले शख्स पर यह साबित करने का भार है कि उसे धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर या ‘प्रलोभित’ नहीं किया गया था. उन्होंने कहा,
जो कोई भी अंतर-धार्मिक विवाह करता है, उसके लिए जमानत पाना असंभव हो जाता है. ये संवैधानिक चुनौतियां हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों से 4 हफ्ते में जवाब मांगा है. मामले की अगली सुनवाई 6 हफ्ते बाद होगी. सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम रोक लगाने से फिलहाल इनकार कर दिया है और कहा है कि राज्यों से जवाब मिलने के बाद ही ऐसे कानूनों के कार्यान्वयन पर रोक लगाने के प्रश्न पर विचार किया जाएगा.
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