नितिन देसाई का नाम आपने सुना ही होगा. न सुना हो तो भी वो फिल्में जरुर देखी होंगी, जिनके सेट देसाई ने डिजाइन किए. ‘हम दिल दे चुके सनम’, ‘देवदास’ से लेकर ‘लगान’ और ‘जोधा-अकबर’ तक. इन्हीं नितिन देसाई ने मुंबई में बीेजपी के सिल्वर जुबली अधिवेशन का भी सेट डिजाइन किया था. साल था 2005. दिसंबर महीने का आखिरी हफ्ता. पार्टी 25 बरस की हो गई थी तो आयोजन भी भव्य और दिव्य था. आयोजक के रोल में खुद प्रमोद महाजन थे.
नितिन नबीन के भाजपा अध्यक्ष बनने पर राजनाथ-गडकरी के ये 'किस्से' क्यों याद आ गए
नितिन नबीन के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष बनने के बाद इतिहास क्या खुद को फिर एक बार दोहरा रहा है. राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी से जुड़े वे कौन से प्रसंग है जो आज याद आ रहे. जानिए राजधानी में.


उन दिनों अटल-आडवाणी के बाद महाजन बीजेपी में सबसे ताकतवर नेता माने जाते थे. इन्हीं महाजन के इशारे पर एक ऐसा लिफ्ट तैयार हुआ था, जो खुलने पर कमल की तरह दिखता था. उस दिन जब ये लिफ्ट खुला तो सभी अवाक् रह गए. उस ‘कमल’ में भारतीय जनता पार्टी के टॉप के 25 नेता तो थे पर राजनाथ सिंह नहीं थे. जबकि राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित किए जा चुके थे. 31 दिसंबर यानी हफ्ते भर के भीतर उन्हें आडवाणी से अध्यक्ष पद का चार्ज लेना था.
आप भी कहेंगे कि ये कहानी मैं क्यों सुना रहा हूं? वो भी 20 बरस पुरानी बात. कहावत तो सुनी ही होगी आपने कि ‘इतिहास खुद को दोहराता है’. नितिन नबीन के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष बनने के बाद क्या भारतीय जनता पार्टी फिर एक बार दोराहे पर खड़ी है? दो दशक पहले प्रमोद महाजन ने जो राजनाथ सिंह के साथ किया. इन दिनों बीजेपी की ‘दूसरी पंक्ति के नेता’ ऐसे ही कुछ धर्मसंकट में तो नहीं आ गए हैं? जिस तरह राजनाथ सिंह को उस समय राष्ट्रीय स्तर पर लॉन्च किया गया था. वैसा ही तो कुछ नितिन नबीन के साथ हुआ.
राजनाथ सिंह तो उस समय उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूबे के सीएम रह चुके थे. केंद्र में दो दफा मंत्री का पद संभाल चुके थे, लेकिन नितिन नबीन के पास तो उतनी भी रानजीतिक जमापूंजी नहीं है. प्रमोद महाजन ने मुंबई के उस अधिवेशन में राजनाथ को कमल वाले मंच पर जगह न देकर जो ‘इग्नोर मारा’. नितिन नबीन के साथ भी ऐसा कुछ हो सकता है? इस पर विस्तार से बात बाद में. अभी महाजन और राजनाथ की कथा पूरी कर लें.
‘जिन्नाकांड’ और आडवाणी का करियर
प्रमोद महाजन ने राजनाथ के साथ जो किया, वो उनकी सोची-समझी रणनीति थी. उन्हें लगता था कि राजानाथ सिंह का कद इतना भी बड़ा नहीं है कि उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया जाए और वे इतने भी जूनियर नहीं कि उनके लिए बिछ जाएं. वो दौर अटल-आडवाणी का था. जिन्ना कांड के बाद आडवाणी संघ की ‘स्कीम ऑफ थिंग्स’ से बाहर चले गए थे. चर्चा तो तब उनको पार्टी से बाहर किए जाने तक की थी. इस पर विस्तार से बात फिर कभी.
साल 2004 में शाइनिंग इंडिया के चक्कर में बीजेपी सत्ता से बाहर हो चुकी थी. वैंकेया नायडू की जगह लालकृष्ण आडवाणी को बीजेपी का अध्यक्ष बनना पड़ा था. मजे की बात ये है कि स्वास्थ्य कारणों का हवाला देकर नायडू ने अध्यक्ष पद का त्याग कर दिया था. पर आडवाणी के अध्यक्ष बनते ही वे आसानी से उपाध्यक्ष बन गए. पाकिस्तान में जिन्ना की कब्र पर मत्था टेक कर भारत लौटे आडवाणी तब तक आरएसएस के लिए ‘अछूत’ बन चुके थे.
D4 ने जब सियासी खेल कर दिया!
ऐसे में, आरएसएस ने राजनाथ सिंह को लखनऊ से दिल्ली बुला लिया. ये फैसला सिर्फ और सिर्फ संघ का था. राजनाथ का पूरा कार्यकाल आडवाणी और उनकी कोटरी से बचने-बचाने में ही खत्म हो गया. इस दौरान D-4 की चर्चा खूब रही. कहते हैं कि बीजेपी के अंदर-बाहर जो भी घटित होता था, सब D-4 ही के इशारे पर होता था. D-4 मतलब दिल्ली वाले बीेजपी के 4 बड़े नेता. ये 4 नाम थे- अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू और अनंत कुमार.
आडवाणी के नेतृत्व में बीजेपी 2009 का लोकसभा चुनाव हार चुकी थी. लगातार दो आम चुनाव हार चुकी और आपसी गुटबाजी में फंसी बीजेपी के लिए आरएसएस ने एक नया अध्यक्ष तय कर लिया था. तब तक नितिन गडकरी को राष्ट्रीय राजनीति में कम ही लोग जानते थे. हालांकि, महाराष्ट्र विधानसभा में वे विपक्ष के नेता और प्रदेश बीेजेपी अध्यक्ष रह चुके थे. संघ के चहेते थे. नागपुर से आते थे. मोहन भागवत दिल्ली वाले किसी नेता के हाथ में बीजेपी की कमान नहीं देना चाहते थे.
आडवाणी और गडकरी के रिश्ते
गडकरी और राजनाथ की राजनीति में एक बुनियादी फर्क रहा है. राजनाथ सिंह किसी से टकराव मोल नहीं लेते थे. जबकि गडकरी के फैसले में कोई आ भी जाए तो वो उसकी परवाह नहीं करते. गडकरी ने अपने कार्यकाल के दौरान पार्टी की नीति और रीति बदलने की भरपूर कोशिश की. संघ भी उनके काम से खुश था. संघ ने उनके अध्यक्ष रहते ही 2014 लोकसभा चुनाव लड़ने की योजना बनाई थी. गडकरी दूसरी बार अध्यक्ष न बन पाएं इसके लिए D-4 ने तो जैसे कसम ही खा रखी थी.
आडवाणी ने भी गडकरी के रास्ते में अंगद की तरह पैर अड़ा दिए. इसी बीच गडकरी का लखनऊ का कार्यक्रम बना. कल्याण सिंह की पार्टी का बीजेपी में विलय हुआ. राजनाथ सिंह भी मंच पर थे. सबको लग रहा था कि गडकरी ही फिर से अध्यक्ष बनेंगे. मंच पर राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह और नितिन गडकरी जिस एक बड़ी से माला में फोटो खिंचाने के लिए खड़े थे, वो अचानक से टूट गया. इसे अशुभ माना गया.
BJP में EGO, सुना है क्या?
दिल्ली में कुछ ऐसा ही हो रहा था. यशवंत सिन्हा ने गडकरी के खिलाफ अध्यक्ष का चुनाव लड़ने का मन बना लिया था. आडवाणी टस से मस नहीं हो रहे थे. एक तो करेला, दूजे नीम चढ़ा. नितिन गडकरी के खिलाफ पूर्ति घोटाले की खबरें और जोर-शोर से चलने लगीं. ऐसे में किस्मत फिर एक बार मेहरबान हुई राजनाथ सिंह पर. फैसला संघ का. सहमति बीजेपी की. इस बार, मतलब साल 2025 में. फैसला प्रधानमंत्री मोदी का. मतलब बीजेपी का और सहमति संघ की. नितिन नबीन के सामने चुनौतियों का पहाड़ है. उनकी हालत तो गडकरी और राजनाथ के मुकाबले और भी नाजुक है.
नाजुक ऐसी की ये बीजेपी की हैरार्की में अब तक तो तीसरी पंक्ति के नेता थे. दूसरी पंक्ति में एक से एक धाकड़ और अनुभवी नेताओं की टीम है, जो इन दिनों अपने नए राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष से शिष्टाचार भेंट-मुलाकात भी कर रही है. जो पिछले हफ्ते तक नितिन कहकर बुलाते थे. नितिन उनके पांव छूकर आशीर्वाद लेते थे. अब उन्हें हाथ जोड़कर ‘अध्यक्ष जी’ कह रहे हैं. समय-समय की बात है. पर क्या ये बदलाव जितना सहज, सरल लग रहा है, उतना है भी? क्योंकि ईगो तो कई नेताओं के हर्ट हुए हैं.
सीनियरों की टीस
बीेजपी के एक बड़े नेता हैं. बिहार से उनका ताल्लुक है. पता चला कि नितिन नबीन उनको पांव छूकर प्रणाम करते रहे हैं. पर जब इस दफा वे पटना से दिल्ली आए तो नितिन जी उनको बदले-बदले से लगे. चश्मे-चश्मे की बात है. वैसे तो लगातार मीटिंग कर रहे नितिन नबीन ने इसी से जुड़ा एक आदेश भी दिया है कि जो भी लोग पार्टी हेड ऑफिस आएं. उन्हें किसी भी तरह कोई परेशानी न हो. पर परेशानी बीजेपी के साथ दूसरी है. जूनियर के अध्यक्ष बन जाने पर बीजेपी के कई सीनियर नेताओं के मन में टीस है.
नितिन नबीन से दिक्कत किसको?
बीजेपी की राजनीति को जानने-समझने वाले और उस पर कई किताब लिखे चुके वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं कि पहले की बीजेपी रहती तो दिक्कत होती लेकिन मोदी-शाह युग की बीजेपी में अगर-मगर की कोई गुंजाइश नहीं है. विजय त्रिवेदी कहते हैं
आज भारतीय जनता पार्टी में सीधे तौर पर या सामने से कोई इस फैसले पर आपत्ति करेगा, इसकी संभावना मुझे नहीं दिखती. दूसरा, काम करने में परेशानी होगी वो भी मुझे नहीं लगती क्योंकि वो कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त हो गए. लेकिन सरकार को लेकर, संगठन को लेकर या दूसरे सहयोगी दलों को लेकर जो बड़े फैसले हैं, मुझे लगता है वो अब भी अमित शाह ही करेंगे. अमित शाह के फैसलों को न तो कोई चुनौती दे सकता है और न ही उसकी आवश्यकता है क्योंकि वो इतने लंबे अनुभव के साथ काम कर रहे हैं.
दूसरा नड्डा जी भी अभी वहां पर काम करते रहेंगे. तो सीधे-सीधे अभी नितिन नबीन को उस तरह से बड़े फैसले करने का शायद मौका नहीं मिल पाएगा. अभी पार्टी में जो सेकेंड जेनेरेशन लीडरशिप चल रही है, उनमें से मुझे नहीं लगता कि कोई बड़ी आपत्ति सार्वजनिक तौर पर करेगा. हो सकता है कि मन में परेशानी हो, जो जाहिर है होती है. पर काम करने में कोई परेशानी… वो आज की भारतीय जनता पार्टी में मुझे नहीं लगता किसी को होगी.
त्रिवेदी आगे कहते हैं कि ये ठीक है कि जनरेशनल चेंज के लिए पार्टी ऐसा करती रहती है और पार्टी के नेतृत्व को ये अधिकार भी है. प्रयोगधर्मिता भी एक कारण हो सकता है. प्रयोग में भी गलती हो सकती है. इसमें भी कोई आपत्ति नहीं लेकिन क्या इस पर सब लोगों की सहमति बनी. ये एक बड़ा मसला है और सहमति का मुद्दा तो तब आएगा जब इस पर चर्चा की गई हो.
विजय त्रिवेदी कहते हैं कि घर के अंदर से तो ऑल इज वेल वाला माहौल है. पर बाहर के लोगों ने अपना काम शुरू कर दिया है. अखिलेश यादव ने नितिन नबीन और पंकज चौधरी का नाम लिए बगैर ये कहते हुए तंज किया है कि 7 बार के सांसद को प्रदेश का अध्यक्ष और 5 बार के विधायक को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जा रहा है. बहरहाल, विपक्ष जो भी कहे बीजेपी के पास नरेंद्र मोदी जैसा चेहरा है. चुनाव दर चुनाव जीताने वाला और उसकी रणनीति बनाने में चाणक्य के रोल में हैं अमित शाह. शायद इसीलिए नितिन नबीन के सामने चुनौतियों का पहाड़ होते हुए भी अभी वो ओझल लगती है. पर क्या ये यूं ही रहेगी?
वीडियो: राजधानी: नितिन नबीन के अध्यक्ष बनने से बीजेपी और मोदी सरकार में क्या बदलाव होंगे?




















