‘भारत की विदेश नीति के इतिहास में शायद इतनी भयानक भूल पहले कभी नहीं हुई और आज ये नहीं कहा जा सकता कि भारत की विदेश नीति कहां खड़ी है?’ भाजपा के तत्कालीन नेता यशवंत सिन्हा का ये बयान यूपीए सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह के लिए था, जो इजिप्ट यानी मिस्र के शर्म-अल-शेख (Sharm El Sheikh) में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी के साथ साझा बयान में ‘बड़ी गलती’ कर आए थे. ये गलती इतनी बड़ी बताई गई कि संसद में भाजपा ने ये तक कह दिया कि ‘सात समंदर का पानी भी इस शर्म को नहीं धो पाएगा.’
मनमोहन सिंह ने जहां की थी 'सबसे बड़ी गलती', Sharm El Sheikh क्यों नहीं जा रहे PM मोदी?
मिस्र के शर्म-अल शेख में दुनिया भर के नेता गाजा में शांति लाने की कोशिश के तहत जुटेंगे. पीएम मोदी को भी शांति सम्मेलन में शामिल होने का न्योता मिला लेकिन वह मिस्र नहीं जा रहे.
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ये 'गलती' थी कि पहली बार भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर कथित तौर पर ये स्वीकार किया था कि पाकिस्तान के बलूचिस्तान में वहां के संगठनों की विद्रोही हरकतों में भारत का हाथ है. इस साझा बयान में भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों ने माना था कि आतंकवाद दोनों ही मुल्कों के लिए खतरा है. इस मीटिंग की चर्चा हाल ही में ऑपरेशन सिंदूर की चर्चा के दौरान विदेश मंत्री जयशंकर ने संसद में भी की थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत और पाकिस्तान को एक साथ जोड़कर देखने की अमेरिका और रूस की कोशिश नई नहीं है. इससे पहले मनमोहन सिंह सरकार ने ही सबसे पहली बार आतंकवाद के खतरों के मुद्दे पर दोनों देशों को एक ही तराजू में तोल दिया था.
जिस घटना का जिक्र जयशंकर कर रहे थे, वह उसी शर्म-अल शेख में हुई थी, जहां 13 अक्टूबर दिन सोमवार को दुनिया भर के नेता गाजा में शांति लाने की कोशिश के तहत जुटने वाले हैं. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी दुनिया के 20 बड़े नेताओं की लिस्ट में शामिल हैं, जिन्हें इस मीटिंग में न्योता मिला था लेकिन उन्होंने तुरंत साफ कर दिया कि वह इस मीटिंग में शामिल नहीं होंगे.
भारत के लिए ‘शर्म-अल शेख ब्लंडर’ क्या था, इसके बारे में विस्तार से जानेंगे लेकिन पहले ये जान लें कि अभी वहां क्या हो रहा है?
क्या है शर्म अल शेख मीटिंगअफ्रीका के मैप पर उत्तर-पूर्व की ओर लाल सागर के किनारे एक शहर है- शर्म अल शेख. मिस्र की राजधानी काइरो के समुद्री किनारे पर शानदार रिसॉर्ट्स वाली सिटी, जहां के डाइविंग स्पॉट्स के आकर्षण से खिंचकर दुनिया भर के टूरिस्ट यहां चले आते हैं. सिर्फ टूरिस्ट ही क्यों? दुनिया के तमाम देशों में झगड़ा हो, संघर्ष हो. किसी मुद्दे पर कहीं बात फंस रही हो. संकट के ऐसे समय पर ये शहर तुरंत डिप्लोमेटिक मीटिंग्स की राजधानी भी बन जाता है. शानदार माहौल में उलझी बातों पर बात होती है. कुछ सुलझती हैं. कुछ नहीं सुलझतीं.
ऐसे ही अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और मिस्र के राष्ट्रपति अब्दुल फतह अल-सीसी की अगुआई में एक ‘डिप्लोमेटिक मेला’ यहां 13 अक्टूबर को लग रहा है, जिसमें इजरायल और हमास के बीच दो साल से चल रहे ‘युद्ध पर पूर्णविराम का समझौता’ लिखा जाएगा. मिस्र और अमेरिका की संयुक्त मेजबानी में यहां एक बड़ा शांति सम्मेलन आयोजित किया गया है, जिसमें दुनिया के 20 से ज्यादा देश शामिल होने वाले हैं.
मिस्र के राष्ट्रपति कार्यालय के अनुसार, इस सम्मेलन का मकसद गाजा में युद्ध को समाप्त करना, मध्य पूर्व में शांति और स्थिरता प्राप्त करने के प्रयासों को बढ़ाना और क्षेत्रीय सुरक्षा एवं स्थिरता के एक नए युग की शुरुआत करना है. आगे बताया गया कि इस चर्चा में सीजफायर, ट्रम्प के 20 सूत्रीय गाजा पीस प्लान योजना के अगले चरणों के साथ-साथ अन्य क्षेत्रीय सुरक्षा चिंताओं पर ध्यान केंद्रित किए जाने की उम्मीद है. गाजा में शासन और सुरक्षा का ढांचा तय करने और शहर के पुनर्निर्माण प्रक्रिया को शुरू करने पर भी ‘दुनिया के चौधरी’ यहां चर्चा करेंगे.
इस सम्मेलन में समझौते को गारंटी देने के लिए कई देशों के नेताओं को न्योता दिया गया है. जो लोग इस मीटिंग में शामिल होने वाले हैं, उनमें डॉनल्ड ट्रंप के अलावा ब्रिटिश प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर, इटली की जॉर्जिया मेलोनी, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन, संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस के आने की पुष्टि हुई है.
इनके अलावा, जिन लोगों के सम्मेलन में शामिल होने की संभावना है, उनमें अरब लीग के महासचिव अहमद अबुल घीत, जॉर्डन के राजा अब्दुल्ला द्वितीय, कुवैत के प्रधानमंत्री अहमद अल अब्दुल्ला अल सबाह, बहरीन के राजा हमद बिन ईसा अल खलीफा, इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियांटो, अजरबैजान के राष्ट्रपति इल्हाम अलीयेव, जर्मन चांसलर फ्रेडरिक मर्ज, ग्रीक प्रधानमंत्री काइरियाकोस मित्सोताकिस, अर्मेनियाई प्रधानमंत्री निकोल पशिनयान, हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ, कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्नी, नॉर्वे के प्रधानमंत्री जोनास गहर स्टोर और इराक के प्रधानमंत्री मोहम्मद शिया अल-सुदानी शामिल हैं.
मोदी को भी न्योताभारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी दुनिया भर के उन 20 से ज्यादा देशों के नेताओं की लिस्ट में शामिल थे, जिन्हें सम्मेलन में आने का न्योता दिया गया था, लेकिन मिस्र के राजदूत कामेल गलाल की ओर से मिले निमंत्रण को पीएम मोदी ने ठुकरा दिया. इसकी प्रमुख वजह बताई गई कि काफी शॉर्ट नोटिस पर पीएम को निमंत्रण मिला था. इतने कम समय में पीएम के दौरे को मैनेज करना मुश्किल था. लेकिन इस शांति सम्मेलन में शामिल होने के लिए भारत के दूत के तौर पर विदेश राज्यमंत्री कीर्ति वर्द्धन सिंह काहिरा पहुंच गए हैं.
इंडियन एक्सप्रेस के सूत्रों के मुताबिक, मोदी के सम्मेलन में शामिल न होने की एक वजह यहां पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की मौजूदगी भी हो सकती है. ऐसी हालत में भारत ये रिस्क नहीं ले सकता था कि डॉनल्ड ट्रंप और शहबाज शरीफ के एक साथ एक ही जगह पर होने से कैसी स्थिति बनेगी. पहलगाम हमले के जवाब में भारत के सैन्य ऑपरेशन सिंदूर के बाद से इस मुलाकाती गठबंधन ने कई बार असहज स्थितियां पैदा की हैं.

भारत के अलावा, न्योते के बाद भी जो देश इस सम्मेलन में शामिल नहीं हो रहे हैं, उनमें ईरान भी शामिल है. ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अरागची ने सोमवार 13 अक्टूबर को एक्स पर पोस्ट करके स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति मसूद पेजेश्कियान और वो खुद शर्म-अल शेख के शांति सम्मेलन में शामिल नहीं होंगे. इसकी वजह उनके पोस्ट की अगली लाइन से समझी जा सकती है, जिसमें वह कहते हैं,
न तो राष्ट्रपति पेजेश्कियान और न ही मैं (अगराची) उन नेताओं से मुलाकात कर सकते हैं, जिन्होंने ईरानी जनता पर हमला किया है और जो हमें धमकी और प्रतिबंधों के जरिए निशाना बना रहे हैं.
अगराची का निशाना अमेरिका की तरफ था, जिसने जून 2025 में ईरान के परमाणु ठिकानों पर इजरायल के साथ मिलकर हमला किया था.
इसके अलावा, इजरायल की ओर से भी न तो बेंजामिन नेतन्याहू और न ही किसी अन्य नेता के इस सम्मेलन में शामिल होने की पुष्टि हुई है. हमास के प्रतिनिधियों ने भी सम्मेलन में शामिल होने से साफ इनकार किया है.
भारत की शर्म-अल शेख हिस्ट्रीशर्म-अल शेख से भारत का एक और इतिहास जुड़ा है. भले ही पीएम मोदी के मिस्र न जाने का कनेक्शन इस इतिहास से न हो लेकिन सोमवार 13 अक्टूबर को जब दुनिया भर में शर्म अल शेख एक बार फिर से चर्चा का केंद्र बनेगा, भारत साल 2009 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी के साथ मनमोहन सिंह की उस मुलाकात को जरूर याद करेगा, जिसने देश की सियासत में तहलका मचा दिया था.
ये मुलाकात 26 नवंबर 2008 को मुंबई में आतंकवादी हमले के कुछ समय बाद ही हुई थी.
जुलाई 2009 में जब शर्म-अल-शेख का मौसम थोड़ा सा उमस भरा था. नॉन-अलाइंड मूवमेंट (NAM) समिट के दौरान मुख्य कार्यक्रम से इतर भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और युसुफ रजा गिलानी एक रिसॉर्ट में मिले. ये वो समय था जब 2008 के हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय बातचीत बंद थी लेकिन इस वार्ता से दोनों देशों के रिश्तों में जमी बर्फ को पिघलाने की कोशिश की गई.
मीटिंग के बाद दोनों प्रधानमंत्रियों का एक संयुक्त बयान जारी किया गया, जो बाद में बड़े विवाद की जड़ बन गया. इस स्टेटमेंट में पहली बार ऐसा हुआ जब भारत-पाकिस्तान की तरफ से जारी किसी साझा बयान में ‘बलूचिस्तान’ भी शामिल हुआ था.
दरअसल, भारत हमेशा से यह कहता रहा है कि बलूचिस्तान में चल रहे विद्रोह में उसकी कोई भूमिका नहीं है. वहां आंदोलन बलूच राष्ट्रवादी लोगों द्वारा चलाया जा रहा है, जो इस बात से नाराज हैं कि इस खनिज संपन्न राज्य से इस्लामाबाद संसाधन तो लेता है, लेकिन वहां के लोगों को गरीबी में ही छोड़ देता है.
क्या था बयान में16 जुलाई 2009 को विदेश मंत्रालय द्वारा जारी बयान में कहा गया,
दोनों नेताओं ने इस बात पर सहमति जताई कि आतंकवाद दोनों देशों के लिए मुख्य खतरा है. दोनों नेताओं ने आतंकवाद से मिलकर लड़ने और इस दिशा में सहयोग बढ़ाने का संकल्प लिया.
मनमोहन सिंह और गिलानी इस बात पर भी राजी हुए कि भविष्य में किसी भी आतंकी खतरे से जुड़ी जानकारी दोनों देश एक-दूसरे के साथ साझा करेंगे. लेकिन इसके बाद आने वाला एक वाक्य भारत में ‘बहुत बड़ी गलती’ माना गया. इसमें गिलानी ने कहा कि 'पाकिस्तान के पास बलूचिस्तान और अन्य क्षेत्रों से जुड़ी कुछ सूचनाएं हैं.'
पाकिस्तान ने इस वाक्य को ऐसे पेश किया मानो भारत ने अप्रत्यक्ष रूप से यह मान लिया हो कि वह बलूचिस्तान में विद्रोह को बढ़ावा दे रहा है.
‘अन्य क्षेत्रों’ का जिक्र होने से पाकिस्तान को यह मौका मिल गया कि वह भारत के खिलाफ झूठा प्रचार करे कि भारत दूसरे इलाकों में भी विद्रोहियों को समर्थन देता है.
विपक्ष ने खड़ा किया बवालभारत में इसे लेकर बड़ा बवाल हुआ. संसद में इस बयान पर हुई बहस के दौरान भाजपा नेताओं ने आरोप लगाया कि मनमोहन सिंह ने भारत की ‘पाकिस्तान नीति’ को पलट दिया है. भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि पिछले 60 सालों में पहली बार हमने ऐसा बयान जारी किया है. संयुक्त बयान में बलूचिस्तान का जिक्र आने वाले लंबे समय तक देश को परेशान करता रहेगा.
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