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ईरान-इजरायल की दुश्मनी में भारत के लिए 'असली दोस्त' चुनना कैसे मुश्किल हो गया?

भारत ने 20 साल पहले ईरान के परमाणु कार्यक्रम के खिलाफ वोटिंग की थी. अब एक बार फिर भारत ईरान के न्यूक्लियर प्रोग्राम पर इंटरनेशनल प्रेशर और कूटनीतिक संबंधों के संतुलन के बीच फंसा है.

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ईरान-इजरायल के बीच जंग ने भारत को धर्मसंकट में डाल दिया है (India Today)

एक महीने पीछे चलते हैं. मई 2025 में पहलगाम हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य संघर्ष चरम पर था. पूरी दुनिया के लोगों का ध्यान दो पड़ोसियों की इस लड़ाई पर था लेकिन कोई भी खुलकर किसी के समर्थन या विरोध में नहीं आ रहा था. इसी समय मध्य-पूर्व एशिया से भारत को एक मजबूत और खुला समर्थन मिला. यह समर्थन इजरायल का था. अब इसके दो महीने बाद इजरायल खुद ईरान के साथ सैन्य संघर्ष में लगा है. दोनों देशों में जंग छिड़ी है और भारत एक गहरे धर्मसंकट में है कि किसकी ओर जाए? किसका समर्थन करे? 

एक तरफ इजरायल है, जो न सिर्फ मुश्किल वक्त में भारत के साथ खड़ा रहा बल्कि भारत उसके साथ रक्षा साझेदारी मजबूत करने की कोशिश में जुटा है. वहीं, दूसरी तरफ ईरान है, जिसके साथ भारत के बहुत पुराने आर्थिक और सांस्कृतिक संबंध हैं. भारत ने लगातार कोशिश की है कि दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंधों में संतुलन बना रहे. लेकिन ईरानी परमाणु कार्यक्रम के खिलाफ वोटिंग करने के 20 साल बाद वह एक बार फिर ईरान के न्यूक्लियर प्रोग्राम पर अंतरराष्ट्रीय दबाव और कूटनीतिक संबंधों के संतुलन के बीच फंसा दिख रहा है.

20 साल पहले क्या हुआ था?

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, 24 सितंबर 2005 की बात है. अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) ने ईरान के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें कहा गया कि ईरान सुरक्षा उपायों के समझौते का पालन नहीं कर रहा है. तब भारत ने पहली बार IAEA में ईरान के खिलाफ वोट दिया था. उस वक्त भारत पर अमेरिका का दबाव था क्योंकि अमेरिका के साथ सिविल न्यूक्लियर डील पर बातचीत चल रही थी. वहीं भारत भी उस समय दुनिया में एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति के तौर पर अपनी छवि मजबूत करना चाहता था. ऐसे में भारत ने अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ मिलकर ईरान को IAEA के नियमों के उल्लंघन का दोषी ठहराया था.

यूएनएससी में भेजा मामला

इसके कुछ महीनों बाद 4 फरवरी 2006 को भारत ने ईरान के खिलाफ फिर अमेरिका का साथ दिया. IAEA बोर्ड ऑफ गवर्नर्स ने ईरान के सुरक्षा समझौते के 'गैर-अनुपालन' (Non-compliance) के मामले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में भेजने का प्रस्ताव रखा. तब भारत अमेरिका समेत उन 27 देशों की लिस्ट में शामिल था, जिसने इस प्रस्ताव के सपोर्ट में वोट किया था. इसके बाद ये मामला UNSC में चला गया.

तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारतीय संसद में इसे लेकर कहा था कि ईरान को शांतिपूर्ण न्यूक्लियर एनर्जी विकसित करने का अधिकार है लेकिन उसे IAEA की निगरानी में ये काम करना होगा. 

मामला संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में जाने के बाद भारत ने 2007 से 2024 तक इस मुद्दे पर कोई खास स्टैंड नहीं लिया.

ईरान से तेल आयात बंद

इसी बीच, साल 2015 में अमेरिका और ईरान के बीच एक परमाणु समझौता हुआ, जिसे Joint Comprehensive Plan of Action (JCPOA) या ईरान परमाणु समझौता भी कहा जाता है. इसका उद्देश्य ईरान के परमाणु कार्यक्रम को सीमित करना था, जिसके बदले में उस पर लगे प्रतिबंधों में ढील दी जानी थी. हालांकि, 2017 में तत्कालीन डॉनल्ड ट्रंप सरकार ने इस समझौते से बाहर निकलकर ईरान पर फिर से दबाव बनाना शुरू कर दिया.

ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों के बाद साल 2019 में भारत ने मजबूरी में ईरान से तेल आयात बंद कर दिया था.

भारत के लिए परीक्षा की घड़ी एक बार फिर 2024 में आई, जब जून 2024 में IAEA में अमेरिका ने परमाणु कार्यक्रम के लिए ईरान को दोषी ठहराने वाला प्रस्ताव रखा. इस बार भारत ने वोटिंग से दूरी (Abstain) बना ली. हालांकि, 35 में से 19 देशों के समर्थन से ये प्रस्ताव पास हो गया, जबकि भारत उन 16 देशों में शामिल रहा जिन्होंने मतदान में हिस्सा ही नहीं लिया.

सितंबर 2024 में भारत ने फिर से IAEA बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में एक प्रस्ताव पर मतदान से परहेज किया, जिसमें ईरान को उसके परमाणु कार्यक्रम की जांच में सहयोग न करने के लिए फटकार लगाई गई थी.

जून 2025 में भी भारत ने IAEA बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के प्रस्ताव पर मतदान से परहेज किया, जिसमें ईरान के परमाणु कार्यक्रम की कड़ी आलोचना की गई थी.

इस दौरान भारत ने लगातार कूटनीतिक फैसलों के जरिए इजरायल और ईरान से अपने संबंधों में संतुलन साधने की कोशिश की लेकिन अब एक बार फिर ‘पक्षधरता की मांग' ने भारत के सामने धर्मसंकट खड़ा कर दिया है.

ईरान और इजरायल के बीच जंग में अमेरिका ने किसका पक्ष लिया, किसी से छिपा नहीं. वहीं, भारत दोनों देशों से ‘संयम बरतने’ और ‘कूटनीतिक बातचीत से मुद्दों को हल’ करने की सलाह भर ही देता रहा. 

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