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चोरी की नौकरी देने वाला गैंग, टाइम पर सैलरी, रहने-खाने के साथ घूमने का खर्चा भी देता है

चोर गैंग का सरगना मनोज तीन महीने की ट्रेनिंग भी देता था. ट्रेनिंग के दौरान 'रंगरूट' को छोटे-छोटे असाइनमेंट पर भेजा जाता था. फिर 'नौकरी' पक्की की जाती थी.

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सांकेतिक तस्वीर. (AAJ TAK)

हर महीने सैलरी का इंतजार अब सिर्फ नौकरीपेशा वाले ही नहीं करते, चोर भी करते हैं. यूपी में एक मोबाइल फोन चुराने वाला एक गैंग पकड़ा गया है जिसके चोर सदस्य 'पेरोल' पर हैं. इस गैंग को गोरखपुर में रेलवे पुलिस ने पकड़ा है. गैंग का ताल्लुक झारखंड से है और 35 साल का मनोज मंडल इसका सरगना था.

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मनोज ने अपने साथ दो और लोगों को चोरी का 'रोजगार' दिया. 19 साल का करण इस गैंग में काम करता था और उसने अपने साथ अपने भाई को भी इस 'नौकरी' पर रखवा लिया था. यानी चोरी का 'पेशा' भी 'परिवारवाद' से बच ना सका. इस मामले में केस दर्ज करते वक्त पुलिस को कुछ गैर-पारंपरिक दिक्कतें भी आई होंगी. क्योंकि करण का भाई जो इस गैंग में काम कर रहा था उसकी उम्र मात्र 15 साल थी. तो कायदे से तो गैंग के सरगना मनोज पर चोरी के अलावा 'बाल मजदूरी' का केस भी बनता है.

लेकिन गोरखपुर GRP के पुलिस अधीक्षक संदीप कुमार मीणा ने गैंग के वर्क कल्चर के बारे में जो जानकारी दी है वो लाखों नौकरीपेशा लोगों को इनकम टैक्स से भी ज्यादा चुभेगा. नोएडा-NCR में नौकरी करने वालों की सैलरी आते ही चिल्लर छोड़कर बाकी सब पैसे मकान मालिक ले लेता है. जो बचता है वो GST देते-देते चुक जाती है. उसमें भी अगर कैरेमल पॉपकॉर्न खाने का मन कर जाए तो उधार लेना पड़ेगा. लेकिन मनोज अपने दोनों 'कलीग्स' को हर महीने सैलरी के 15 हजार रुपये तो देता ही था, रहने को छत भी देता था और खाना फ्री. और अगर 'काम' के सिलसिले में दूसरे शहर जाना पड़ जाए तो TA-DA या भत्ता अलग से देता था.

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चोरों का ये गैंग अपने काम को लेकर इतना 'सीरियस' था कि सिर्फ दिन ही नहीं 'नाइट ड्यूटी' भी लगती थी. रात की शिफ्ट के दौरान ही पुलिस ने इन्हें गोरखपुर स्टेशन से पकड़ा. इनके पास से इतने फोन पकड़े गए हैं जितने गोरखपुर में शायद ही किसी मोबाइल की दुकान में मिलें. पुलिस ने 10 लाख की कीमत के 44 फोन इनके पास से बरामद किए हैं.

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक एक पुलिस अधिकारी ने बताया कि गैंग का सरगना मनोज जिसको भी अपनी गैंग-संगठित क्षेत्र से जुड़ी 'संस्था' से जोड़ता था उसे तीन महीने की ट्रेनिंग भी देता था. ट्रेनिंग के दौरान 'रंगरूट' को छोटे-छोटे असाइनमेंट पर भेजा जाता था. प्रोबेशन पीरियड में परफॉर्मेंस के हिसाब से ट्रेनी को पेरोल पर रखा जाता था. आवेदन के लिए 'मिनिमम क्वॉलिफिकेशन' भी था. 'चोर' की नौकरी पाने के लिए पढ़ा लिखा होना जरूरी था. लेकिन कंपनी के संस्थापक का दिल बहुत बड़ा था और वह हिंदी प्रेमी था. जो युवा पैसों की तंगी झेल रहे हैं उन्हें वरीयता दी जाती थी और अगर अच्छी हिंदी बोलनी आती है तो सोने पर सुहागा.

प्रोफेश्नलिज़्म इस गैंग का मोटो था. ट्रेन में जब मोबाइल चुराने जाते तो उनके पास रिज़र्वेशन टिकट भी होता. फिर भी पुलिस से बचने के लिए ट्रेन में बोगी समय समय पर बदल लेते. सभी सदस्य अच्छे कपड़े पहनकर काम पर जाते थे. ताकि किसी को शक ना हो सके. पुलिस को भी इस गैंग को पकड़ने के लिए एक हफ्ते तक काम करना पड़ा. 200 सीसीटीवी की रिकॉर्डिंग देखी तब जाकर इनको पकड़ पाए.

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कहने को चोरों की 'कंपनी' मात्र तीन लोगों की थी. लेकिन कारोबार विदेश तक फैला हुआ था. गैंग के सदस्य बाज़ारों और रेलवे स्टेशन पर लोगों को टार्गेट बनाते थे और फोन उड़ा लेते थे. फिर इन मोबाइल फोन्स को अलग-अलग माध्यमों से बिना एक्सपोर्ट ड्यूटी दिए बांग्लादेश और नेपाल पार करा दिया जाता था. 

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