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पिता-दादी की जान लेने वाला आज़ाद! छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने कहा – 'कानूनी पागलपन' था

Chhattisgarh High Court ने कहा कि यदि आरोपी के मानसिक स्वास्थ्य संबंधी जानकारी सामने आती है, तो ये जांच अधिकारी का कर्तव्य है कि वो इस बात की जांच कराए. यदि ऐसा नहीं किया जाता है, तो आरोपी पक्ष को 'बेनिफिट ऑफ डाउट' दिया जाएगा.

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छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने हत्या के दोषी व्यक्ति को बरी कर दिया है. (फाइल फोटो: इंडिया टुडे)

छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) में 25 साल के एक व्यक्ति को अपने पिता और दादी की हत्या के लिए दोषी ठहराया गया था. धमतरी के सेशन कोर्ट ने उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. लेकिन अब छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने 'कानूनी पागलपन' के आधार पर उसे बरी कर दिया है. 'कानूनी पागलपन' का मतलब है कि व्यक्ति अपराध करते वक्त मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं था, और वह उस समय अपराध और उसके परिणामों को समझने में असमर्थ था.

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मामला 13 अप्रैल 2021 का है. इंडियन एक्सप्रेस ने अदालती दस्तावेजों के हवाले से बताया है, आरोपी मानसिक रूप से अस्थिर था. उसे उसके कमरे में बंद कर दिया गया था. रात करीब 11 बजे उसने अपनी मां से कहा कि उसे पानी पीना है, इसलिए दरवाजा खोल दिया जाए. लेकिन उसके व्यवहार से डरकर मां ने ऐसे करने से मना कर दिया. उसने अपने पति को बुलाया, जिसने दरवाजा खोला.

व्यक्ति के परिवार ने जब उससे पूछा कि वो हंगामा क्यों कर रहा है, तो उसने अपनी मां को धक्का दे दिया. इसके बाद उसने अपने पिता और दादी पर हमला कर दिया. उसकी मां दौड़कर पड़ोसियों को खबर देने गई. जब तक वो लौटी, तब तक दोनों मर चुके थे.

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मामला सेशन कोर्ट में गया, जहां उसे दोहरे हत्याकांड का दोषी ठहराया गया और फरवरी 2024 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई.

छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने क्या कहा?

इस साल ये मामला हाई कोर्ट में पहुंचा. सेशन कोर्ट से सजा पाए व्यक्ति के वकील अभिषेक सिन्हा ने दलील दी कि व्यक्ति उस समय ‘पागलपन’ से पीड़ित था और उसकी मानसिक स्थिति की जांच करने में गंभीर खामी देखी गई. सिन्हा ने कहा कि आरोपी को कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान सिर में चोट लगी थी. उसका रायपुर के मानसिक अस्पताल में उसका इलाज चल रहा था.

दोनों पक्षों को सुनने के बाद मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायाधीश बिभु दत्ता गुरु ने आजीवन कारावास की सजा को रद्द कर दिया और उसे बरी कर दिया. हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश का हवाला देते हुए कहा,

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जांच के दौरान अगर पागलपन का पिछला इतिहास सामने आता है, तो एक ईमानदार जांच अधिकारी का कर्तव्य है कि वो अभियुक्त की मेडिकल जांच कराए. और उस साक्ष्य को अदालत के समक्ष पेश करे. यदि ऐसा नहीं किया जाता है, तो इससे अभियोजन का पक्ष कमजोर हो जाता है. और संदेह का लाभ अभियुक्त को दिया जाना चाहिए.

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'कानूनी पागलपन' और ‘चिकित्सा पागलपन’ में अंतर

इस तरह के मामलों के लिए कानून में दो टर्म्स का इस्तेमाल होता है, 'कानूनी पागलपन' और ‘चिकित्सा पागलपन’. ‘चिकित्सा पागलपन’ उनके लिए इस्तेमाल होता है, जो मानसिक रूप से बीमार होते हैं. जबकि 'कानूनी पागलपन' का इस्तेमाल उनके लिए होता है, जो अपराध के वक्त मानसिक रूप से इतने डिस्टर्ब होते हैं कि वो स्थिति की वास्तविकता को समझ नहीं पाते.

वीडियो: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने तलाक के मामले में कॉल रिकॉर्डिंग मांगने पर क्या फैसला सुनाया है?

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