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मूवी रिव्यू – योद्धा

Yodha के एक सीन में Sidharth Malhotra कहते हैं कि इस पिक्चर का हीरो मैं हूं. ये एक लाइन इस पूरी फिल्म का सार है.

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'शेरशाह' की तरह 'योद्धा' को भी धर्मा ने प्रोड्यूस किया है.

Yodha
Director: Sagar Ambre & Pushkar Ojha
Actors: Sidharth Malhotra, Raashii Khanna & Disha Patani
Rating: 2 Stars (**) 

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Sidharth Malhotra की फिल्म Yodha में एक डायलॉग है, जहां सिद्धार्थ का किरदार अरुण एक आतंकी को पीटने के बाद कहता है - “तू भूल गया कि इस पिक्चर का हीरो मैं हूं”. ये एक लाइन पूरी फिल्म को बांधने के लिए पर्याप्त है. ये सुनते ही सिद्धार्थ के सारे शॉट्स दिमाग में आते हैं. उनके किरदार के हाथ में गोली लगी है, लेकिन वो जोर लगाकर कुछ उखाड़ने की कोशिश कर रहा है. तब कैमरा का बांह प्रेम खुलकर बाहर आता है. हम लगातार उनके बाइसेप्स के शॉट्स देखते हैं. ऐसे ही एक जगह वो डाइव मारकर एक्शन कर रहे हैं. दूसरी तरफ एक पाकिस्तानी सैनिक खुले मुंह के साथ विस्मय में उन्हें देख रहा है. मानो सोच रहा हो कि ये क्या बंदा है यार. फिल्म आपसे यही रिएक्शन चाहती है, मगर अपनी इस कोशिश में बुरी तरह फेल होती है. 

एक्शन फिल्म को एलिवेट करने का काम उसके लार्जर दैन लाइफ मोमेंट्स करते हैं. लेकिन वो फिल्म सिर्फ इन चंद पलों को पहिया बनाकर नहीं चल सकती. उसे कहानी नाम के फेविकोल से ही जोड़ा जा सकता है. योद्धा के साथ ऐसा नहीं है. कहानी में खामियां बताने से पहले उसके बारे में बताते हैं. अरुण योद्धा नाम की एक स्पेशल टास्क फोर्स का हिस्सा है. ये टास्क फोर्स उसके पिता ने शुरू की थी. कहानी शुरू होती है साल 2001 से. एक फ्लाइट हाईजैक हो जाती है. अरुण भी उस प्लेन में सवार है. उसके साथ ही एक बड़े न्यूक्लियर साइंटिस्ट भी उस फ्लाइट में मौजूद हैं. उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी अरुण पर है. लेकिन वो अपने मिशन में फेल हो जाता है. सरकार एक्शन लेती है और योद्धा को खत्म कर देती है. 

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‘योद्धा’ के एक एक्शन सीन में सिद्धार्थ मल्होत्रा.

कहानी कुछ साल आगे बढ़ती है. फिर एक फ्लाइट टेक ऑफ करने वाली है. अरुण उसमें सवार है. वो भी हाईजैक होती है. लेकिन इस बार शक के घेरे में अरुण खुद है. वो पूरी स्थिति समझकर लोगों की जान बचा पाएगा या नहीं, और इस सब का मास्टरमाइंड कौन है, आगे यही फिल्म की कहानी है. ‘योद्धा’ एक एक्शन-थ्रिलर फिल्म है. इस स्केल की फिल्म लार्जर दैन लाइफ मोमेंट्स से लबरेज़ होती है. आप हीरो की जर्नी फॉलो करते हैं. उसकी कहानी में इंवेस्टेड रहते हैं. फिर जब वो सभी मुश्किलों से लड़कर खड़ा होता है तो आप वहां लॉजिक भुला बैठते हैं. आप उसकी जीत को सेलिब्रेट करते हैं. तालियां पीटते हैं. ये मोमेंट्स अपने आप आते हैं. ‘योद्धा’ के साथ दिक्कत ये है कि यहां वो मोमेंट ज़बरदस्ती घुसाने की कोशिश की गई है. आप हीरो की कहानी से जुड़ाव महसूस नहीं करते. ऐसे में वो जब कुछ अद्भुत करता है, तो ऐसा लगता है कि लोगों का रिएक्शन पाने के लिए ही ऐसे सीन डाले गए हैं. वो ऑर्गनीकैली नहीं आते. 

‘योद्धा’ सिर्फ अपने हीरो को केंद्र में रखती है. बाकी सब बस उसकी दुनिया का हिस्सा है. दिक्कत ये है कि फिल्म अपने हीरो के इमोशन में भी ठीक से इंवेस्ट नहीं कर पाती. उसकी ज़िंदगी का सबसे मुश्किल दौर आया. जिस लड़की से प्यार करता था, उससे दूर होना पड़ा. सरकारी मंत्रालयों के चक्कर काटते-काटते उम्मीद की किरण क्षीण पड़ गई. उसकी ज़िंदगी और मन में तूफान उठ रहा है. फिल्म इतना सब कुछ बस एक गाने में निकाल देती है. आप अपने हीरो को उसके घुटनों पर आते हुए देख ही नहीं पाते. ‘किस्मत’ नाम से एक पॉपुलर पंजाबी गाना है. फिल्म में यहां उसी का रेंडिशन इस्तेमाल किया गया. गाने के ज़रिए किरदार की इमोशनल जर्नी ट्रैक करना बहुत आलसी-सा लगता है. 

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एंड तक फिल्म इतना फैल जाती है कि उसे समेटना बहुत मुश्किल हो जाता है. 

इमोशन के स्तर पर कमज़ोर होने का नुकसान एक्टिंग पक्ष को भी मिलता है. सिद्धार्थ मल्होत्रा का सबसे मज़बूत पक्ष उनकी एक्टिंग नहीं. बाकी राशि खन्ना और दिशा पाटनी के हिस्से भी एक्स्ट्रा-ऑर्डनेरी किस्म के सीन नहीं आए. दिशा और सिद्धार्थ का काम कुछ एक्शन सीक्वेंसेज़ में निखरकर आया है. वहीं सनी हिंदुजा टिपिकल विलन बने हैं, जो जीभ पर ज़ोर लगाकर अपने डायलॉग बोलता है. वो ऐसा किरदार है जिसे आप पहले भी दसियों बार देख चुके हैं. फिल्म के कई सारे सीक्वेंसेज़ को देखकर भी यही दिमाग में आता है, कि ये तो कहीं सुनेला और देखेला लग रहा है. 

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ऐसा नहीं है कि ‘योद्धा’ में सिर्फ खामियां ही हैं. बस वो अच्छी बातों से ज़्यादा हैं. बाकी फिल्म के एक्शन सीक्वेंसेज़ को सही तरीके से कोरियोग्राफ किया गया है. खासतौर पर हैंड-टू-हैंड कॉम्बैट सीन. फिल्म के शुरुआत में एक सीन है जहां अरुण कुछ आतंकियों से अकेला लड़ रहा होता है. उस सीन को ऐसे एडिट किया गया है कि जैसे वो सिंगल टेक में शूट किया गया हो. हालांकि कुछ पॉइंट्स पर समझ आने लगता है कि कैमरा कहां कट हुआ है. लेकिन फिर भी स्मूद एडिटिंग की वजह से वन टेक वाली फील बनी रहती है. ‘योद्धा’ को अगर ज़बरदस्ती लार्जर दैन लाइफ फिल्म बनाने की जगह स्टोरी में इंवेस्ट किया गया होता, तो ये एक तगड़ी फिल्म बन सकती थी.                                    
 

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