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जो आशा और ANM वर्कर्स पूरे गांव की सेहत संभालती हैं, वो असल में हैं कौन?

दी लल्लनटॉप ने इनसे बात की.

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तस्वीर 6 मई की है. जगह- बेंगलुरू. ये आशा वर्कर हैं. कोरोना वॉरियर के तौर पर जुटी हैं. जब एक गली में पहुंचीं, तो लोगों ने फूल बरसाकर स्वागत किया. (फोटो- PTI)
12 मई को वर्ल्ड नर्सिंग डे था. नर्स शब्द सुनते ही, हमारे दिमाग में तस्वीर आती है शहरी अस्पतालों की नर्सों की. लेकिन भारत गांवों का देश है. और दो लोग हैं, जो भारत के गांव-कस्बों में नर्सिंग का काम संभाल रही हैं – आशा वर्कर्स और एएनएम वर्कर्स. दी लल्लनटॉप ने नर्सिंग डे के मौके पर इनसे बात की और जाना कि वो कैसे काम करती हैं. काम के दौरान उन्हें किन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.
सबसे पहले जान लेते हैं कि आशा और एएनएम वर्कर्स एक दूसरे से अलग कैसे हैं और उनकी भर्ती कैसे होती है?

#आशा वर्कर्स

Accredited Social Health Activist यानी आशा (ASHA).
आशा वर्कर यानी गांव की हेल्थ वॉरियर. पद केंद्र सरकार के अधीन होता है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) के अंतर्गत आशा वर्कर की नियुक्ति गांव स्तर पर होती है. NHM लोगों की सेहत से जुड़ी तमाम जानकारियां और योजनाएं बनाता है. इन बेसिक जानकारियों को ग्रामीणों तक पहुंचाने और सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं का लाभ उन्हें दिलवाने का काम होता है आशा कार्यकर्ताओं का. ये मुख्य रूप से महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर काम करती हैं. पूरे गांव में कौन महिला प्रेग्नेंट है, किनके घर में छोटा बच्चा इसकी पूरी जानकारी आशा वर्कर्स रखती हैं. ये उन्हें प्रेग्नेंसी, पीरियड, टीकाकरण, ब्रेस्टफीडिंग से जुड़ी जानकारियां देती हैं, जरूरत पड़ने पर गांव के लोगों को अपने साथ अस्पताल भी लेकर जाती हैं. एक तरह से इन्हें गांव की फर्स्ट एड पर्सन कहा जा सकता है.
आशा वर्कर बनने के लिए जिला स्तर पर 18 महीने की ट्रेनिंग दी जाती है.

#एएनएम वर्कर्स

Auxiliary Nurse Midwife. यानी एएनएम वर्कर्स.
ये आशा वर्कर्स की सुपरवाइज़र के तौर पर काम करती हैं. एएनएम की गाइडलाइंस के मुताबिक आशा वर्कर आंगनबाड़ी केंद्रों की व्यवस्था दुरुस्त कराती हैं. आशा वर्कर्स की कहां ज़रूरत है, ये एएनएम ही तय करती हैं. आशा वर्कर्स की हर साल-डेढ़ साल में छोटी-छोटी ट्रेनिंग कराना. उनके भत्ते, तनख़्वाह वगैरह का ध्यान रखना.
अब इनके काम को और बेहतर और बेसिक तरीके से समझने के लिए हमने देश के अलग-अलग राज्यों से कुछ आशा और एएनएम वर्कर्स से बात की. सबसे कुछ कॉमन बातों के इर्द-गिर्द बात की:
# काम की शुरुआत कब और कैसे की? ट्रेनिंग कैसी रही?
# काम का स्ट्रक्चर, परेशानियां, अनुभव.
# तनख़्वाह.
# काम के बीच परिवार.
# कोरोना के पहले और अब के काम में बदलाव.

“खाना छोड़कर लोगों को ORS घोल देने तक गई हूं”

नाम – यशोदा वर्मा
काम – आशा वर्कर
जगह- गर्दाभंवर, राजनादगांव, छत्तीसगढ़
यशोदा 2005 से ही आशा के तौर पर काम कर रही हैं. पढ़ाई आठवीं तक ही थी. तो उन्हें तो ये पता नहीं था कि आशा वर्कर जैसा भी कोई काम होता है, गांव के एक स्वास्थ्य शिविर में जानकारी मिली. किसी के कहने पर कर लिया. तबसे काम सीखती गईं. पहली ट्रेनिंग 18 महीने की थी. यशोदा बताती हैं,
“हमें तो तब बस ये पता था कि काम है. कुछ पैसा मिलेगा. गृहस्थी में पति का हाथ बंटेगा. पहली ट्रेनिंग में बस इतना ही समझ आया था कि कुछ-कुछ दिन में मीटिंग होंगी. मीटिंग में जो बातें बताई जाएंगी, उन्हें घर-घर जाकर बताना है. लेकिन फिर हर साल होने वाली मीटिंग में नई-नई बातें पता चलती रहीं तो जानकारी बढ़ती रही. साल में एक बार होती है सात दिन की मीटिंग.”
यशोदा को फिलहाल तीन हज़ार रुपए तनख़्वाह मिल रही है. घर में सास, पति और दो बच्चे हैं. घर और काम को किस तरह संभालती हैं? जवाब आता है,
“ऐसे भी मौके आए हैं, जब हम घर में खाना बना रहे थे. फोन आ गया कि किसी को उल्टियां आ रही हैं. लोग घबरा जाते हैं. अपने घर में काम छोड़कर हम वहां गए हैं. ओआरएस का घोल दिया है. फिर आए हैं वापस. गांव में 70 घर हैं. सबके पास मेरा फोन नंबर है.”
इस वक्त काम बदल गया है. यशोदा कहती हैं –
“बाकी अभी तो यही काम है कि गांव के केंद्र पर जो भी लोग आ रहे हैं उन्हें हाथ धोने का तरीका बताना है. मास्क देने हैं. उनको बताना है कि 28 दिन यहीं रहना है आपको.”

“लोगों को घर से पकड़-पकड़कर टीका लगवाने लाती थी”

नाम – रत्ना पयासी
काम – आशा वर्कर
जगह – दुरिहा, मऊगंज, मध्यप्रदेश
रत्ना ने अभी 2014-15 से ही आशा के तौर पर काम शुरू किया है. घर में पति हैं. दो बच्चे हैं. बेटा 24 साल का. बिटिया 11 साल की. कहती हैं,
“जब काम शुरू किया तो मुझे बस टीकाकरण कैंप लगने के वक्त बुलाया जाता था. एक कैंप के 150 रुपए मिलते थे. घर-घर जाकर लोगों को पकड़-पकड़कर लाना रहता था कि चलिए जच्चा-बच्चा को टीका लगवा लीजिए. धीरे-धीरे काम बढ़ता गया. एक भी ट्रेनिंग कैंप आज तक छोड़ा नहीं है. हर काम सीखा है. अब हमारे गांव में कोई भी दाई से डिलिवरी नहीं कराता. जो कि अच्छी बात है. आज गांव में कोई भी महिला माहवारी, गर्भनिरोधक के गलत इस्तेमाल की वजह से बीमार नहीं होती. इसे मैं अपने लिए बड़ी बात मानती हूं.”
रत्ना ने ये भी बताया कि रोज़ के काम में आशा को क्या-क्या समस्याएं आती हैं.
“किसी महिला की डिलिवरी हुई. अब उसे गांव के स्वास्थ्य केंद्र से डिस्चार्ज होना है. हम आशा चार-चार, पांच-पांच बार जिले के सरकारी अस्पताल भाग-भागकर जाती हैं सिर्फ डिस्चार्ज स्लिप बनवाने. आप ही बताइए. ये तो ऐसा काम है, जिसमें मेहनत बचाई जा सकती है! दो हज़ार रुपए मिलते हैं. लोगों की सेहत से जुड़ा काम है, मदद करने वाला काम है. इसलिए करते हैं. लेकिन व्यवस्था तो अच्छी की जा सकती है.”

“इकॉनमिक्स से ग्रेजुएशन किया है, पीजी करना चाहती हूं”

नाम – शबाना
काम – आशा
जगह – मोहननगर, सतारा, महाराष्ट्र
2010 में शबाना का ग्रेजुएशन पूरा हुआ था. इकॉनमिक्स से. घर के हालातों के चलते तुरंत काम की ज़रूरत थी. इसलिए आशा के तौर पर काम में लग गईं. पहली ट्रेनिंग की एक बात शबाना को आज तक याद है.
“अस्पताल और लोगों के बीच का द्वार है आशा.”
शबाना बताती हैं –
“पहली ट्रेनिंग के बाद महीने के 150 रुपए मिलते थे. अब 5 हज़ार रुपए तक मिल जाते हैं. अच्छी बात ये है कि अब हमारे गांव में हर कोई बेसिक बातें जानता है. ऐसा भी नहीं है कि ओआरएस का घोल देने के लिए कोई फोन कर दे. गर्भवती महिलाओं को भी मैं शुरू से ही सब जानकारी देकर रखती हूं. अब तो इतनी जानकारी हो गई है कि छोटी-मोटी दवाएं लोगों को बता सकती हूं. आंगनबाड़ी में भी समय पर मीटिंग होती है, लोग शिरकत करते हैं. एक बार आपने थोड़ी मेहनत करके लोगों तक जानकारियां पहुंचा दीं तो आपका आगे का काम काफी आसान हो जाता है.”
शबाना बताती हैं कि गांव में क्वारंटीन की व्यवस्था अच्छी बनी है. जो भी बाहर से आता है, उसे फौरन मास्क देकर, बेसिक हाईजीन की ट्रेनिंग देकर क्वारंटीन किया जाता है. शबाना अब पीजी करना चाहती हैं. लेकिन कहती हैं- मुश्किल लगता है अब.
Asha 2 आशा वर्कर्स को महीने के दो से पांच हज़ार रुपए ही मिलते हैं. (फाइल फोटो- India Today)

आशा से जुड़ी ये दो बातें नाम न छापने की शर्त पर पता चलीं..
# महाराष्ट्र की ही एक आशा वर्कर ने बताया कि उन्हें गांव के बाहर से आ रहे लोगों को कोरोना प्रोटोकॉल्स सिखाने और क्वारंटीन कराने की ज़िम्मेदारी तो मार्च से ही दे दी गई थी. लेकिन मास्क जैसी बेसिक चीज अब जाकर मई में मिली है. 7-8 दिन पहले.
आशा वर्कर्स को घर-घर भेजा जा रहा है. कोरोना से जुड़े सर्वे करने. ये पूछने कि कोई कहीं बाहर आया-गया तो नहीं? हाईजीन रख रहे हैं कि नहीं? और इस सर्वे के लिए कितना पैसा मिल रहा है- 30 रुपया प्रति दिन.

# उलझा हुआ है आशा का सैलरी स्ट्रक्चर

आशा वर्कर्स से बात करके जो दिक्कतें सामने आईं, वो हमने चीफ मेडिकल ऑफ़िसर (CMO) साब के सामने रखी. सतारा के सीएमओ सुशील माने का कहना है –
“आशा वर्कर्स की तनख़्वाह तो केंद्र से ही आती है, उस पर हमारा ज़ोर नहीं है. आशा के काम की रिपोर्ट भी आशा सुपरवाइज़र बनाकर भेजती हैं. उसमें भी कुछ नहीं कह सकते. बाकी अभी कोरोना सर्वे का काम कराया जा रहा है, लेकिन उसका भत्ता अभी तय नहीं हुआ है. ऊपर से तय हो गया हो तो हमें पता नहीं है.”
फिर हमारी बात हुई बिहार के कई गांवों में बतौर सीएमओ काम संभाल चुके उपेंद्र सिन्हा से. उपेंद्र अब रिटायर हो चुके हैं. लेकिन उन्होंने कुछ ज़रूरी बातें बताईं. बोले –
“आशा की तनख़्वाह का मुद्दा बहुत बड़ा और पेंचीदा है. पैदा रिलीज़ होता है केंद्र से. वितरित करने का सिस्टम राज्य देखता है. आशा का काम, उनकी रिपोर्ट आशा सुपरवाइज़र और एएनएम के हाथ में होती है. आशा का काम लगातार बढ़ा है. पहले तो सिर्फ पीएचसी (प्राइमरी हेल्थ सेंटर) के काम देखने रहते थे. अब एडिशनल पीएचसी भी बना दिए गए हैं. रही बात हाईजीन की, तो मास्क होगा, तब न देंगे.”

“लोगों से बोलो- क्वारंटीन, तो कहेंगे- मैडम, हमें कुछ नहीं हुआ है”

नाम – अनीता
काम – एएनएम
जगह – कांसरडा, सीकर, राजस्थान
2009 में अनीता ने 12वीं पास किया था. फिर मौसा जी ने एएनएम के बारे में बताया. सही लगा तो दाखिला लिया. दो साल की ट्रेनिंग होती है. पूरी की.
बताती हैं –
“शुरुआत छह हज़ार रुपए से हुई थी. 2016 में परमानेंट होने के बाद तनख़्वाह अच्छी होती गई. अभी 30 हज़ार करीब है. गांव में कुछ चीज़ों पर हमारा ख़ास फोकस है. जैसे- टीकाकरण, परिवार कल्याण और महिलाओं से जुड़ी समस्याएं. आशा भी एक्टिव हैं तो हमने आंगनबाड़ी में भी अच्छी व्यवस्था बना ली है. मीटिंग बुलाते रहते हैं. महिलाएं आती भी हैं.”
अनीता के दो बच्चे हैं. जुड़वा. पति आर्मी में हैं. वे बताती हैं –
“बच्चे अब सात साल के हैं तो उतनी दिक्कत नहीं होती. दिक्कत बस एक ही है. यहां से मेरा केंद्र 10 किलोमीटर है. रोज आना-जाना मिलाकर 20 किलोमीटर. फिर अब कोरोना के टाइम में तो क्वारंटीन करवाने भी जाना पड़ता है. जब भी गांव में कोई बाहर से आए, तो उसे हाईजीन और 14 दिन अकेले रहने की बात समझानी होती है. दिक्कत ये है कि लोग समझते नहीं. क्वारंटीन की बात कहो तो कहते हैं- मैडम, हमें ज़रूरत ही नहीं. हमें कुछ हुआ ही नहीं.”
आशा वर्कर्स कहती हैं कि हम इतने लोगों से मिलते हैं. न जाने कौन कोरोना से संक्रमित हो. लेकिन अब इससे डर तो नहीं सकते. एक-डेढ़ महीने के लिए घर भी नहीं छोड़ सकते. आते ही बच्चों से, पति से मिले बिना सबसे पहले ख़ुद को सैनिटाइज़ करते हैं. ऐहतियात बरत रहे हैं. मास्क से लेकर दूरी तक, सब. फिर भी 'आशा' कायम है.


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