Rating: 03 Stars
वॉर 2 रिव्यूः मैजिक को मारती मीडियॉकर राइटिंग (War 2 Review)
छैल छबीले Hrithik Roshan और NTR Junior की मुख्य भूमिकाओं से सजी ये स्पाय एक्शन थ्रिलर कैसी है, जाने इस विस्तृत War 2 Lallantop Review में:

बहुत कम फ़िल्में ऐसी होंगी जिन्हें देखकर ये न कहना पड़े - कि, एक्सपैक्टेशन ही मैजिक की मौत है. जिन फ़िल्मों को देख बड़े हुए, आनंदित हुए, जिन्होंने बचपन में दुनिया के तमाचों से, शोकों से, पीड़ाओं से बचाकर अपनी गोद में छुपाया, वे हमेशा जादू कर गईं. कोई एक्सपैक्टेशन उन्हें घटा न सका. खूब सिनेमा देख लेने के बाद बाला की "नान कडवल" ने फिर भी मैजिक किया. बल्कि बढ़ा चढ़ाकर तारीफ करके भी जिन जिन को दिखाई, उन सब पर भी मैजिक किया. आज भी अच्छा सिनेमा, इंगेजिंग सिनेमा, चाहे वो सिंपल से सिंपल स्टोरीटेिलंग ही क्यों न हो, वो आनंद देता है. ये सब कह देने के बाद, "वॉर 2" एक ऐसी फ़िल्म है जो मेरे यंगर सेल्फ को पसंद आ आती. मुझे हालांकि मैजिकल नहीं लगी. क्यों नहीं लगी? मुख्य वजह है - इसकी राइटिंग, जो औसत है. यहां तक कि दोयम दर्जे की है. कुछ नया या मौलिक आप देख रहे हैं, ऐसा नहीं लगता. बहुत कुछ, बहुत जगहों पर, बार बार देख चुके हैं, ऐसा लगता है. आप ऋतिक के स्टाइल और एक्शन, कियारा के सौंदर्य, जूनियर एनटीआर की स्टार पावर और आशुतोष राणा के भरोसेमंद अभिनय निर्वाह के लिए "वॉर 2" को देख सकते हैं. एक्शन दृश्य तारीफ के काबिल हैं, बांधे रखते हैं. सिर्फ एक्शन के लिए खासतौर पर ये फ़िल्म देख सकते हैं.
अपने नाम 'वॉर/युद्ध' को सिद्ध करने की तलाश में ये मूवी खुलती है, पहाड़ियों में बने एक शाओलिन टेंपल में. रात का वक्त है. आंगन में सामुराई लड़ाके और उनका कुख्यात लेकिन सज्जन सा लगने वाला हेड बैठा है. ख़ून के छींटों से रंगा एक आदमी बाहर से भागता आता है - कि हमला हो गया है, वॉर छिड़ गया है. मानो कोई सेना आ रही है. और क्षितिज पर उभरती है दो सम्मोहक आंखें. केवल एक पुरुष. वही अपने आप में सेना है, ये बात यहां बता दी जाती है. किसी सिद्ध शिल्पकार की विलक्षण छेनी-हथौड़ी से तराशी देह, हवा से लहराते बाल, केयरफ्री लेकिन सधी कदमचाल, ठंडा दिमाग, दांतों के एक कोने में फंसाई टूथपिक और बहुत सारा स्वैगर लिए एंट्री होती है कबीर धालीवाल की, जिसे ऋतिक रोशन ने पूरी प्रभावोत्पादकता से पूरी फ़िल्म में निभाया है. एक भेड़िया भी इस दौरान उसके साथ स्लो-मोशन में चल रहा होता है और इस तरह 'लोन वुल्फ' के इस रूपक को यहां लिट्ररल ही कर दिया जाता है. "लिट्रलिज़्म" का ये वही रोग है जो आज की बड़ी बड़ी फ़िल्मों को संसार में खाए जा रहा है. इसी का जिक्र प्रोफेसर नामवली सर्पेल ने "द न्यू यॉर्कर" मैगजीन में लिखे अपने आर्टिकल - The New Literalism Plaguing Today’s Biggest Movies में, हाल ही में किया था. इसमें उन्होंने "अनोरा", "द सब्सटेंस", "ग्लैडिएटर 2", "मेगलोपोलिस", 'द अपरेंटिस" जैसी फ़िल्मों के जरिए, इस नए सरलीकरण की व्याधि पर बात की थी. हालांकि "वॉर 2" जैसी कमर्शियल हिंदी फिल्म को इससे छूट भी दी जा सकती है, अगर वो सरलीकरण दर्शक के लिए मैजिकल साबित हो जाए.
इस ओपनिंग सीन में कबीर उस कुख्यात आदमी को मारने आया है. उसे कॉन्ट्रैक्ट मिला है. क्योंकि हमें बताया गया है कि वो rogue / पथभ्रष्ट हो चुका है. इतना कि उसे पिता की तरह पालने व सोल्जर बनाने वाले 'रॉ' (आर एंड ए डब्ल्यू) के कर्नल लूथरा (आशुतोष राणा) उसके इस आचरण पर थूकते हैं. अब उस आंगन में 'युद्ध' छिड़ जाता है. ये सब खतरनाक लड़ाके तलवारबाजी की खास विधा में ट्रेन्ड हैं, लेकिन कबीर इनसे यूं लड़ता है मानो ये सब बच्चे हों, और कोई जरूरी नहीं कि इसे निर्देशक अयान मुखर्जी का अच्छा फैसला कहा जाएगा. ऋतिक यहां सामुराई तलवार भी ऐसे चलाते हैं जैसे 'द मास्क ऑफ ज़ोरो' में एंटोनियो बैंडारस ने अपनी पतली, नुकीली रेपियर तलवार चलाई थी. ये सब, इस पूरे ओपनिंग एक्शन सीक्वेंस को सुंदर लेकिन अनकन्विंसिंग बनाता है. आगे एक हैरतअंगेज और असंभव एक्शन को अंजाम देते हुए कबीर अपना कॉन्ट्रैक्ट पूरा कर लेता है और उस आदमी को मार देता है.
यहां कहानी एक भयावह घटनाक्रम की ओर बढ़ती है. कबीर कुछ ऐसा ग़लत काम करता है कि 'रॉ' उसने मारने के लिए उसी की टक्कर के एक एजेंट को भेजती है. एजेंट विक्रम (एटीआर जूनियर). विक्रम को भी कबीर के जैसा ही एक नायाब एक्शन सीक्वेंस भरा इंट्रो दिया जाता है जिसमें वो एक असंभव सा रेस्क्यू मिशन करता है. इस एक्शन के कुछ तत्व "RRR" के एक्शन को भी रिज़ेबल करते हैं.
कबीर धालीवाल ऐसा एजेंट है जिसे दुनिया का सबसे खतरनाक कार्टेल - द कलि कार्टेल बहुत डेस्परेटली चाहता है, कि वो उनके लिए काम करे. कलि-कल्कि की प्राचीन भारतीय पौराणिक कथा से आया ये नाम है. हैरानी की बात है कि दुनिया के कई देशों का ये संगठन भला ऐसा भारतीय नाम क्यों रखेगा. ख़ैर, दुनिया में इतने देश हैं, इतने काबिल एजेंट हैं, मर्सेनरी हैं, भाड़े के हत्यारे हैं, प्राइवेट डिफेंस कॉन्ट्रैक्टर हैं, लेकिन उन्हें कबीर ही चाहिए. जैसा कि फ़िल्म शुरू में इशारा कर चुकी होती है कि एक कबीर पूरी सेना के बराबर है. उसे न तो किसी बैकअप की ज़रूरत है. न किसी डिजिटल एक्सपर्ट की जरूरत है जो उसके दुश्मनों के फोन या दूसरी चीजें ट्रेस कर सके, या फेस रेक्गनिशन जैसी चीजें यूज कर सके, कुछ भी ऐसा जो किसी एजेंट को फंक्शन करने के लिए बुनियादी होता है. न उसके पास कभी बटुआ दिखता है, न कैश दिखता है, न वो ऑफिस में अपने मिशन के खर्चों के बिल जमा कराता है, न ही उसके पास दूसरे ऐसे एसेट हैं जहां से पैसों की सप्लाई मिलती हो. यानी वो नीरज पांडे के स्पाय यूनिवर्स जैसा रियलिस्टिक बिलकुल भी नहीं है. बल्कि वो यशराज के स्पाय यूनिवर्स के ही 'टाइगर' जैसा भी नहीं है, जो सुबह घर के सिंपल कपड़ों में भगोना लिए दूधवाले से दूध ले रहा होता है और एक टिपिकल 'रॉ' एजेंट लगता है. कबीर कुछ कुछ 'मिशन: इम्पॉसिबल' फ़िल्मों के ईथन हंट की तरह है. बस एक छोटा सा दानवाकर अंतर ये है कि ईथन हंट किसी मज़दूर की माफिक मज़दूरी करता है. वो बेतहाशा भागने को अभिशप्त है. वो जी जान लगा देता है और उसके चेहरे की सारी नसें छटपटाकर लोच खाती हैं. और उसके लिए सारे मिशन इम्पॉसिबल हैं जिन्हें वो बहुत ही कठिनाइयों और युक्तियों के बाद, सिर्फ टीम वर्क और गुरुत्वाकर्षण के सम्मान से ही पूरा कर पाता है.
लेकिन फिर विरोधाभास ये है कि 'वॉर 2' के अंत में भारत के प्रधानमंत्री की जान बचाते हुए कबीर बार बार गच्चा खाता है और उसका बेसिक एंटीसिपेशन भी काम नहीं कर रहा होता है. जबकि नए 'रॉ' चीफ विक्रांत कौल (अनिल कपूर) और काव्या (कियारा) से पहले वही बोल चुका होता है कि उसके पास एक कारगर प्लान है.
यशराज के स्पाय यूनिवर्स की कहानियों की राइटिंग उसका सबसे कमज़ोर पहलू है. "वॉर 2" में छह जोरदार एक्शन सीक्वेंस हैं जिनके लिए छह एक्शन डायरेक्टरों को हायर किया गया. लेकिन फ़िल्म में छह सीटी बजाने वाले डायलॉग्स भी नहीं हैं. डायलॉग्स का बेस्ट स्तर कुछ यूं है - "ओल्ड फैशन्ड देशभक्त है, ये दुनिया के नए रूल्स नहीं समझ सकते", "देश के लिए कुर्बान होना एहसान नहीं हक है", "देशभक्ति सेहत के लिए हानिकारक है" और 'कलि को मारने के लिए कल्कि बनना पड़ेगा.' इस यूनिवर्स की कहानियों में ऑथेंटिसिटी की खासी कमी है. चाहे वे सेट पीस हों, एक्शन सीक्वेंस हों, मिशन हों, डायलॉग हों, सब ऐसी ही इंटरनेशनल फ्रैंचाइज़ से प्रेरित या पेस्ट लगते हैं. जैसे 'वॉर 2' के अंत में बर्फीली गुफा में कोई कबीर से कहता है - तुम शैतान हो. जो भी तुम्हारे पास आता है वो मारा जाता है. जो भी तुमसे प्यार करता है वो जिंदा नहीं बचता. चाहे राइटर्स की नीयत कितनी ही ईमानदार क्यों न रही है, पर ये डायलॉग इस्तेमाल हो होकर घिस चुका है. शुरू में जब विक्रम को लाया जाता है तो कबीर के शॉकिंग क्राइम को लेकर वो MICE का जिक्र करता है. जो कि क्राइम या काउंटर-इंटेलिजेंस में यूज़ होने वाला एक्रोनिम है. जिसका मतलब है - कि कोई भी व्यक्ति चार कारणों से अपराध करता है - Money, Ideology, Compromise या फिर Ego के चलते. एजेंट विक्रम की ये बात कुछ दर्शकों को नई जरूर लगेगा लेकिन ये सिर्फ एक्सपोज़र की बात है, क्योंकि प्रमुख सीरीज-फ़िल्मों में इसे कई बार लिखा जा चुका है.
मजबूत पहलू ये है कि इस स्पाय यूनिवर्स के एक्टर्स जो भी लिखा मिलता है उसे निभा ले जाते हैं. जितना जरूरी है वे दे जाते हैं.
"वॉर 2" का स्पाय तंत्र एक बॉलीवुड स्पाय तंत्र से ज्यादा कुछ नहीं हो पाता. पाकिस्तान में भारत के दुश्मनों को मारते 'अज्ञात गनमैन' को, एक मंत्री के परिवार पर आसमान में ही हमले के लिए यूज होने वाले बी-2 बॉम्बर सरीखे अमेरिकी विमान को (जिसका इस्तेमाल ईरान के परमाणु ठिकानों पर बम गिराने के लिए किया गया) और डायलॉग्स में "इंडिया फर्स्ट" के बारंबार दोहराव को छोड़ दें तो विश्व की मौजूदा जियोपॉलिटिक्स से अछूती ही इसकी कथा घटती है. जैसे कलि कार्टेल को ही लें जो दुनिया के ताकतवर और भ्रष्ट देशों के तत्वों का एक संगठन है, जो दुनिया को और भारत जैसे देशों को कंट्रोल करना चाहता है. इस फ़िल्म में कलि कार्टेल का पूरा फोकस भारत पर है. लेकिन फिर भी इस कार्टेल में तुर्किए जैसा शत्रुवत देश नहीं है लेकिन श्रीलंका जैसा या म्यांमार जैसा अशत्रुवत देश बैठा दिखता है. इसमें जो पाकिस्तानी, बांग्लादेशी या अमेरिकी प्रतिनिधि बैठे दिखते हैं वे भी डराते नहीं, न ही उनके संवादों में वर्तमान में बदल रहे ग्लोबल ऑर्डर का कोई संदर्भ भी दिखता है. इस कार्टेल में स्टेट एक्टर्स कम और नॉन-स्टेट एक्टर्स ज्यादा लगते हैं, जो ब्रूनो हेलर की बनाई पांच सीज़न वाली इंगेजिंग सीरीज़ 'गॉथम' के गोपनीय संगठन द कोर्ट ऑफ आउल्स के ज्यादा समरूप हैं, जिसमें गॉथम के सबसे धनी लोग अदृश्य ढंग से शहर को चलाते हैं. फर्क इतना है कि गॉथम वाला ये संगठन या दुनिया का कोई भी डीप स्टेट डराता है, 'वॉर 2' का ये कार्टेल डराता नहीं है. कथा में इनका ट्रीटमेंट खासा सतही है.
डायरेक्टर अयान मुखर्जी के ट्रीटमेंट में गुजरे जमाने की मसाला फ़िल्मों का थोड़ा स्पर्श है. अमिताभ भट्टाचार्य "जनाब-ए-आली" गाने में लिखते भी हैं - "घोल के अंग्रेजों वाली धुन में, थोड़ी सी कव्वाली.. जनाब-ए-आली." लेकिन उनके विलेन जगीरा डाकू, शाकाल, मोगैंबो, गब्बर जितने डरावने भी नहीं हो पाते. जो ग्रे कैरेक्टर एजेंट विक्रम चेलापति का है, वो कुछ कुछ सन्न करता है. चौंकाता है. लेकिन उसकी पर्सनैलिटी, प्रतिशोध, ड्राइविंग फोर्स में तारतम्यता, तार्किकता और आधार की कमी है. इस किरदार को निभाया भी जूनियर एनटीआर ने थोड़ा लाउड, चिर-परिचित अंदाज में है. विंग कमांडर काव्या के रोल में कियारा एक सुंदर स्त्री लगी हैं. कामुक. इससे ज्यादा वे कुछ नहीं लगी हैं. काव्या बड़े प्लेयर्स के बीच में दिखती है, अंत में थोड़ा सा एक्शन भी करती है लेकिन वो या तो एक आईकैंडी है या फिर कबीर के अतीत का एक जरूरी अध्याय है. एक सीन में उसका कोई करीबी मरता है और उसके दाह संस्कार के बाद के दृश्यों में वो अपने इस लॉस से बहुत जल्दी उबर गई दिखती हैं. ये जल्दबाजी भी राइटिंग से ही आई है. कर्नल लूथरा (आशुतोष राणा) और कबीर (ऋतिक) के पात्र इकलौते हैं जो श्रीधर राघवन और अब्बास टायरवाला की राइटिंग से इतर शून्य में ऑपरेट करते हैं. लिखावट जैसी भी है, उनका ऐसा अंगदी पैर जमता है कि दर्शक का मन रमा रहता है और इमोशनल रिएक्शन देता रहता है.
चाहे अविनाश सिंह राठौड़ (टाइगर) हो, जवान हो या कबीर हो या एजेंट विक्रम हो, इनकी अब तक आई छहों फ़िल्मों में राइटर्स सबसे कमजोर कड़ी साबित हुए हैं. वे कुछ फ्रैश न लिख सके. स्पाय जॉनर में कुछ वैसा मौलिक न ला सके जैसा “दृश्यम”, “अ वेडनसडे” या “मुन्नाभाई” जैसी फ़िल्में अपने जॉनर में लेकर आई थीं. इसीलिए अब तक यही हुआ है कि यशराज की स्पाय यूनिवर्स की हर फ़िल्म को देखकर थियेटर से निकलते हुए संतोष का भाव कभी नहीं रहा है. चूंकि इनमें एक्शन पर कड़ी मेहनत हुई और अभिनेताओं ने राइटिंग को संभाले रखा तो इन फ़िल्मों को खारिज नहीं किया जा सका, लेकिन इस मीडियॉक्रिटी को देखकर खीझ बढ़ती जाती है. आदित्य चोपड़ा अपने पिता यश चोपड़ा से संकेत ले सकते हैं - जिन्होंने इंडस्ट्री के प्रेशर और बॉक्स ऑफिस पर नुकसान की निश्चितता के बावजूद 1991 में "लम्हे" का बोल्ड क्लाइमैक्स नहीं बदला और फिल्म फ्लॉप रही. और उन्हें कभी पछतावा नहीं रहा क्योंकि फिल्म ने क्लासिक्स में अपनी जगह पक्की की. आदित्य अपनी राइटिंग टीम में फ्रैश और बोल्ड मस्तिष्कों को ला सकते हैं. "वॉर 2" के अंत में जिस अगली फ़िल्म "एल्फा" (द रेलवे मैन सीरीज़ वाले शिव रवैल डायरेक्टर हैं) का टीज़ दिया गया है, वो कुछ अलग स्वाद वाला लगता है, कुछ सॉलिड लगता है. लेकिन ये सिर्फ इस बात पर निर्भर करेगा कि आप कितना ऑथेंटिक और इनोवेटिव होने को तैयार हो. "एल्फा" में विलेन का रोल एक एक्साइटिंग कारनामा है. राइटिंग संभाल ले गए तो सब संभाल ले जाओगे.
Film: War 2 । Director: Ayan Mukerji । Cast: Hrithik Roshan, N. T. Rama Rao Jr, Kiara Advani, Ashutosh Rana, Anil Kapoor, Varun Badola, Bobby Deol (cameo) । Screenplay: Shridhar Raghavan । Dialogues: Abbas Tyrewala । Story: Aditya Chopra । Editor: Aarif Sheikh । Director of Photography: Benjamin Jasper । Action Directors: Spiro Razatos, Franz Spilhaus, Anl Arasu, Oh Sea Young, Craig Macrae, Sunil Rodrigues । Producer: Aditya Chopra । Run Time: 173 minutes । Watch at: Cinemas (Released on 14th August, 2025)
वीडियो: मूवी रिव्यू: अजय देवगन की 'रेड 2' पहले पार्ट से कैसे अलग है? कैसी है मूवी?