
सिद्धार्थ मल्होत्रा के करियर का ये सबसे बड़ा रोल है.
# ट्रीटमेंट कैसा है? फिल्म की प्लस साइड में ये बात फ़ौरन लिख डालिए कि ये फिल्म गुंजाइश होने के बावजूद ओवर द टॉप नहीं होती. और ये सबसे बड़ी राहत है. वरना ऐसी फिल्मों में 'अननेसेसरी चेस्ट थंपिंग' अनिवार्य समझती रही है हिंदी फिल्म इंडस्ट्री. यहाँ ये फैक्टर नहीं है और इससे फिल्म खूबसूरत लगने लगती है. एक दो जगह ऐसे डायलॉग आते भी हैं, तो भी एक्टर्स की टोन, उस गैरज़रूरी एग्रेशन को बैलेंस आउट कर देती है. और इस वजह से कही जा रही बात प्रभावी लगने लगती है. नकली या फ़िल्मी नहीं लगती. ये 'शेरशाह' का सबसे बड़ा प्लस पॉइंट है.
फिल्म के कुछेक संवाद बेहद अच्छे हैं. कुछ तो ऐसे हैं कि भले भी लगते हैं और समझदार भी. जैसे एक सीन में कैप्टन विक्रम बत्रा अपने साथियों से कश्मीरियों का भरोसा फ़ौज से न उठने देने की बात करते हैं. या फिर वो सीन, जहाँ एक कश्मीरी किशोर अपने पिता से कहता है,
"दहशतगर्दों की मदद करके मरने से बेहतर है, फ़ौज की मदद करते हुए मरना."फ़ौजियों की आपसी बॉन्डिंग के सीन भी अच्छे बने हैं. उनका एक-दूसरे के साथ कनेक्शन महसूस होता है और अच्छा लगता है.

'शेरशाह' भारतीय सेना की एक शानदार उपलब्धि की कहानी है.
फिल्म के साथ एक और अच्छी बात ये है कि ये 'सिनेमैटिक लिबर्टी' नाम के टूल का गलत इस्तेमाल करने से बचती है. इस एक टूल के सहारे अतीत में भयानक ब्लंडर किए हैं हमारी सिनेमा इंडस्ट्री ने. ऐसी-ऐसी चीज़ें दिखाई हैं जिनका असली कहानी से दूर-दूर तक वास्ता नहीं था. 'शेरशाह' इस मोह से खुद को बचा ले जाती है. कैप्टन विक्रम बत्रा की ज़िंदगी के उपलब्ध तथ्यों के इर्द-गिर्द ही रहती है फिल्म. इस एक समझदारी भरे काम के लिए मेकर्स को अलग से धन्यवाद. # फ़ौजी की लव स्टोरी अमूमन ऐसी फिल्मों में 'लव ट्रैक' भयानक मिस-प्लेस्ड लगता है. कई बार तो फिल्म की स्पीड में बाधक भी साबित होता है. 'शेरशाह' में ऐसा नहीं है. कैप्टन विक्रम बत्रा की प्रेम कहानी उनकी ज़िंदगी का अहम हिस्सा है. इससे हमें एक फ़ौजी के वर्दी उतारने के बाद के जीवन को समझने में थोड़ी मदद मिलती है. ये ट्रैक हमें कैप्टन विक्रम बत्रा की निजी ज़िंदगी में झाँकने का मौक़ा देता है. और भावुक तो करता ही है. विक्रम का डिंपल से ये कहना कि चार नहीं चालीस साल साथ बिताएंगे, इस हकीकत की रोशनी में हॉन्ट करता है कि ऐसा असल में हो न सका. बस स्टॉप पर उनकी आखिरी मुलाक़ात भी दर्शकों के लिए एक असहज करने वाला सीन है. सबको पता होता है कि ये बंदा अब वापस नहीं लौटेगा. सिवाय डिंपल के.

सिद्धार्थ और कियारा की ऑन स्क्रीन केमिस्ट्री अच्छी लगी है.
# आंसू वाले मोमेंट्स ‘शेरशाह’ एक रियल लाइफ ट्रेजेडी है. ज़ाहिर है इसमें कई इमोशनल मोमेंट्स होने ही थे. चाहे विक्रम-डिंपल की आख़िरी मुलाक़ात हो, विक्रम की शहादत वाला सीन हो या उनके राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार वाले सीन्स. भावुक होने के लिए पर्याप्त स्पेस है. लेकिन मेरा पसंदीदा सीन कोई और है. उस मोमेंट में एकदम गले में कुछ फँसता हुआ महसूस हुआ. अपने पहले मिशन में विक्रम बत्रा को कामयाबी मिली है. उन्होंने और उनकी टीम ने पाकिस्तान से एक पॉइंट छुड़ा लिया है. विक्रम बत्रा का प्रमोशन हो गया है और उसके बाद एक जर्नलिस्ट उनका इंटरव्यू करती है. ये इंटरव्यू विक्रम के घर वाले भी देख रहे हैं. सब इकट्ठा हैं. विक्रम को टीवी पर देखकर उनकी माँ लरज़ती आवाज़ में बोलती है,
"देख-देख कैसे दाढ़ी-वाढ़ी बढ़ा रखी है इसने."प्योर इमोशन. भावनाओं की धूप-छाँव ऐसे ही किसी सीन से झलकती है. ना कि एक्स्ट्रा एफर्ट डालकर लिखे गए आर्टिफिशियल संवादों से.
क्लाइमैक्स में बजने वाले गीत की दो पक्तियां तो बेहद पावरफुल लगती हैं.
"जो तू न मिला मानेंगे वो दहलीज़ नहीं होती रब नाम की यारा यहाँ कोई चीज़ नहीं होती."# क्या एक्टर्स ने न्याय किया? अब सवाल ये कि इस कमाल कहानी के साथ क्या एक्टर्स ने न्याय किया है? तो इसका जवाब हाँ में ही दिया जाना चाहिए. ये फिल्म सिद्धार्थ मल्होत्रा के करियर की बिलाशक सबसे बड़ी फिल्म है. वो इस रोल को निभा ले गए हैं. चाहे वर्दी में दुश्मनों से भिड़ जाता जांबाज़ फ़ौजी विक्रम बत्रा हो, या ऊँगली काटकर डिंपल की मांग भरता फ़िल्मी आशिक विक्रम बत्रा, उन्होंने सब कन्विंसिंग ढंग से किया है. कियारा अडवाणी भी डिंपल के रोल में परफेक्ट लगी हैं. चाहे पंजाबी एक्सेंट में बोलना हो या पिता के सामने डटकर खड़े होने वाले सीन, वो हर जगह शाइन करती हैं. बाकी कास्ट भी उम्दा है. शिव पंडित लेफ्टिनेंट संजीव जामवाल की भूमिका में चमकते हैं. यही बात निकितिन धीर, अभिरॉय सिंह, अनिल चरणजीत और साहिल वैद के बारे में भी कही जा सकती है. लेफ्टिनेंट कर्नल वाई के जोशी का रोल करने वाले शतफ फिगार को स्पेशल मेंशन देना होगा. वो पक्के फ़ौजी कर्नल लगे हैं.

'शेरशाह' एक डीसेंट फिल्म है. सब्जेक्ट और फिल्म इंडस्ट्री का इतिहास देखते हुए ये राहत की बात है.
फिल्म की सिनेमेटोग्राफी अच्छी है. कमलजीत नेगी ने अच्छा काम किया है. युद्ध के दृश्य अच्छे बन पड़े हैं. डायरेक्टर विष्णु वर्धन तमिल सिनेमा में अच्छा काम करते रहे हैं. ये उनका हिंदी में डेब्यू है. वो एक महा-पॉपुलर कहानी के साथ काफी हद तक न्याय कर पाए हैं. उनसे और बेहतर की उम्मीद रहेगी.
एक और चीज़ मेंशन करने के काबिल है. फिल्म ख़त्म होने पर सभी किरदारों के असली फ़ोटोज़ दिखाए जाते हैं. सिवाय डिंपल के. उनकी प्राइवेसी का ख़याल रखा गया है. ये मेकर्स का काफी समझदारी भरा फैसला लगता है. इसके लिए उनको विशेष शुक्रिया.
कुल मिलाकर हमारा फाइनल टेक यही है कि 'शेरशाह' कोई महान फिल्म नहीं है लेकिन लेट डाउन भी नहीं है. देखी जा सकती है.