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मूवी रिव्यू - सरज़मीन

कैसी है पृथ्वीराज सुकुमारन, काजोल और इब्राहिम अली खान की फिल्म 'सरज़मीन', जानने के लिए रिव्यू पढ़िए.

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बतौर डायरेक्टर ये कायोज़े ईरानी की पहली फिल्म है.

Sarzameen 
Director: Kayoze Irani
Cast: Prithviraj Sukumaran, Kajol, Ibrahim Ali Khan
Rating: 1.5 Stars  

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‘सरज़मीन’ की कहानी कश्मीर में घटती है. साल है 2006. पृथ्वीराज सुकुमारन का किरदार कर्नल विजय मेनन एक आदर्शवादी किस्म का आदमी है. उसके लिए अपने देश से ऊपर कुछ भी नहीं है. अपनी पत्नी मेहर और बेटे हरमन के साथ रहता है. सत्तर के दशक से हिंदी सिनेमा में विजय नाम का एक मतलब सेट हो चुका है. ये विजय भी ऐसा ही है. सब कुछ सही करता है. बस एक अच्छा पिता नहीं है. बेटे हरमन को बोलने में दिक्कत होती है. उस वजह से विजय को अपने बेटे पर शर्म आती है. वो चाहता है कि उसका बेटा रफ एंड टफ बने ताकि किसी दिन आर्मी में जा सके.

हरमन अपने पिता को इम्प्रेस करने के लिए सब कुछ करता है, मगर पिता मानने को राज़ी नहीं होता. कहानी आठ साल आगे बढ़ती है. इस बीच बहुत कुछ होता है, जिसे बताना स्पॉइलर होगा. मगर अब विजय और हरमन एक-दूसरे के सामने खड़े हैं. विजय अपने फर्ज़ के लिए कुछ भी करने को तैयार है. वहीं हरमन को बस अपना बदला चाहिए. दोनों पिता-बेटे के इस मतभेद की वजह से क्या-कुछ होता है, यही फिल्म की कहानी है.

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‘सरज़मीन’ में पृथ्वीराज ने एक आदर्शवादी आर्मी ऑफिसर का रोल किया है. 

साल 1982 में सलीम-जावेद की फिल्म ‘शक्ति’ आई थी. वहां भी एक पिता और बेटे के मतभेद की कहानी थी. वो एक मज़बूत फिल्म थी. ‘सरज़मीन’ को देखते हुए कुछ मौकों पर ‘शक्ति’ याद आती है. कि कैसे बेटे को पिता के खिलाफ किया जाता है. ‘शक्ति’ कागज पर मज़बूत कहानी होने के साथ-साथ उतनी ही अच्छी फिल्म भी है. ‘सरज़मीन’ के केस में ऐसा नहीं कहा जा सकता. ‘सरज़मीन’ का स्टोरी आइडिया सुनने में भले ही रोचक लगता है. लेकिन उसका स्क्रीनप्ले उतना ही लचर है, और डायरेक्शन भी फिल्म की कोई मदद नहीं करता.

फिल्म अच्छे नोट पर शुरू होती है, लेकिन जल्द ही कन्फ्यूज़ हो जाती है. उसे ये समझ नहीं आता कि कहानी का मेन कन्फ्लिक्ट क्या है. क्या वो पिता और बेटे के मतभेद को अपनी थीम बनाना चाहते हैं. या फिर ये कश्मीर और आतंकवाद की कहानी है. शुरू में ही आपको बता दिया जाता है कि ये कहानी कश्मीर में सेट है. लेकिन फिल्म खत्म होने तक ये साफ नहीं होता कि कश्मीर को बैकड्रॉप क्यों बनाया गया. अगर ये कहानी कहीं और भी घटती, तो भी कुछ फर्क नहीं होता. ‘सरज़मीन’ के साथ एक सबसे बड़ा मसला ये है कि फिल्म एक यूनिवर्सल थीम को लेकर भी उसे रिलेटेबल नहीं बना सकी. पिता और बेटे का मतभेद लगभर हर घर की कहानी है. उसके बावजूद भी 2 घंटे 17 मिनट की फिल्म में आप पिता या बेटे के लिए कुछ भी महसूस नहीं करते. आप उनके साथ सफर में शामिल नहीं हो पाते.

‘सरज़मीन’ का शुरुआती आधा घंटा आपको एन्गेज कर के रखता है. लेकिन उसके बाद फिल्म अपनी पकड़ पूरी तरह से छोड़ देती है. ये कहानी ऐसी थी जो गैर-ज़रूरी ड्रामेटाइज़ेशन की मोहताज़ नहीं थी. लेकिन ये मेकर्स ने नहीं समझा. स्लो मोशन शॉट डाले गए. सब्जेक्ट को एंटरटेनिंग बनाने के लिए उसकी बलि चढ़ाई गई. इस फिल्म को कायोज़े ईरानी ने डायरेक्ट किया है. इसी साल उनके पिता बोमन ईरानी की डायरेक्टोरियल डेब्यू ‘द मेहता बॉयज़’ रिलीज़ हुई थी. ‘द मेहता बॉयज़’ में जिस तरह का कैमरा वर्क किया गया, वो आपको कहानी में इंवेस्टेड रखता है. आपको बिना कुछ कहे किरदारों के बारे में दो बातें ज़्यादा बताता है. दूसरी ओर ‘सरज़मीन’ की सिनेमैटोग्राफी बड़ी फ्लैट है. कुछ फ्रेम्स के बीच में बस किरदार खड़ा है. बाकी स्पेस को वेस्ट हो जाने दिया. कुलमिलाकर ये फिल्म विज़ुअली कुछ नया ऑफर नहीं करती.

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इब्राहिम ने इस फिल्म में ‘नादानियां’ से बेहतर काम किया है.  

‘सरज़मीन’ के हर पहलू में कुछ-न-कुछ खामी है. जैसे ये फिल्म अपने एक्टर्स को परफॉर्म करने का स्पेस नहीं देती. जब भी कोई ऐसा सीन आए, जहां आप दो एक्टर्स के बीच की केमिस्ट्री देखना चाहें, तभी धम से बैकग्राउंड म्यूज़िक तेज़ हो जाता है. या फिर गाना आ जाता है. यही वजह है कि पृथ्वीराज सुकुमारन, काजोल और इब्राहिम अली खान का काम यहां ठीक-ठाक है. आप न उससे शिकायत कर सकते हैं, न ही कहने के कुछ लाजवाब है. हिंदी सिनेमा में कहानी को आगे बढ़ाने के लिए गानों का इस्तेमाल कोई नया नहीं, लेकिन बहुत ही कम फिल्में उसे नेरेटिव में सही से पिरो पाई हैं. दुर्भाग्यवश ‘सरज़मीन’ उन फिल्मों में नहीं गिनी जाएगी.

आप फिल्म देख रहे हैं. एक पॉइंट पर आकर आपका इंट्रेस्ट क्षीण पड़ने लगता है. ऐसे में मेकर्स को लगा कि अब एक ट्विस्ट आना चाहिए. आखिरी के आधे घंटे में जो ट्विस्ट आता है, वो आपको अपनी कमर सीधी करने पर मजबूर नहीं करता. बस आप यही सोचते हैं कि कोई सेंस था इस बात का. लेकिन जब इतने पाप हो गए, तो एक और सही. ‘नादानियां’ के बाद ये फिल्म इब्राहिम अली खान के लिए ज़रूरी थी. वो रोल के मुताबिक परफॉर्म भी करते हैं. बस उसमें कुछ अपना नहीं जोड़ पाते, क्योंकि फिल्म भी उन्हें ऐसा करने का कोई मौका नहीं देती.   
        
 

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