मराठी सिनेमा को समर्पित इस सीरीज़ 'चला चित्रपट बघूया' (चलो फ़िल्में देखें) में हम आपका परिचय कुछ बेहतरीन मराठी फिल्मों से कराएंगे. वर्ल्ड सिनेमा के प्रशंसकों को अंग्रेज़ी से थोड़ा ध्यान हटाकर इस सीरीज में आने वाली मराठी फ़िल्में खोज-खोजकर देखनी चाहिए.

..
आज की फिल्म है 'देऊळ'. देऊळ माने मंदिर.
हिंदुस्तान आस्थाओं का देश है. तरह-तरह के ईश्वरों से लेकर भभूत वाले साधुओं और ताबीज़ वाले मौलवियों का देश. यहां आस्था सर्वोपरि है. जंगल में सुनसान पड़ी किसी गुमनाम मज़ार से लेकर गांव की सरहद पर अचानक उग आए पीपल तक किसी भी चीज़ में लोगों की आस्था हो सकती है. लेकिन आस्था के साथ दो तरह की समस्याएं भी हैं. नहीं, हम वैज्ञानिकता की कसौटी पर परखने की बात नहीं कर रहे. वो एक अलग ही टेरिटरी है जिसे किसी और दिन के लिए छोड़ देते हैं. हम थोड़ी व्यावहारिक समस्याओं पर बात करेंगे. पहली तो ये कि आस्था जब तक निजी है तब तक ही काबिलेबर्दाश्त है. जब वो आपके घर की दहलीज़ लांघकर किसी और की ज़िंदगी को कंट्रोल करना चाहने लगती है, सारा मामला गड़बड़ा जाता है.
दूसरी विकट समस्या है इस आस्था का बाज़ारीकरण. आस्था जब बिज़नेस बन जाती है तो बड़े विचित्र नतीजे आते हैं. फिर श्रद्धा कहीं बैकग्राउंड में गुम हो जाती है और सेंटर स्टेज पर होने लगता है, एक बदसूरत तमाशा. इस दूसरी वाली समस्या पर ही तीखी टिप्पणी करती है हमारी आज की फिल्म 'देऊळ'.

फिल्म का पोस्टर.
एक छोटा सा गांव है. मंगरूळ. भारत के लाखों गांवों जितना ही साधारण. वही बिजली, सड़क, पानी की समस्याएं. वैसे ही लोग. गांव का एक सीधा-साधा लड़का है केश्या. वो जो हर गांव में तमाम चाचियों, मामियों और भाभियों का एक फेवरेट लड़का होता है न, बस वही है केश्या. हर जगह मौजूद. दिल का साफ़, नीयत का सच्चा. कहानी शुरू होती है जब केश्या उर्फ़ केशव चिलचिलाती धूप में अपनी गाय खोजने निकल पड़ता है. एक तो कड़ी धूप, ऊपर से बेतहाशा भटकन. जब तक गाय मिलती है केश्या थक के निढाल हो गया है. थोड़ी देर के लिए उस गूलर के पेड़ के नीचे लेट जाता है जहां गाय मिली थी. गूलर का पेड़ जिसे मराठी में उम्बर बोलते हैं. थोड़ी देर को लेटे केश्या को सपने में अजीब-अजीब आकृतियां नज़र आती हैं. और नज़र आते हैं दत्त. दत्त माने श्री गुरुदेव दत्त भगवान. ब्रम्हा-विष्णु-महेश का संगम.
थकान में चूर केश्या को लगता है उसे साक्षात भगवान ने दर्शन दिए हैं. वो सारे गांव में ढिंढोरा पीट देता है कि दत्त आ गए हैं. फिर क्या था! वो जगह, वो पेड़, वो गाय सब पवित्र हो जाता है. केश्या को हुआ आभास नींव का वो पत्थर है जिसपर आस्था की हवेली खड़ी होने वाली है.

सपने में दत्त.
गांव के एक तगड़े पॉलिटिशियन हैं भाउसाहेब गलांडे. नेता हैं लेकिन भ्रष्ट नहीं. गांव का विकास चाहते हैं. गांव के वरिष्ठ व्यक्ति अन्ना के साथ मिलकर एक अस्पताल बनाने का प्रोजेक्ट शुरू करने वाले हैं. उधर उनका एक असंतुष्ट भतीजा है आप्पा. वो अपने चाचा की छत्रछाया से बाहर निकलकर खुद नेतागिरी करना चाहता है. उसके हाथ अवसर भी लग गया. केश्या को दिखे हुए दत्त. उसे पता है कि लोगों से सीधा कनेक्शन तभी स्थापित हो पाएगा जब भगवान की हाज़िरी हो. वो प्रस्ताव देता है कि गांव में मंदिर बने. गांव का एक तीर्थस्थान की तरह कायापलट हो.
ईश्वर के आगमन से आंदोलित तमाम गांववाले उससे सहमत हैं. भाऊ के अस्पताल के सामने आप्पा का मंदिर आ खड़ा हुआ है. ज़ाहिर सी बात है जीत मंदिर की ही होनी है. चमत्कार को नमस्कार करने वाले इस देश में आस्था का अस्त्र कभी खाली नहीं जाता. भाऊ को हार माननी ही पड़ती है.

मंदिर प्रोजेक्ट.
फिर आगे जो होता है उसे फिल्म देखकर जानिएगा. कैसे एक सीधा-साधा गांव आस्था की मंडी में बदल जाता है ये देखने वाली चीज़ है. श्रद्धा धंधा बन जाती है. भक्ति की आड़ में गैरकानूनी काम तक होने लगते हैं. चाहे किसी साधु बाबा की दुकान चमकानी हो या फ़िल्मी धुनों पर भक्ति के गाने बेचने हो, सब घिन आने की हद तक बाज़ारू हो जाता है. कहर तो तब होता है जब मंदिर के काम का शुभारंभ आइटम डांस से होता है. यहां तक कि ईश्वर की फ्रेंचाइज़ी तक ली जाती है. श्रद्धा का, डर का, लालच का कारोबार शुरू होता है. गांव में सड़क तो आती है और उस सड़क पर चलकर तरक्की भी, लेकिन लोग दुकानों में बदल जाते हैं. मनुष्यता की सहज-सुलभ भावना की जगह धर्म का व्यापार नज़र आने लगता है.
चकाचौंध से चमत्कृत तमाम गांववालों को भले ही इसके साइड-इफेक्ट्स नज़र ना आएं लेकिन कुछ लोग हैं जो इस तमाम तरक्की का खोखलापन देख पा रहे हैं. उन्हीं में से एक है केश्या. वो, जिसे भगवान नज़र आए थे. वो बेबस सा खड़ा देखता रहता है कि भगवान से प्रेम के नाम पर शुरू हुए इस तमाम खेले में भगवान तो कहीं हैं ही नहीं. सिर्फ भगवान के नाम को ख़रीदा-बेचा जा रहा है. बुरी तरह हताश केश्या क्या कदम उठाता है? अस्पताल बांधने के लिए प्रतिबद्ध भाऊ किस पाले में खड़े मिलते हैं? क्या धर्म की इस दुकानदारी को बंद करने का कोई तोड़ निकल आता है? ये सब फिल्म देखकर जानिएगा.

धर्म की दुकान.
फिल्म में व्यंग्य की धार बड़ी तेज़ है. जगह-जगह प्रतीकों और चुटीले संवादों से सिस्टम के खोखलेपन पर मारक टिप्पणियां मिलेंगी आपको. शुरू में जब दत्त आने की चर्चा होने लगती है तो चाय के खोखे पर एक किरदार कहता है,
"इस गांव में कोई चिट्ठी-पत्री तो आती नहीं, न सड़क आई आजतक, ये दत्त कहां से आ गए."फिल्म का सबसे सशक्त पहलू है इसकी कास्ट. हर एक एक्टर अपने रोल में डूबा हुआ सा लगता है. केश्या के रोल में गिरीश कुलकर्णी ने इतनी उम्दा एक्टिंग की है कि उन्हें गले लगाने का मन करता है. एक भोला युवक जिसकी व्यक्तिगत आस्था का बाज़ार बना दिया गया. और फिर उसे ही दरकिनार कर दिया गया. अपनी पीड़ा को वो बड़ी सहजता से व्यक्त करते हैं. लगता ही नहीं कि वो एक्टिंग कर रहे हैं. यकीनन गिरीश कुलकर्णी मराठी फिल्म इंडस्ट्री को मिला शानदार तोहफा हैं. हम हिंदी वाले उनके टैलेंट का नमूना पहले अनुराग कश्यप की 'अग्ली' में और अभी हाल ही में वेब सीरीज 'सेक्रेड गेम्स' में देख ही चुके हैं.

'अग्ली' में गिरीश कुलकर्णी.
भाऊ गलांडे के रोल में नाना पाटेकर बेहद कन्वींसिंग लगते हैं. वो जिस तरह से 'शून्य मिनटात' वाला डायलॉग बोलते हैं, आप फैन हो जाएंगे. उनकी पत्नी के रोल में सोनाली कुलकर्णी अच्छी लगती हैं. एक और प्रभावित करने वाला किरदार है अन्ना का. वेटरन एक्टर दिलीप प्रभावळकर ने धर्म और विज्ञान के बीच झूल रहे एक वरिष्ठ विचारक की भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है. एक ऐसा शख्स जो पहले कदम से जानता था कि आस्था का व्यापार कैसी बुरी शक्ल लेने वाला है.
श्रीकांत यादव का निभाया आप्पा भी ज़ोरदार है. बाकी के कलाकार भी परफेक्ट हैं. जैसे,
केश्या की मां के रोल में ज्योति सुभाष केश्या की मंगेतर पिंकी के रोल में ज्योति माळशे सरपंच की भूमिका में अतिशा नाइक सरपंच की सास के रोल में उषा नाडकर्णी और लोकल रिपोर्टर महासंग्राम बनकर माइक थामे किशोर कदम.एकदम परफेक्ट कास्टिंग है. एक सीन में तो अपने नसीरुद्दीन शाह भी दर्शन दे जाते हैं. एक अवॉर्ड तो कास्टिंग डायरेक्टर को भी देना बनता है.

नसीर साहब.
कोई हैरानी की बात नहीं कि इस फिल्म को तीन-तीन नेशनल अवॉर्ड मिले. एक बेस्ट फीचर फिल्म का, एक बेस्ट स्क्रीन प्ले और डायलॉग के लिए और एक बेस्ट एक्टर का गिरीश कुलकर्णी को. डायरेक्टर उमेश कुलकर्णी को पूरे नंबर देने पड़ेंगे कि उन्होंने एक बेहद संवेदनशील सब्जेक्ट को बिना धर्म का उपहास किए परदे पर दिखाने में कामयाबी हासिल की है.
ईश्वर में विश्वास अलग चीज़ है. और उस विश्वास को बेचना अलग चीज़. आस्था और मूर्खता में फर्क बताने वाली इस फिल्म को ज़रूर ज़रूर देखिएगा.
'चला चित्रपट बघूया' सीरीज़ में कुछ अन्य फिल्मों पर तबसरा यहां पढ़िए:
फिल्म रिव्यू: चुंबक
सैराट, वो मराठी फिल्म जिस पर सिर्फ महाराष्ट्र ने नहीं, पूरे भारत ने प्यार लुटाया
वो कलाकार, जिसे नपुंसक कहकर अपमानित किया गया
झोपड़पट्टी में रहने वाले दो बच्चों की ज़िद, मेहनत और जुझारूपन की कहानी
'रेडू': जिससे इश्क था, उस रेडियो के खो जाने की अनोखी कहानी
न्यूड: पेंटिंग के लिए कपड़े उतारकर पोज़ करने वाली मॉडल की कहानी
सेक्स एजुकेशन पर इससे सहज, सुंदर फिल्म भारत में शायद ही कोई और हो!
वीडियो: