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रेड 2: अमय पटनायक का लाजवाब "अर्थशास्त्र" और एक मृत क्लाइमैक्स (Raid 2 Movie Review)

Raid 2 कैसी फ़िल्म है? Ajay Devgn और Riteish Deshmukh को लेकर director Raj Kumar Gupta जो दो ध्रुव खड़े करते हैं और उनके बीच "खोजो तो जाने" वाली जो लड़ाई करवाते हैं, वो कितनी फलदायी साबित होती है? पढ़ें इस Raid 2 Lallantop Review में:

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मंत्री का गुर्गाः "अंदर ये शस्त्रधारी देख रहे हो?" छापा मारने आया अमय पटनायक: "बाहर ये सरकारी कर्मचारी देख रहे हो?" कुछ इसी मिजाज वाली फ़िल्म है "रेड 2."

     Rating: 03 Stars    

"रेड 2" एक एंटरटेनिंग क्राइम थ्रिलर है. अधिकतर भाग में संतुष्ट करने वाली फ़िल्म. शिकवा-शिकायत कम और संवादों, ह्यूमर पर आपसे प्रतिक्रिया निकलवा जाती है. एक अल्प लेकिन जरूरी हिस्से में फ़िल्म गलती भी करती है.

फ़िल्म 1989 के राजस्थान में खुलती है. हिचकौले खाते सजे, सिंगारे ऊंटों और रेतीले टीलों के बीच एक राजा के किले में रेड पड़ रही है. IRS के डिप्टी कमिश्नर अमय पटनायक (अजय देवगन) की एंट्री होती है. वो अब पहली "रेड" से भी ज्यादा औसत भारतीय पुरुष (उड़िया पुरुष, अगर हम उसकी उन जड़ों को स्वीकार करें) लगता है. चैक्स की शर्ट. बांहे ऊपर की ओर कोहनी तक तह की हुई. प्लीट वाली पैंट्स. टिपिकल लेदर चप्पल. राजस्थान में रहते हुए और भी भुन गई त्वचा. रूखे सफेद हो चुके होठ. लेकिन अब इन बाहरी त्वचाओं के अलावा अमय अंदर से भी बदल चुका है. उस पर रिश्वत मांगने का इल्ज़ाम है. हमें दिखाया जाता है कि उसने दो करोड़ की रिश्वत मांगी भी है और वो ईमानदारी की जिंदगी से उकता चुका है. लेकिन हम अब भी इस तथ्य को संदेह की दृष्टि से ही देख रहे हैं और सच क्या है ये उस ऑपरेशन को लीड कर रहे उसके जूनियर ऑफिसर महंत को ही पता है. ख़ैर, अमय का 74वां ट्रांसफर कर दिया जाता है. भोज नाम की जगह. कार में पत्नी मालिनी (वाणी कपूर) और पापा के ट्रांसफर्स के चलते दोस्त नहीं बना पा रही, दूध के एक टूटे दांत वाली बिटिया हैं. नगरसीमा पर गरीब जन पार्टी के बड़े बैनर अटे हैं. उनमें हाथ जोड़े नजर आता है एक सज्जन सा लगने वाला पुरुष. बाद में ज्ञात होता है नाम - दादाभाई. केंद्रीय मंत्री दादा मनोहर भाई (रितेश देशमुख). आगे अमय और दादाभाई का रॉयल रंबल देखने को मिलता है. क्यों? कई सवाल. कई जवाब. कई छापे. और झंझावात. ये है आगे की कथा.

क्रिस नोलन की "द प्रेस्टीज" (2006) 19वीं सदी के दो जादूगरों की कहानी थी. और इसमें थी एक अवाक कर गई ट्रिक, जिसे देखो तो भरोसा न हो कि कोई जादूगर भला कैसे कर सकता है ये? कोई इतना परफेक्ट इल्यूजन या भ्रम कैसे रच सकता है? कुछ ऐसा ही तमिल क्राइम थ्रिलर सीरीज़ "सुड़ल - द वोर्टेक्स" में था. जिसके सीज़न 2 में मशहूर एडवोकेट चेलप्पा की मौत हो जाती है. उनके कॉटेज के दरवाजे अंदर से बंद होते है. गन हाथ में मिलती है. सिर में गनशॉट वूंड है. दीवार पर ख़ून और ब्रेन के टुकड़े पुते हैं. कन्फर्म है कि ये सुसाइड है. लेकिन असल में ये सुसाइड नहीं है और मर्डर ही है. लेकिन कोई नहीं जानता ये मर्डर आखिर कैसे मुमकिन है? द परफेक्ट इल्यूजन. "रेड 2" में भी डायरेक्टर राज कुमार गुप्ता इसी परफेक्ट इल्यूजन पर खेलते हैं क्योंकि मुझ दर्शक को ये बहुत भाता है. एक ऐसी पहेली जिसका जवाब ठीक आपके सामने है और आपको खोजना है. फ़िल्म में अमय और दादाभाई भी एक-दूसरे को यही खोज कर दिखाने की चुनौती देते हैं, और वो चुनौती दर्शक की भी होती है. दादाभाई एक नाकाम छापेमारी के बाद अमय से कहता है - "चार चीजें आपकी नजर में आईं. लेकिन आपको कुछ नहीं मिला. अब पांचवीं और सबसे बड़ी चीज आपकी आंख के सामने है और आप उसे ढूंढ नहीं पाओगे." फिर एक सीन में अमय उसे कहता है - "आज के बाद सब तुम्हारी नजरों के सामने होगा, पकड़ सको तो पकड़ लो." और रितेश शाह, राज कुमार गुप्ता, जयदीप यादव, करण व्यास की राइटिंग इस दावे को खरा उतारकर ही जाती है. एस्टोनिशिंग. आश्चर्यजनक.

राइटिंग में कुछ प्यारे, आनंदित करने वाले पल और आते हैं. मसलन, एक सीन में अमय बेनामी संपत्तियों की जांच करते हुए एक गांव वाले से पूछता है - "राम छोटे आप ही हैं?" तो वह कहता है - "इस गांव में राम तो बहुतै हैं, लेकिन छोटे हम ही हैं." या फिर अमित सियाल के पात्र लल्लन का कहना - "दादाभाई हम दिन की वो इग्नोर की हुई सब्जी हैं जो रात को सस्ते में... (बिक जाती है)." रस लेकर लिखे गए संवाद, जो संवाद प्रधान फ़िल्मों के गुजरे दौर का मीठा रिमाइंडर लगते हैं.

ये फ़िल्म कौटिल्य के "अर्थशास्त्र" के सिद्धांत - "कोष मूलो दण्डः" का उल्लेख एक से अधिक बार करती है, जिसका अर्थ है - राजकोष ही राज्य प्रशासन का मेरूदण्ड है. और ये भारतीय राजस्व सेवाओं का आदर्श वाक्य भी है. वात्स्यायन ने कामशास्त्र लिखते हुए इस अर्थशास्त्र को ही अपना पथप्रदर्शक ग्रंथ बनाया. और फ़िल्म में एक ट्रिब्यूट या वस्तुस्थिति कामशास्त्र की भी दिखती है जब जैस्मिन सैंडलस की आवाज़ में तमन्ना भाटिया का कामुक नृत्य आता है और वे गाती हैं - "नशा जदौं करना ते मेरा कर सोणेया." इसमें एक जगह जानी लिखते हैं - "मुझे पता है मेरी जान आइए, मेरे यार तुझे क्या-क्या चाहिए, हां मैं हूं सारी की सारी तेरी, मुझे नज़रों से आप खाइए." एक लिहाज से अर्थ और काम का मेल. अमित त्रिवेदी का लाउड, इंगेजिंग बैकग्राउंड म्यूजिक पूरी कहानी के साथ-साथ दर्शक के मूड को गतिमान रखता है.

अजय देवगन और रितेश देशमुख अपने ताकतवर किरदारों के साथ न्याय करते हैं. दूसरे एक्टर्स के करिश्मे के बिना ऐसा नहीं हो पाता. चरणचुंबक लल्लन सुधीर (अमित सियाल) की एंट्री फ़िल्म की सबसे कामयाब एंट्री है, जो तब आता है जब हीरो अमय डाउन होता है और दर्शक भी हताश हो चुका होता है. जीत का दूर दूर तक कोई आसार नहीं दिख रहा होता है. तब वो लंका के हनुमान की तरह आता है. हालांकि उसका कोई पता नहीं वो अच्छा सिद्ध होगा कि बुरा. उसी तरह वकील गहलोत (यशपाल शर्मा) की एंट्री भी जोश लाती है. फ़िल्म "इमामदस्ता" में मेहमान-कम-संदिग्ध "आतंकी" महमूद आलम बने कॉमिक एक्टर राजू पांडे सिर्फ एक फ्रेम में आते हैं, (इनकम टैक्स अधिकारी के रोल में दिल्ली में एक छापे के दौरान) और मन खुश हो जाता है. अमय पटनायक के सबसे विश्वस्त, युवा इनकम टैक्स ऑफिसर महंत के रोल में एक्टर नवनीत रंगा ध्यान खींचते हैं. उनका कैरेक्टर अमय के साथ यूं एम्बेडेड है कि लगता है "रेड 3" हुई तो वे ज्यादा बड़े रोल में होंगे. अमय की फैन और आयकर अधिकारी गीता के रोल में श्रुति पांडे हंसाती हैं, याद रहती हैं. एक्टर्स का बेहद युक्तिसंगत ढंग से इस्तेमाल डायरेक्टर राज कुमार गुप्ता करते हैं. सेकेंड हाफ में यशपाल शर्मा और अमित सियाल का आना इसका श्रेष्ठ क्षण होता है.

अगर फ़िल्म के बेस्ट मूमेंट की बात करें तो वो तब होता है जब अमय की टीम को भीड़ घेर लेती है और मार ही डालेगी. ऐसे में वे रेड में बरामद अपार पैसा लेकर कैसे निकलें? इस पर अमय एक ट्रिक लगाते हैं और जब वे ऐसा कर रहे होते हैं तो भरपेट साऊंड और बीस्ट किशोर कुमार की कमांडिंग और मादक आवाज़ में बजता है - "पैसा ये पैसा... पैसा है कैसा... नहीं कोई ऐसा... जैसा ये पैसा. ये हो मुसीबत, न हो मुसीबत." गीत जब आता है तो सीट पर ठिठकाकर आनंदित कर देने वाला क्षण होता है और दिमाग के एक हिस्से में "कर्ज" फ़िल्म के ऋषि कपूर भड़कती गोल्डन ड्रेस में, टैंग टैंग नाच रहे होते हैं. फ़िल्म में एक-दो ऐसे हाई पॉइंट और हैं. ये मल्टीपल हाइ पॉइंट्स और मल्टीपल रेड सीक्वेंस, मल्टीपल ट्रिक्स - हमें भरपेट भोजन देती हैं.  

अंत में आते हैं अंत की तरफ. अंत में जो मां वाला कार्ड राइटर्स खेलते हैं, जिसमें दादाभाई की मां आती हैं और एक इमोशनल स्पीच देती हैं. वो अब तक फ़िल्म द्वारा भरी एंटीसिपेशन और गुडविल की हवा, दर्शक के गुब्बारे से निकाल देता है. इस क्षण में दर्शकों के साथ ठीक वैसा ही होता है जैसा एल्बर्ट लैमोरीस की 1956 में आई फ्रेंच फैंटेसी शॉर्ट फ़िल्म "ल बेलूं रूझ़/द रैड बलून" में प्यारे बच्चे पास्कल के साथ होता है. जिस सुंदर, मनभावन लाल गुब्बारे को लेकर वो इस 35 मिनट की फ़िल्म में अधिकतर समय घूम रहा होता है, उसे अंत में पैरिस के दुष्ट बच्चे घेर लेते हैं और उसका गुब्बारा फोड़ देते हैं. "रेड 2" के दर्शकों के मुंह से श्वास यूं बरबस निकल जाता है, जब वे जान चुके होते हैं - this is where the pleasure ends. जहां "द रैड बलून" में आगे कुछ ऐसा गुलबहार, मैजिकल सा होता है जो पास्कल को दस गुना खुशी दे जाता है, वहीं "रेड 2" में अगली फ़िल्म का एक टीज़ सा मिलता है जिसमें अमय के दो दुश्मन हाथ मिलाते हैं लेकिन वो प्लेज़र पर्याप्त नहीं होता. "रेड 2" के मेकर्स का एक ही अक्षम्य अपराध है और वो है फ़िल्म के तमाम एंटीसिपेशन को एक बहुत ही बुरा अंत देना, उस परफेक्ट इल्यूजन की परफेक्ट हत्या करना. "केयोस वॉकिंग" नाम की दमदार साइंस फिक्शन ट्रिलजी लिखने वाले पैट्रिक नेस कहते हैं कि - "आप पाठक को क्लाइमैक्स में कैसे छोड़ जाते हो वो बहुत मायने रखता है. उसे मैं क्लाइमैक्स नहीं "एग्जिट फीलिंग" कहता हूं." यानी कहानी से बाहर निकलते वक्त का मनोभाव.  

ये बात यहीं तक. बाकी आप ये फ़िल्म ज़रूर देखें, मज़ा आएगा.

Film: Raid 2 । Director: Raj Kumar Gupta । Cast: Ajay Devgn, Riteish Deshmukh, Vaani Kapoor, Saurabh Shukla, Amit Sial, Yashpal Sharma, Rajat Kapoor, Supriya Pathak, Brijendra Kala, Navneet Ranga, Shruti Pandey । Run Time: 138m । Watch at: Cinemas

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