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75 साल पहले वाला 'पठान', जिसने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए जान की बाज़ी लगा दी थी

दंगा करने लोग थिएटर पहुंचे, नाटक देखकर नाचने लगे.

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'पठान' की तस्वीर

एक दुनिया 'पठान' रिलीज़ से पहले थी और दूसरी है 'पठान' रिलीज़ के बाद. ऐसा शाहरुख के फैन्स का जश्न देखकर लगता है. लोग कह रहे हैं: "एक औसत फिल्म को भी आज सिर्फ इसलिए सेलिब्रेट किया जा रहा है, क्योंकि इसकी कमाई सम्प्रदायिकता के मुंह पर तमाचा है. " अब यहां दो कीवर्ड हैं. पहला है 'पठान' और दूसरा है 'सांप्रदायिकता'. इसमें आगे चलकर पृथ्वीराज कपूर का नाम भी जुड़ेगा. कैसे और क्यों? अभी आगे बताएंगे. पहले एक कहानी सुन लीजिए.

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धरती पर खींची गई लकीर एक नए देश को जन्म देती है. लाखों लोग बेघर हो जाते हैं. विश्व का सबसे बड़ा विस्थापन होता है. हिन्दू-मुस्लिम एक-दूसरे के क़त्ल पर उतारू होते हैं. ऐसे कट्टर माहौल में सांप्रदायिक सौहार्द का एक प्ले लिखा जाता है. कट टू रील लाइफ.

पृथ्वी थिएटर का प्ले ‘गद्दार’

पेशावर का एक गांव. दीवान ताराचंद अपने दोस्त को दुश्मन से बचाने में खुद की जान दे देते हैं. समय बीतता है. शेर खान के बेटे बहादुर खान की शादी हो रही है. शादी के दिन ताराचंद का बेटा एक मुस्लिम डाकू का सेल्फ डिफेंस में खून कर देता है. नतीजतन हिंदू-मुस्लिम टकराव की स्थिति पनपती है. सुलह बस एक सूरत में हो सकती है. ताराचंद का बेटा डाकू के गिरोह को सौंप दिया जाए. शेर खान दोस्त के बेटे की जान बचाने आगे आता है. खुद की कुर्बानी देने को तैयार होता है. पर गिरोह को चाहिए, किसी जवान आदमी की ज़िंदगी. शेर खान एक कदम और आगे बढ़कर अपने इकलौते बेटे को उन्हें सौंप देता है.

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ऊपर हमने जो कथा बांची, ये भारत-पाक बंटवारे के समय लिखे गए एक प्ले की कहानी है. प्ले का नाम था 'पठान'. तो दोस्तों, मैंने वादा पूरा कर दिया. दोनों कीवर्ड जस्टीफाई कर दिए. खैर, 'पठान' के आर्किटेक्ट थे रणबीर कपूर के पर दादा पृथ्वीराज कपूर. उनका साथ दिया था राइटर लालचंद बिस्मिल ने. पहली बार इसे 13 अप्रैल 1947 को बॉम्बे के रॉयल ओपेरा हाउस में दिखाया गया. पृथ्वीराज ने शेर खान की भूमिका निभाई और क्या कमाल निभाई! प्ले देखने के बाद दिग्गज फिल्ममेकर के.ए. अब्बास ने इसे पृथ्वीराज का सबसे बेहतरीन काम बताया था. उनका कहना था, 'उन्होंने ऐसा कमाल काम किया कि किरदार और कलाकार में फ़र्क करना मुश्किल हो जाता है.' युवा शौकत कैफ़ी प्ले से इतना प्रभावित हुईं कि थिएटर में अपना करियर बनाने का फैसला किया. ज़ोहरा सहगल 'पठान' में शेर खान की पत्नी बनी थीं. उन्होंने प्ले के बाद मिली तालियों और माहौल पर लिखा, 'थिएटर में एक भी ऐसी आंख नहीं थी, जो फाइनल ऐक्ट के बाद सूखी हो.'

पृथ्वी थिएटर का प्ले आहुति

आगे चलकर प्ले में शेर खान के बेटे का रोल पृथ्वीराज कपूर के बेटों राज, शशि या शम्मी ने किया. ये और ज़्यादा भावुक करने वाला था. खुद अपने बेटे की ज़िंदगी पृथ्वीराज कपूर बलिदान करने का प्रस्ताव रखते हैं.

ये प्ले बनाया गया था, कम्यूनल हार्मनी को हवा देने के लिए. पर जब पहली बार इसे परफ़ॉर्म किया गया, इसके एंटी मुस्लिम होने की अफवाह उड़ा दी गई. यानी ये सिर्फ आज ही नहीं होता है कि लोग बिना देखे, बिना समझे, किसी आर्ट को धर्म विरोधी बता दें. उस दौर में भी लोग आहत होते थे. इस दौर में भी आहत होते हैं. पर पृथ्वीराज कपूर ने लोगों के आहत होने के बाद उस समय जो किया और जो उन्हें करने दिया गया, वो भी अपने आप में कमाल बात है. शायद ही आज ऐसा कोई करे या किसी को करने दिया जाए.

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‘दीवार’ प्ले का एक सीन

दरअसल बंटवारे का समय था. माहौल सांप्रदायिक था. कट्टरपंथी मुस्लिम प्ले के बारे में तमाम बाते कर रहे थे. उनके भीतर ये गुस्सा था कि पृथ्वीराज कपूर, जो एक हिंदू हैं, इन्होंने मज़हबी आस्था का मखौल उड़ाया है. उनकी धार्मिक मान्यताओं को बदनाम करने की कोशिश की है. मामला हाथ से निकल सकता था. पर पृथ्वीराज ने ऐसा न हो इसके लिए अपनी जान झोंक दी. उन्होंने लोगों की गलतफ़हमी दूर करने के लिए सभी मौजूद साधनों का उपयोग किया. यहां तक कि कॉंग्रेस रैली के मंचों का भी इस्तेमाल किया. इन सबके ज़रिए पब्लिक को न्योता दिया और कहा, 'पहले प्ले देखें फिर खुद फैसला करें.' इसके बाद जो हुआ, किसी फिल्म सरीखा लगता है. हवा बदलने लगी.

अहमदाबाद के एक प्रभावी मुस्लिम फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर ने पहले प्ले दिखाने से इनकार कर दिया था. बाद में उसने ये प्ले देखा और भावुक हो गया. उसने न सिर्फ खुद के थिएटर में 'पठान' दिखाया, बल्कि आसपास के शहरों में प्ले दिखाने में मदद भी की. संतरों के शहर नागपुर में, जो भीड़ पहले थिएटर को जला देना चाहती थी, पृथ्वीराज के पक्ष में खड़ी हो गई. उस भीड़ ने आगे बढ़कर लाउडस्पीकर्स पर प्ले का प्रचार किया. बॉम्बे में भिंडी बाज़ार से कुछ लोग रॉयल ओपेरा आए थे, प्ले को रोकने की मंशा से. पर उन्होंने जब पूरा प्ले देखा, तो स्टेज पर नाचने लगे.

आगे चलकर 'पठान' पृथ्वी प्रोडक्शन्स का ऑल टाइम सक्सेसफुल प्ले साबित हुआ. 1947 से लेकर 1960 तक इसके 558 शोज हुए. कैसा दौर था! कैसे लोग थे! कैसे किस्से हैं!  सोचता हूं, पृथ्वीराज कपूर ने उस दौर में जो किया, क्या आज संभव होता! बिल्कुल होता. पर उसके लिए हमारे अंदर टूटकर बिखर गए पृथ्वीराज को इकट्ठा करना पड़ेगा. अगर हम ऐसा कुछ कर नहीं सकते, तो कम से कम सोच तो सकते हैं.

(ये किस्सा, जो हमने आपको सुनाया, यासिर अब्बासी की फ़ेसबुक पोस्ट से लिया गया है)

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