टीज़र का सबसे अधिक विचलित करने वाला सीन और दूसरी ओर अक्षय के किरदार की पहली झलक.
'2.0' के टीज़र में दो बातें आकर्षक हैं, और कई सारी बातें बिलकुल भी नहीं. सबसे पहले वो जो आकर्षक नहीं हैं. अक्षय कुमार की एंट्री इसमें वैसी नहीं है जैसी अपेक्षित है. जैसे, रजनीकांत के रोबोट किरदार चिट्टी की एंट्री से पहले वो अपेक्षित संदर्भ या आपात आवश्यकता दिखाई जाती है. कि ऐसा शत्रु आ गया है जो शहर में सबके सेलफोन जादुई ताकत से अपने पास खींच ले रहा है और वो बर्बादी फैलाने वाली ताकत रखता है. ऐसे में साइंटिस्ट वसीगरन (रजनी) कहते हैं - "ये साइंस से भी परे है और इसका मुकाबला करने के लिए हमें कोई सुपरपावर चाहिए." इस पर मुख्यमंत्री (आदिल हुसैन) लाचार सा, लेकिन अधिक चिंतित न दिखते हुए कहता है - "तो क्या करें?" वसीगरन जवाब देते हैं - "चिट्टी. द रोबोट." और फिर चिट्टी सड़कों पर उतरता है जूतों के नीचे ऑटोमैटिक पहिए लगाए हुए. ऐसा परिचय अक्षय के किरदार डॉ. रिचर्ड को नहीं दिया जाता. टीज़र में उन्हें सिर्फ डेढ़ बार दिखाया जाता है. जैसे दिखाया जाता है वो प्रभावहीन है. पहले उनके किरदार की तस्वीर वर्चुअल स्क्रीन पर उभरती है. उसके बाद उनका किरदार खड़ा होता है और एक बख़्तरबंद वाहन को बम से उड़ा रहा होता है. डॉ. रिचर्ड का लुक जितना गूढ़ और वाइल्ड है, उसकी शक्तियां जितनी असीमित हैं और उसे निभाने वाले अक्षय जितने चटख़ एक्टर हैं - ये सब चीजें मिलकर इस पात्र को यहां सबसे एक्साइटिंग बनाती हैं. लेकिन इतनी बड़ी फिल्म की, एकदम पहली ही फुटेज में अक्षय के पात्र को बस नैमित्तिक तरीके से रख दिया गया है.

अतार्किक तो अक्षय के किरदार रिचर्ड का भी गर्मियों में सर्दियों के कपड़े पहनना है लेकिन चिट्टी के दोनों ही लुक अप्रभावी हैं. एक में वो चमड़े के, उजड़ी चांदी जैसे खीझ पैदा करने वाले रंग के कपड़े पहनता है. वो भी थ्री-पीस टाइप. हाथों में काले ग्लव्ज़ जो विशेष क्षमताओं वाले लगते नहीं और लुक इनसे निखरता नहीं. एक बाजू पर निम्न श्रेणी के प्लास्टिक में ढला अंग्रेजी का नाम चिट्टी लिखा है. चिट्टी के दूसरे लुक में बदन के कपड़े भले ही थोड़े ठीक हो गए हों लेकिन बेमतलब का चश्मा और गले के नीचे लटकता मांस नहीं लगने देता कि वो एक चुस्त रोबो है जिसके चर्बी नहीं चढ़ती. अब तो स्मार्ट रोबोटिक्स का टाइम है जिसमें minimalist यानी अल्पतम अप्रोच रखी जाती है. जाहिर है आप रजनीकांत के शरीर को ढकना चाहते हैं क्योंकि उससे स्मार्ट तरीका आपको आया नहीं. ये सिर्फ रजनीकांत का सम्मोहक आवरण है और शंकर की बुनियादी जनता को पकड़ने वाली स्टोरीटेलिंग है कि रजनीकांत का चिट्टी वाला स्वरूप न चाहते हुए भी स्वीकारना पड़ता है. अगर उसमें आलोचना देखने की अनुमति हो तो ये बेहद हल्का किरदार है जिसमें याद रखने जाने वाली कोई बात नहीं.

फिल्म में कोई स्त्री अपने मुखर अस्तित्व में मौजूद नहीं है. सिर्फ ऐमी जैक्सन दिखती हैं जो डॉ. वसीगरन के बगल में फ्रेम में रंग भरने के लिए बैठाई गई लगती हैं. वो भी रोबोट ही हैं. एक बार देखने से पता नहीं चलता कि वो टीज़र में करीब तीन जगह मौजूद हैं. ऐसा प्रचारित किया जा रहा है कि ऑस्कर जीतने वाले ए आर रहमान और रसूल पोकुट्टी ने इस फिल्म का म्यूजिक बनाया है तो भला कितना mega होगा!! लेकिन यहां ऐसी कोई छाप नहीं है. चूंकि फिल्म रोबोट्स के बारे में है तो ग्रामीण-कस्बाई दर्शकों के दिमाग की भर्ती करने के लिए हिप-हॉप और रैप टाइप म्यूजिक शुरू में बजता है. एक दो दूसरी एपिक धुनें हैं जो काम चला देती हैं. लेकिन टीज़र में कोई भी रहमान के स्टैंप वाली 'नई' धुन नहीं है, साउंड नहीं है. इसके अलावा बाकी सारा जो भी है वो शोर है. एक ऊंची इमारत से बहुत सारे लोगों के गिरने का सीन देखकर 2013 की फिल्म 'आयरन मैन-3' का एक सीन याद आता है.

अंगारों सी दहकती चील एक जगह चिट्टी का पीछा कर रही है, उस सीन में दो जगह वो नकली और एनिमेटेड लगता है. करीब 550 करोड़ रुपये के बजट वाली फिल्म में ये चूक होनी नहीं चाहिए.

अलावा इसके, लाखों स्मार्ट फोन्स मिलकर सैनिक बन जाते हैं स्टेडियम में और उनके सामने चिट्टी दर्जनों मशीन गन्स / असॉल्स राइफल्स का चक्र बनाकर गोलियां चलाता है. ऐसे दृश्यों को 'एंदिरन/रोबोट' सीरीज की फिल्मों की सुर्खी और हासिल माना जाता है. असल में ये सिरदर्द करने वाले हैं. इनमें सबकुछ मशीनी है, इंसानी कुछ भी नहीं. इमोशनल कुछ भी नहीं. ऐसे दृश्यों को बनाने में भले ही डायरेक्टर शंकर ने जी-जान लगा दी होगी, बाहर से विशेषज्ञ बुलाए गए होंगे, प्रोड्यूसर्स को संपत्तियों पर लोन लेना पड़ा होगा और बुनियादी दर्शक इन्हें देखकर ठिठक भी जाएंगे, लेकिन किसी को समझ कुछ नहीं आएगा. इनसे बस इरादा लोगों को अवाक करने का है, नेरेटिव में याद रखने वाला इसमें कुछ नहीं. फिल्म का सबसे बुरा और बोझिल हिस्सा ये होता है. टीज़र में सबसे विचलित करने वाला सीन उस विशालकाय चील या अक्षय कुमार के डरावने लुक का नहीं है बल्कि वो है जहां सेलफोन टावर के बीच, खूब ऊपर एक आदमी की लाश लटकी होती है. दूर से उसका उड़ता हुआ व्यू दिखता है. पक्षी उसके चारों तरफ उड़ रहे होते हैं. ऐसी मशीनी, कृत्रिम सी लगने कंप्यूटर ग्राफिक्स से भरी फिल्मों में ऐसे प्योर मानवीय विजुअल ही हैं जो इन्हें जिंदा बनाए रखते हैं, नहीं तो ये पूरी प्लास्टिक होती हैं.

जैसे चिट्टी रोबो का आंख मारते हुए एक आवाज़ निकालना, वही मानवीय चीज़ है. 'उ उ' बोते हुए (रजनीकांत का) नीचे वाला होठ और आसपास का हिस्सा जैसे कांपता है वो गैर-मशीनी बात. दूसरी उत्साहकारी बात जो इसमें लगती है वो ये कॉन्सेप्ट कि स्मार्टफोन्स के युग में क्या हो जब लोगों के फोन उनसे छीन लिए जाएं? क्या हो जब कोई व्यक्ति सूचना प्रौद्योगिकी और इस टेक्नोलॉजी को ही इंसानों के खिलाफ हथियार बना ले? इसे फिल्मों में explore करना विस्मयकारी है. लेकिन कैसे किया जाता है ये सवाल है. शंकर ने इसको बहुत प्रभावी ढंग से किया होगा ऐसा नहीं लगता है. उन्हें टेक्नीक का चाव बहुत अधिक है, कहानी का भी लेकिन विचार का नहीं. बिना विचार सारी तकनीक धातु और प्लास्टिक का कबाड़ है.