
ढेर सारे किरदारों से भरा फिल्म 'मुंबई सागा' का पोस्टर.
एक्टर्स का काम 'मुंबई सागा' में जॉन अब्राहम ने अमर्त्य और इमरान हाशमी ने विजय का रोल किया है. गायतोंडे का किरदार निभाया है अमोल गुप्ते और भाऊ के कैरेक्टर में दिखे हैं महेश मांजरेकर. अच्छी बात ये है कि इन सभी कैरेक्टर्स को फिल्म ने ठीक-ठाक समय दिया. जिसमें इन एक्टर्स ने मिलकर फिल्म को देखने लायक बना दिया है. जॉन अब्राहम चीखते-चिल्लाते गुंडों को पीट रहे हैं. ये चीज़ उन पर सूट करती है. इमरान ने एक ऐसे पुलिसवाले का रोल किया है, जिसे देखकर लगता है कि वो हिंदी फिल्में बहुत देखता है. इमरान ने इस कैरेक्टर में एक वीयर्ड ह्यूमर के साथ जो स्वैग ऐड किया है, वो फिल्म को देखने का मज़ा बढ़ा देती है. महेश मांजरेकर भी भाऊ के रोल में बढ़िया लगे हैं. मगर मेरी राय में इस 'मुंबई सागा' में सबसे मज़ेदार काम है अमोल गुप्ते का. गायतोंडे का किरदार एक खतरनाक गैंगस्टर का है, जो थोड़ा सा क्रेज़ी. अमोल को देखकर लगता है कि ये आदमी स्क्रीन पर जो कर रहा है, उसे फुल ऑन एंजॉय कर रहा है. फिल्म में काजल अग्रवाल, प्रतीक बब्बर और अंजना सुखानी भी नज़र आई हैं. प्रतीक ने अमर्त्य के छोटे भाई अर्जुन का रोल किया है. पूरी कहानी अर्जुन के किरदार के इर्द-गिर्द घूमती है. मगर वो हीरो नहीं है. काजल और अंजना के करने के लिए इस फिल्म में कुछ नहीं था.

फिल्म के एक सीन में गायतोंडे को गुंडों को पीटता अमर्त्य राव.
अच्छी बातें 'मुंबई सागा' संजय गुप्ता की पिछली फिल्मों से कुछ खास अलग नहीं है. मगर उनकी पिछली फिल्में खूब देखी गई हैं. 'कांटे' और 'शूटआउट एट लोखंडवाला' को तो कल्ट स्टेटस प्राप्त है. 'मुंबई सागा' को ये कहकर प्रचारित किया गया था कि ये बॉम्बे से मुंबई बनने की कहानी है. मगर इस कहानी में ऐसी कोई खास बात नहीं है, जो आपको अपनी ओर आकर्षित करे. खास है वो चीज़ कि इस कहानी को कैसे दिखाया गया है. संजय गुप्ता के कैमरा एंगल्स कई मौकों पर बहुत आउटरेजियस होते हुए भी ठीक लगते हैं. मतलब वो फिल्म में आपका इंट्रेस्ट बनाए रखते हैं. स्लो मोशन में चलता अपना हीरो. मगर फिल्म का हीरो कौन है, इसका चुनाव आप पर छोड़ दिया जाता है. जिसे कि जाहिर तौर पर एक पॉज़िटिव चीज़ के रूप में देखा जाना चाहिए. संजय गुप्ता की फिल्मों के गैंगस्टर्स बहुत स्वैग कैरी करते हैं. आम तौर पर ये चीज़ दूसरी दिशा में चली जाती है. मगर आश्चर्यजनक रूप से ये फिल्म गैंगस्टर्स को ग्लोरिफाई नहीं करती. पहले उन्हें बड़ा बनाती है और फिर घुटनों पर लाकर खड़ा कर देती है.

ये हैं विजय सावरकर. ये जिस अमर्त्य को मारने आए हैं, उसकी टैक्सी में बैठकर भी उसे पहचान नहीं पाए.
बुरी बातें इस फिल्म को देखते हुए एक चीज़ बार-बार खलती है. वो है इसका कलर पैलेट. एक्चुअली ये एक पीरियड फिल्म है. इसे उस रंग में ढ़ालने के लिए पूरी फिल्म के ऊपर मानो पीली पन्नी बिछा दी गई है. जो बहु इरिटेटिंग लगती है. बेसिकली उस रंग का काम ये है कि वो आपको अहसास दिलाए कि कुछ पुरानी बात हो रही है. मगर यहां ये चीज़ कुछ ज़्यादा एक्सट्रीम में चली गई है. फिल्म के जिन सीन्स में जॉन अब्राहम और इमरान हाशमी आमने-सामने आते हैं, वो बिल्कुल थिएटर्स में सीटी और तालियों के हिसाब से लिखे गए हैं. इन सीन्स को देखने में बहुत मज़ा आता है. मगर बहुत कम मौकों पर ये एक्टर्स एक-दूसरे के सामने पड़ते हैं. वहां पर थोड़ा सा लेट डाउन फील होता है. मगर चलेगा. दूसरी दिक्कत वाली बात ये है कि फिल्म में हनी सिंह के उस गाने की बिल्कुल कोई ज़रूरत नहीं थी. क्योंकि कहीं से वो फिल्म में कुछ जोड़ नहीं रहा था. फिल्म के डायलॉग्स कम वर्ड प्ले ज़्यादा हैं. शब्दों के हेर-फेर के साथ ऐसी लाइनें बनाई गई हैं, जिससे एक समय के बाद मन उबने लगता है.

ये हैं गायतोंडे. फिल्म का सबसे करारा किरदार, जिसे देखकर दिल गार्डन गार्डन हो जाता है. क्विक ट्रिविया, इन्हीं अमोल गुप्ते ने आमिर खान के साथ मिलकर 'तारे ज़मीन पर' डायरेक्ट की थी.
ओवरऑल एक्सपीरियंस 'मुंबई सागा' बहुत एक्सट्रा-ऑर्डिनरी फिल्म नहीं है. मगर इसका थिएटर एक्सपीरियंस कमाल का है. अगर आप मार-काट और बंदूकों से लैस एक्शन फिल्म देखने के शौकीन हैं, तो जाइए सिनेमा देखिए. अगर लंबे समय से किसी ढंग की फिल्म का इंतज़ार कर रहे हैं, तो हम सिर्फ इतना कहेंगे कि आपका ये इंतज़ार इस फिल्म पर खत्म नहीं होता.