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मूवी रिव्यू: राष्ट्र कवच-ओम

फ़िल्म की अच्छी बात है, इसकी ऊर्जा. पर डायरेक्टर कपिल वर्मा इसे ढंग से चैनलाइज़ नहीं कर पाए हैं.

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आदित्य ने अकेले ही सबको कूट दिया

इस सप्ताह सिनेमाघरों में आदित्य रॉय कपूर की एम्बिशियस फ़िल्म 'राष्ट्र कवच : ओम' रिलीज़ हुई है. कैसी है? आइए, बात करते हैं. 

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‘ओम’ का बस इत्ता-सा प्लॉट है

जूतों के क्लोज़अप और आशुतोष राणा की दमदार आवाज़ के साथ सीन खुलता है. आप इस शॉट में ही फ़िल्म के साथ हो लेते हैं. फ़िल्म का ओपनिंग सीक्वेंस ग्रिपिंग है. एंटरटेनमेंट के लिहाज़ से मारधाड़ देखकर मज़ा आता है. और बैटल शिप पर बीसियों लड़ाकों के सामने अकेले खड़ा हीरो, आपको फ़िल्म के लार्जर दैन लाइफ होने का आइडिया भी दे देता है. ये कहानी है ओम की या ऋषि की भी कह सकते हैं. क्यों? ये नहीं बताएंगे. इसके लिए आपको फ़िल्म देखनी होगी. ओम देश का सबसे अच्छा पैराकमांडो है, जो एक सीक्रेट टीम का हिस्सा है. उसकी टीम में पांच लोग और हैं. इस टीम को टेक्निकली जय राठौर लीड कर रहे हैं. और ऑफिशियली ऑफिसर मूर्ति. उनका मिशन है राष्ट्र कवच और उस कवच को बनाने वाले यानी देव की खोज करना. बस इत्ता-सा प्लॉट है. इसके आगे कुछ बोलेंगे तो स्पॉइलर की श्रेणी में आ जाएगा. इसलिए सिर्फ़ आपके मज़े की ख़ातिर ख़ुद को रोक रहा हूं.

ज़ंजीर खींचकर हेलिकॉप्टर रोकते आदित्य रॉय कपूर
स्टोरीटेलिंग तकनीक में लोचा है गुरु

फ़िल्म की अच्छी बात है, इसकी ऊर्जा. कहते हैं ॐ शब्द के उच्चारण में ऊर्जा होती है, ठीक वैसे ही इस फ़िल्म में भी ख़ूब ऊर्जा है. पर डायरेक्टर कपिल वर्मा इसे ढंग से चैनलाइज़ नहीं कर पाए हैं. फ़िल्म पागल मदमस्त हाथी की तरह आगे बढ़ती चली जाती है. उस पर अंकुश लगाने के लिए किसी कुशल महावत की ज़रूरत थी. पर कपिल वर्मा खुद को कुशल महावत साबित नहीं कर पाते हैं. मूवी तगड़े ऐक्शन सीक्वेंसेज से लैस है. देखकर मज़ा आता है. पर वो सीक्वेंस कहानी को आगे बढ़ाने में मदद नहीं करते. फ़िल्म का फर्स्ट हाफ एक ऐक्शन फ़िल्म के लिहाज़ से थोड़ा स्लो है. राइटर्स इसे कहानी बिल्ड करने में ही खर्च कर देते हैं. दूसरे हाफ में फ़िल्म तेज़ी पकड़ती है. पर स्क्रीनप्ले के मामले में कमज़ोर लगती है. कहानी में बहुत कन्फ्यूजन है, स्टोरीटेलिंग की तकनीक और बेहतर हो सकती थी. कुछ सीक्वेंस अनरियल लगते हैं. जैसे: जंजीर के हुक को फेंककर आदित्य रॉय कपूर उड़ने जा रहे हेलीकॉप्टर को नीचे गिरा देते हैं. इसके क्लाइमैक्स को देखकर आजकल इंस्टा पर प्रचलित थप्पड़ों वाली रील्स याद आती हैं. जैसे उसमें आपको कुछ समझ नहीं आता. ठीक वैसे ही यहां भी आप निराश होते हैं. फ़िल्म आप से कहती है: 'मेरे बारे में इतना मत सोचना, मैं दिल में आती हूं समझ में नहीं'.

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कैमरे और लाइटिंग का बढ़िया तालमेल

VFX के मामले में भी 'ओम' एकाध जगह छोड़कर कुछ खास प्रभावित नहीं करती. मिसाइल की टेस्टिंग वाला सीन हद बनावटी लगता है. जैसे किसी कॉलेज गोइंग बच्चे ने उसके VFX तैयार किए हों. सिनेमैटोग्राफी अच्छी है. विनीत मल्होत्रा ने कैमरा और लाइट के संयोजन से कुछ-कुछ दृश्यों में चमत्कार पैदा किया है. पहाड़ी दृश्य भी सुंदर दिखाए गए हैं. ऐक्शन सीक्वेंसेज की एडिटिंग स्मूद और फ़ास्ट है. कहते हैं ऐक्शन शॉट्स कितने भी अच्छे फिल्माए गए हों पर एडिटर के बिना उनमें जान नहीं डाली जा सकती. तो इस फ़िल्म के ऐक्शन में एडिटर कमलेश ने जान डालने की भरपूर कोशिश की है.

फ़िल्म के एक सीन में प्रकाश राज, आशुतोष राणा और जैकी श्रॉफ
आशुतोष राणा का क़ाबिल-ए-तारीफ़ काम 

ओम के रोल में आदित्य रॉय कपूर औसत हैं. उन्होंने बॉडी अच्छी बनाई है. ऐक्शन अच्छा किया है. बस सबसे ज़रूरी चीज़ ऐक्टिंग करना वो भूल गए हैं. काव्या के रोल में संजना भी क्लूलेस नज़र आती हैं. आदित्य की ही तरह उन्होंने भी ऐक्शन अच्छा किया है. रोहित के रोल में विकी अरोड़ा ने ठीक काम किया है. एक अनुभवी अभिनेता के तौर पर जैकी श्रॉफ छाप छोड़ने में नाकाम रहे हैं. वो न्यूक्लियर वैज्ञानिक देव राठौर की भूमिका में और बेहतर कर सकते थे. फ़िल्म में सबसे अच्छा काम किया है जय राठौर बने आशुतोष राणा ने. उनके मुंह से शुद्ध हिंदी में बोले गए डायलॉग बहुत अच्छे लगते हैं जैसे: 'रक्त रहे न रहे, राष्ट्र हमेशा रहेगा'. आशुतोष राणा के बॉस के रोल में प्रकाश राज ने भी बढ़िया काम किया है. अन्य छोटे-छोटे किरदारों में सभी ने औसत अभिनय किया है.

फ़िल्म अपने पहले हाफ जैसी चलती तो इसे एक ठीकठाक कमर्शियल फ़िल्म कहा जा सकता था, पर दूसरा हाफ खेल बिगाड़ देता है. ‘ओम’ अलग-अलग टुकड़ों में ठीक कही जा सकती है, पर एक फ़िल्म के तौर पर ये निराश करती है. हालांकि ये मेरा मानना है. बाक़ी आप फ़िल्म देखेंगे तो संभव है आपकी राय कुछ और हो.   

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