Maa
Director: Vishal Furia
Cast: Kajol, Indraneil Sengupta, Ronit Roy
Rating: 2 Stars (**)
Maa - मूवी रिव्यू
कैसी है काजोल की हॉरर फिल्म 'मां', जानने के लिए रिव्यू पढ़िए.

पिछले साल अजय देवगन की हॉरर फिल्म ‘शैतान’ आई थी. अब काजोल की हॉरर फिल्म ‘मां’ रिलीज़ हुई हैं. दोनों फिल्मों की कहानी में कोई कनेक्शन नहीं हैं. बस ये दोनों एक ही यूनिवर्स के छत के नीचे लाकर रख दी गईं. ये कनेक्शन फिल्म के हित में काम नहीं करता. ऐसा क्यों है, उस पर भी आएंगे. लेकिन पहले ‘मां’ फिल्म की कहानी से शुरू करते हैं.
फिल्म की कहानी आज से 40 साल पहले शुरू होती है. चंदरपुर नाम का एक गांव है. एक परिवार में बेटी का जन्म होता है. सभी में इस बात को लेकर दहशत है. उस परिवार पर दैत्य का श्राप रहा है. ये परंपरा रही है कि जो भी बेटी पैदा होगी, उसकी बलि चढ़ाई जाएगी. इस बच्ची को भी मार दिया जाता है. फिर कहानी आज के समय में पहुंचती है. काजोल का किरदार अंबिका कुछ बच्चों को काली और रक्तबीज की कहानी सुना रही होती है. उन बच्चों में से एक उसकी बेटी श्वेता भी है. श्वेता लगातार अपने पेरेंट्स से एक ज़िद करती रही है. उसे चंदरपुर जाना है. उसे वो गांव देखना है जहां उसके पिता का जन्म हुआ. लेकिन उसके पेरेंट्स हमेशा इस बातचीत को टालने की कोशिश करते हैं. किसी कारण से अंबिका और श्वेता को उस गांव जाना पड़ जाता है. जैसा कि हॉरर फिल्मों में होता आया है, लोग गलत फैसले लेते हैं और दैत्य की नज़र श्वेता पर पड़ जाती है. अब अंबिका अपनी बेटी को बचाने के लिए क्या-कुछ करेगी, यही फिल्म की कहानी है.

‘मां’ को विशाल फुरिया ने डायरेक्ट किया है. मराठी हॉरर फिल्म ‘लपाछपी’ भी उन्होंने ही बनाई थी. ‘लपाछपी’ के हिंदी रीमेक ‘छोरी’ को भी विशाल ने ही डायरेक्ट किया था. अपनी पिछली फिल्मों की तरह वो ‘मां’ को भी टिपिकल हॉरर फिल्म बनाने से बचे. हालांकि वो बात अलग है कि कुछ पॉइंट्स पर ऑडियंस को डराने के लिए जम्प-स्केर का इस्तेमाल किया गया. इस टेक्नीक को आपने दर्जनों हॉरर फिल्मों में देखा होगा, जहां अचानक से कोई किरदार प्रकट हो जाता है. मेकर्स ने पितृसत्ता को ‘मां’ का असली हॉरर बनाने की कोशिश की है. कुछ ऐसा ही ‘स्त्री’ ने भी किया था. बस दोनों फिल्मों में अंतर ये है कि ‘स्त्री’ के पास स्पष्टता थी. ‘मां’ के केस में ऐसा नहीं है.
फिल्म का फर्स्ट हाफ अपनी दुनिया को सेटअप करने में बहुत समय लेता है. शुरुआती सीन में आपको रक्तबीज की कहानी सुनाई जाती है. फिर इंटरवल से पहले उस राक्षस की कहानी बताई जाती है जिससे चंदनपुर का गांव त्रस्त है. राइटिंग के लिहाज़ से भले ही मेकर्स ने गैर-ज़रूरी चीज़ें भरने की कोशिश नहीं की. लेकिन जो दिखाया गया, वो उसी के आसपास बार-बार घूमते रहे. आपको महसूस होता है कि एक ही जानकारी आपके पास अलग-अलग माध्यमों के ज़रिए पहुंच रही है. फिल्म का फर्स्ट हाफ इस सेटअप में निकलता है कि अंबिका और दैत्य की भिड़ंत होने वाली है.

इंटरवल आता है. अब सेकंड हाफ में आप इस इंतज़ार में हैं कि अंबिका अपने मकसद के करीब कितना जल्दी पहुंचती है. मगर यहां फिल्म का विज़न थोड़ा गड़बड़ा जाता है. मेकर्स आपको चौंकाने के लिए एक प्लॉट ट्विस्ट डालते हैं. हालांकि फिल्म खत्म होने के बाद आपको एहसास होता है कि उस ट्विस्ट से ज़्यादा कुछ नहीं बदलता. अगर वो कहानी में नहीं भी होता तो भी नेरेटिव पर असर नहीं पड़ता. उस प्लॉट ट्विस्ट में जिस किरदार को दिखाया गया, वो बस पितृसत्ता का एक रुपक ही बनकर रहता है. जबकि आप पहले ही उस दैत्य के रूप में ऐसा कर चुके थे.
राइटिंग में जो खामियां थी, उन्हें ये फिल्म ट्रीटमेंट के ज़रिए भरने की कोशिश करती है. जैसे फिल्म का क्लाइमैक्स सीक्वेंस मज़बूत था. ये आपका ध्यान खींचकर रखता है. हालांकि जिस तरह से अंबिका दैत्य को मारती है, वो बहुत हड़बड़ी में निपटा दिया गया. उस हिस्से को स्पेस दिया जा सकता था. क्लाइमैक्स से इतर यहां काजोल का काम भी प्लस पॉइंट्स में से एक था. फिल्म में दुर्गा पूजा का एक हिस्सा है. दिखाया जाता है कि वहां अंबिका को दुर्गा का आशीर्वाद मिल चुका है. अब अगले सीन में वो जंगल में अपनी बेटी को ढूंढने जाती है. बहुत लंबे समय तक एक्शन और मारधाड़ वाला सिनेमा पुरुषों के इर्द-गिर्द ही घुमा है. ऐसे में अगर यहां कोई मेल किरदार होता तो उसे रफ एंड टफ टाइप ज़ोन में दिखाया जाता. कि अब वो किसी भी आपदा से भिड़ने को तैयार है. मगर काजोल का किरदार अंबिका ऐसा नहीं करता. उसके चेहरे पर अभी भी बेटी के प्रति चिंता के निशान हैं. उसकी आंखें दूसरी दिशाओं में भी दौड़ रही हैं. कुलमिलाकर वो वल्नरेबल है, एक इंसान है. काजोल ने उस किरदार को सही मात्रा में उसकी इंसानियत दी है, यही इस फिल्म में उनके काम की हाइलाइट बना.
‘मां’ खत्म हो जाने के बाद एक पोस्ट-क्रेडिट सीन भी है. मेकर्स ने इस सीन के ज़रिए फिल्म को ‘शैतान’ से बांधना चाहा. लेकिन ये ऐसा था जैसे बस उस नाम को भुनाने की कोशिश की गई हो. ‘मां’ में जो कहा गया, वो पहले भी कई हिंदी फिल्मों में कहा जा चुका है. ऐसे में फिल्म के पास कुछ अलग करने की गुंजाइश थी. मगर वो ऐसा नहीं करती. वो बस पहले से खींची हुई रेखा को और लंबा करना चाहती है. उससे अलग जाकर अपने नाम का निशान बनाने में उसकी कोई रुचि नहीं थी.
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