एक सीन में मोहन राव नाम का किरदार शालिनी से कहता है-
नाच गाना पेंटिंग पोएट्री, ये सब कला नहीं बला है. आर्ट फार्ट. समय भी बर्बाद होता है और दिमाग भी खराब होता है.
यही मोहन राव रात ढलने के बाद अपने कमरे का दरवाजा बंद करके धीमी आवाज़ में आंख बंदकर नूरजहां को गाते सुनता है-
मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग.
'तालिबान' और ISIS की तरह यहां भी चौराहे पर लोग फांसी चढ़ाए जाते हैं. फिल्म के एक सीन में भानु शालिनी से कहता है-
दीक्षित सर मारे गए. पति-पत्नी दोनों को बीच चौराहे पर लटका दिया. लोग ताली मार रहे थे, जब उनकी गरदन टूटी.
इसी सीन में आगे भानु कहता है-
चॉइस तो आर्यावर्त में किसी के पास नहीं है शालिनी.
झुग्गी में रहने वाली 'रूप' जो पूंजीवाद को गाली देती है और समय आने पर शालिनी की हेल्प भी करती है. (लैला के यू ट्यूब ट्रेलर का स्क्रीन ग्रैब)
'आर्यावर्त' की चमकदार कॉलोनियों में रहने वाले लोग मिडिल लेवल मैनेजमेंट हैं. वे या तो अपने बड़ों से इसलिए डरकर रहते हैं कि अपने से छोटों को डरा सकें या अपने से छोटों को इसलिए डराते हैं क्योंकि उन्हें ऊपर से डराया गया है. या शायद ये दोनों चीज़ें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. कारण जो भी हो, एक डर का समाज निर्मित हो चुकता है. जहां जो डर गया, समझो मरने से बच गया. ये 'शोले' के गब्बर का जंगलराज नहीं, 'लैला' के 'जोशी' का 'एनिमल फार्म' है. फार्म, जहां 'इंसान' पाले जाते हैं. इंसान जो शायद मैट्रिक्स की तरह ही सोये हुए हैं. बस उसकी तरह सोये दिखते नहीं. ये ऐसी तानाशाही है, जहां समान विचारधारा वालों को तरक्की मिलती है. जहां असमानता को छुपाने की भी कोशिश नहीं की जाती.
कुछ दिनों पहले मैं जावेद अख़्तर को सुन रहा था, उन्होंने ठीक-ठीक क्या कहा याद नहीं. मगर सार यही था कि- मुझे एज़ अ मुस्लिम उतना ही डर लगता है जितना आपको एज़ अ हिंदू लगना चाहिए. डर अगर होगा तो हर कहीं होगा. डराने वाले समर्थकों को डर लगेगा. ये छोटी सी बात है, लेकिन बड़ी 'बैंग ऑन टारगेट'.
सीरीज़ के एक एपिसोड में एक बड़ा सा शॉपिंग मॉल है. वहां हफ्ते भर से कोई ग्राहक नहीं आया. और जो सबसे पहला है उसे 10% का डिस्काउंट इसलिए क्योंकि वो पहला है. शायद पूंजीवाद यहां अपने सबसे भयानक रूप में सामने आता है. जहां पूंजी नहीं. रुपया पैसा हो तो हो, पर पूंजी नहीं. पानी नहीं. जंगल, पर्वत, हवा. कुछ नहीं. जीने की बुनियादी चीजें नहीं हैं. गैरज़रूरी कूड़े से बाज़ार लदा है.
ये वेब सीरीज़ का कोई सीन नहीं, दिल्ली का गाज़ीपुर है. इसके बारे में हाल ही में खबर आई थी कि इसकी ऊंचाई ताजमहल से भी ज़्यादा होने जा रही है. (तस्वीर- रॉयटर्स)
ये शॉपिंग मॉल वाला सीन लैला का एक डरावना सीन है, जहां ये खाली सुनसान सा शॉपिंग मॉल चाइना की किसी 'घोस्ट सिटी' का प्रतिनिधित्व करता है. यहां से निकलने वाले खरीददार को सोचिए किस बात की सबसे ज़्यादा चिंता है? उसकी प्रायॉरिटी लिस्ट में सबसे ऊपर क्या है? वो निकलने से पहले कौन सी चीज़ सुनिश्चित करना चाहता है? ये कि उसकी खरीददारी के रिवॉर्ड पॉइंट्स उसके अकाउंट में जुड़े या नहीं.
'एनिमल फार्म' का रेफरेंस दिया था ऊपर. इसे लिखा था जॉर्ज ओरवेल ने. उनकी दूसरी किताब है- 1984. इसी का ही एक भारतीय वर्ज़न है लैला. कहीं पढ़ा था कि लेफ्टिज़्म अपने एक्सट्रीम में अगर डिक्टेटरशिप हो जाती है तो राइट हो जाता है फासिज़म. इसलिए लैला '1984' के लेफ्ट का ही दक्षिणपंथी वर्ज़न है. 'बिग ब्रदर आपको देख रहा है'. जोशी आपको देख रहा है. कुछ महीनों पहले 'घोउल' आई थी. जिसमें किताबें जलाई जाती हैं. 'लैला' उन किताबों के जल चुकने के बाद के समाज को दिखाती है.
वो जहां जब हमारे दिमाग को ग़ुलाम किया जाता है, तो उसमें सबसे पहले ये फीड किया जाता है कि तुम आज़ाद हो.
सिंगल मदर का अपनी बेटी को खोजना और उस दौरान उसे किसी धार्मिक संस्थान या ऐसे किसी ऑर्थोडॉक्स कॉज़ से जबरिया/उसकी मर्ज़ी के बिना जोड़ देना, ये परमाईस 'द हैंडमेड्स टेल' नाम की अमेरिकी वेब की कॉपी लगता है. जो लोग ये तर्क रखेंगे कि, ‘लैला’ प्रयाग अकबर की लिखी हुई इसी नाम की बुक का अडॉप्टेशन है, उनको बताना चाहूंगा कि ‘दी हैंडमेड’स टेल’ भी मार्गरेट की लिखी हुई इसी नाम की बुक का अडॉप्टेशन है.
‘द हैंडमेड्स टेल’ में 'व्यभिचार' का आरोप लगाकर औरतों को एक सेक्स स्लेव बना के सिर्फ और सिर्फ इसी लिए जिंदा रखा जाता है ताकि इनसे बच्चे पैदा करवाएं जाएं. (स्क्रीन ग्रैब- द हैंडमेड्स टेल के यू ट्यूब ट्रेलर का स्क्रीन ग्रैब)
'हैंडमेड' को भी लैला की तरह, लेकिन उससे भी ज़्यादा शार्प विज़न कहा जा सकता है जो आपको दिखा देता है कि आज आप जिस व्यवहार को (इंटरकास्ट मैरिज, लिव इन, गे-लैस्बियन रिलेशन वगैरह) को व्यभिचार/पाप का टैग देकर पुरातन समाज को ग्लोरीफाई करते हो, उस पुरातन समाज में क्या-क्या हो सकता है.
'ये कलयुग है. कलयुग के बाद फिर से सतयुग को आना है.' इस पर विश्वास करते हुए आज समाज के हर क्षेत्र में 'आ अब लौट चले' का रिवाज नहीं एक अभियान शुरू किया जा रहा है. दुनिया के हर कोने से आवाज़ें आना शुरु हो गई हैं. इस कलयुग में व्यभिचार फैला दिया गया है, हमें पुनः अपने उत्थान की तरफ जाना होगा. इतिहास जानता है कि विश्व के किसी भी धर्म ने अपने प्रारब्ध में ही स्त्रियों को समान अधिकारों से वंचित रखा है. हर धर्म में स्त्री का एकमात्र धर्म खून की शुद्धता को बनाये रखना और वंशवृद्धि करना ही रहा है. समाज में जब भी रूढ़िवादिता आने लगती है तो उसका सीधा और पहला प्रभाव स्त्रियों पर पड़ता है. फिर चाहे स्त्रियां कितने की ऊंचे तबके, कुल या समाज से क्यों न हो. 'हैंडमेड' में पति अश्वेत था तो यहां लैला में मुस्लिम.
'लैला' और 'द हैंडमेड्स टेल' के मेन प्लॉट बीच कई और समानताएं हैं. लेकिन अब हम लैला के एक दूसरे सब-प्लॉट की बात करें तो, वो 'स्काई डॉम' के नज़दीक घूमता है. स्काई डॉम, जोशी (संजय सूरी) का एक अति-महत्वाकांक्षी प्रॉजेक्ट. जिसमें प्रदूषण और बेकाबू हो चुके मौसम की मार झेल रहे आर्यावर्त को एक पारदर्शी गुंबद से छा दिया जाएगा. ये डॉम आर्यावर्त को सारी प्राकृतिक आपदाओं से बचा ले जाएगा. मगर इसकी कीमत है. ये कीमत उन्हें चुकानी होगी, जो इस स्काई डोम से बाहर रहते हैं. अमेरिका और यूरोप के देश प्रगति करते हैं, तो आर्कटिक में वॉलरस मरते हैं. ईस्ट अफ्रीका में कूड़ा बढ़ता है. बस यही हाल स्काई डॉम का भी है.
जोशी (संजय सूरी) एक इंसान से प्रोपोगेंडा ज़्यादा लगता है. डर की ह्यार्की का हेड. (लैला के यू ट्यूब ट्रेलर का स्क्रीन ग्रैब).
डिमोलिशन मैन. एक हॉलीवुड मूवी थी. उसकी भी रह-रहकर याद आती रही. उसमें भी समाज इतना परफेक्ट कि गाली देने पर भी आपको एक स्लिप पकड़ा दी जाएगी. इतना शिष्ट कि सेक्स भी बुरा माना जाने लगेगा. इतनी शांति की पुलिस वाले डिफेंस करना, लड़ना भूल चुकेंगे. ऐसा कैसे हो सकता है? फिर राज़ खुलता है कि यदि धरती के ऊपर एक आर्यावर्त है तो धरती के नीचे, अंडरग्राउंड में वो लोग रहते हैं जो भूख मिटाने के लिए चूहे खाने पड़ते हैं. वही अमेरिका, यूरोप की प्रगति और ईस्ट अफ्रीका में बढ़ रहे कूड़े के ढेर का सटल रिलेशन.
सीरीज़ में एक बहुत बड़ी कमी है कि किसी करैक्टर का 'करैक्टर आर्क' विकसित नहीं होता. एक छोटी, झुग्गी में रहने वाली लड़की एक बड़ा किरदार निभाकर गायब हो जाती है, लेकिन उसे लेकर शालिनी बिल्कुल चिंतित नहीं दिखती. या चिंतित दिखती भी है तो उसे सायस ढूंढने का प्रयास नहीं करती. कुछ करैक्टर्स जैसे हैं, वैसे क्यूं है इसका उत्तर नहीं मिलता. कुछ परिस्थितयां जैसी हैं, वैसी क्यूं हैं, ये सवाल भी अनुत्तरित रह जाता है. मैंने वो किताब नहीं पढ़ी, जिसपर ये सीरीज़ बेस्ड है इसलिए ये 'बेनिफिट ऑफ़ डाउट' दिया जा सकता है कि शायद इसके और सीज़न आएं और सारे नहीं भी तो कई सवालों के उत्तर उनमें दे दिए जाएं. और वैसे भी जिस तरह से ये सीरीज़ समाप्त हुई है, वो एक और सीज़न की संभावना बनाती है.
एक और कमी है इसकी डार्कनेस. जब आप कोई इतना डार्क कॉन्सेप्ट रखें तो कम से कम कुछ ह्यूमर या कुछ 'इस्केप मोमेंट्स' तो रखें ही. होने को ऐसी चीज़ें बनी हैं जो मृत्यु के स्तर तक डार्क हैं लेकिन फिर आपको हमेशा अपने टारगेट ऑडियंस का खयला रखना चाहिए. 'आर्ट' क्रियेट करने का दंभ वेब सीरीज़ के पहले सीन से अंतिम सीन तक बना रहता है. इसके लिए फैज़ की गज़लों का भी आश्रय लिया जाता है, लेकिन वो भी बहुत प्लास्टिक लगता है. यानी ओवरऑल दिक्कत ये है आपने कॉन्सेप्ट कमाल का चुना 10 में से 7 अंक वहीं पा लिए, लेकिन बाकी 3 अंक पाने के लिए आपने ज़्यादा एफर्ट नहीं किए.
सिद्धार्थ के किरदार से 'भगत सिंह' का चित्र शायद इसलिए उभरता है क्यूंकि ऐसा ही किरदार उन्होंने रंग दे बसंती में भी किया था, हां लेकिन यहां पर उसके किरदार के कुछ ब्लैक और ग्रे शेड्स भी हैं. (लैला के यू ट्यूब ट्रेलर का स्क्रीन ग्रैब)
लैला का एक ड्रॉबैक ये भी है कि ये लेफ्ट आइडियोलॉजी को रेस्क्यू के रूप में देखता है. लेकिन ये बात इसमें इतनी सटल है कि यूएस की स्ट्रीमिंग वेबसाइट नेटफ्लिक्स को शायद इसका पता नहीं चल पाया.
आर्ट सत्ता के हाथ की कठपुतली बन जाता है, लेकिन वो आर्ट ही है जो सत्ता चंद लोगों से छीनकर पूरे समाज को दे देता है. 'लैला' नाम के आर्ट की अपनी कमियां होंगी जिनकी समीक्षा टेक्निकल स्तर पर कीजिए, लेकिन स्वीकार कीजिए कि कई पैरलल यूनिवर्सेज़ में इस वाले भविष्य की संभावना बहुत ज़्यादा है. बल्कि कई चीजें तो हो भी रही हैं. बस हमसे दूर घट रही हैं, तो हमारा हिस्सा नहीं बनीं. हमको लगता है हमारे साथ नहीं होगा. अगर आप पॉज़टिव होकर सोच रहे हैं कि ऐसा, इतना बुरा, संभव नहीं. तो दूसरा पक्ष सोचिए- क्या पता भविष्य नाम की वास्तविकता इससे भी डरावनी हो. क्योंकि ये तो तय है कि और कुछ न सही, तो भी हवा-पानी का ख़ौफ तो लगभग तय ही है. हम जिस हाल में हैं, आगे हमें और हमारी पीढ़ियों को शायद पानी के लिए एड़ियां घिसते हुए मरना होगा. कब, पता नहीं. मगर बहुत जल्द, ये तय है.
बाकी जो 'इस्लामोफोबिया' लैला का हिस्सा है, उसका कुछ तो आस-पास दिखता भी है. आप शायद कहें कि ये इस्लामोफोबिया आपको नहीं दिखता. यहूदियों को लेकर जर्मनी में जो नफ़रत थी, वो भी अगर समय रहते जर्मनी वालों को दिख गईं होतीं तो वो भी सदियों तक चलने वाली ग्लानि से बच गए होते.
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मूवी रिव्यू: कबीर सिंह-