
फिल्म का पोस्टर.
कहानी है एक रोड ट्रिप की. बस ट्विस्ट इतना है कि न तो ये रोड ट्रिप घूमने-फिरने के मकसद से शुरू हुई है और न ही इसके मुसाफ़िर एक जैसी सोच वाले हैं. तीन अलग-अलग एज ग्रुप के लोग हैं जो एक विचित्र परिस्थिति में एक साथ सफ़र कर रहे हैं. ये तीन लोग हैं:
अविनाश - एक आईटी कंपनी में नाइन टू फाइव की जॉब करता लड़का. बैंगलोर में एक ऐसी कंपनी का मुलाज़िम है जिसकी दीवार पर बतौर मोटो लिखा है, 'शिकायतें न कीजिए, बेरोज़गारी और भी ज़्यादा बुरी चीज़ है.' अविनाश है तो सॉफ्टवेयर इंजीनियर लेकिन बनना चाहता था फटॉग्राफर. पिता ने शौक़ छुड़वा दिया और इंजीनियरिंग करवा दी. तभी से पिता से नाराज़ है. इतना कि बरसों से बात भी नहीं की है. पिता का ज़िक्र करते हुए अफ़सोस से कहता है कि 'मेरे बहुत साल उन्हें फिगर आउट करने में लग गए और उनकी काफी उम्र मुझे जज करने में'.

अविनाश राजपुरोहित.
दूसरी है तान्या. 18-19 साल की लड़की जिसके तेवर बग़ावती हैं. जो जीवन को लापरवाही की हद तक खुल के जीती है. जीवन को एडवेंचर समझती है और केयरलेस होने के मामले में गोल्ड मेडलिस्ट है. पिता के मामले में कमनसीब है. जब आठ साल की थी तभी वो कैंसर का शिकार हो गए थे.

तान्या.
तीसरे शख्स हैं शौकत साहब. अपने इरफ़ान. अविनाश का वो दोस्त जिसकी वैन में ये सफ़र हो रहा है. शायराना मिज़ाज का, मस्तमौला आदमी. वैन पर भी मजरूह सुल्तानपुरी साहब का शे'र लिख रखा है. पिता के डिपार्टमेंट में उसके हाथ भी कुछ ख़ास नहीं लगा है. सबसे कहता रहता है कि उसने अपने पिता को कभी नहीं देखा. कुरेदने पर बताता है कि 'बेवडे के पीछे जो बाप था उससे मैं कभी मिला ही नहीं. इसीलिए ऐसे बोल देता हूं.'

इरफ़ान इस फिल्म में फुल फॉर्म में हैं.
जिस सिचुएशन में इन्हें सैकड़ों किलोमीटर का सफ़र साथ करना पड़ रहा है वो अजीबोगरीब है. अविनाश के पापा की डेथ हो गई है. गंगोत्री में. टूर वालों ने लाश पैक करके भेज तो दी लेकिन ग़लत वाली. पिता की बॉडी की जगह किसी अंजान महिला की लाश पहुंची है. छानबीन करने पर पता चलता है कि वो कोच्ची की किसी महिला की मां है. वो नहीं आ सकती तो इन्हें ही जाना होगा अदलाबदली करने. साथ ही रास्ते से मरहूम की नवासी को भी कलेक्ट करना है. अविनाश लाश को अपने दोस्त शौकत की वैन में डालता है और रास्ते से तान्या को लेता हुआ चल पड़ता है.
इस सफ़र के दौरान तीन अलग-अलग माइंडसेट के लोग अपने जो तजुर्बे इकट्ठा करते हैं वही है 'कारवां'. कभी गुंडों के हमले से दो चार होते तो कभी अविनाश की पुरानी गर्लफ्रेंड से मुलाक़ात करते सफ़र जारी रहता है. इस सफ़र का जो हासिल है वो ये कि, अविनाश को अपने पिता का रवैया समझ में आता है, शौकत को मुहब्बत मिलती है और तान्या ये बेशकीमती सबक सीखती है कि बेवकूफी और बहादुरी में फर्क होता है.

विचित्र सफ़र.
एक्टिंग के फ्रंट पर तीनों ही कलाकार बेहद उम्दा काम कर गए हैं. दलकीर सलमान साउथ के बड़े स्टार हैं. मलयालम फिल्मों में उनका तगड़ा नाम है. अपनी पहली हिंदी फिल्म में उन्होंने बेहद कन्वींसिंग एक्टिंग की है. थर्टीज़ की उम्र का फ्रस्टेटेड युवक जो अपने पिता से नफरत करता रहा है. साथ ही अपने मरे हुए सपनों का बोझ ढो रहा है. जो इतना स्ट्रेस्ड रहता है कि हंसना भूल गया है. जो ज़रा से भी एडवेंचर को मूर्खता समझता है. ये सब दल्कीर ने बेहद सफाई से कन्वे किया है परदे पर. इस फिल्म के बाद आप दलकीर की और फ़िल्में देखना चाहेंगे.
मिथिला पालकर एक और सरप्राइज़ पैकेज हैं. अब तक फिल्मों में छोटे-मोटे रोल्स में नज़र आई मिथिला का ये पहला बड़ा ब्रेक है. और इसे उन्होंने पूरी शिद्दत से निभाया है. टीन एज की बेपरवाई उनके किरदार से बाखूबी झलकती है. इरफ़ान के होते हुए किसी और का नोटिस में आना मुश्किल ही होता है. बावजूद इसके दलकीर और मिथिला अपनी मौजूदगी कामयाबी से दर्ज कराते हैं.

मिथिला और दलकीर इम्प्रेस करते हैं.
बचे अपने शौकत मियां! तो उनके तो क्या ही कहने! ये अलग से कहने की ज़रूरत ही नहीं है कि इस आदमी को जो कुछ भी दो ये उसके साथ पूरा धमाल करता है. चाहे अविनाश को जीवन का फलसफा सिखाना हो या राह में टकराई किसी बुरकानशीन से इश्क फरमाना, सबकुछ एफर्टलेस तरीके से होता रहता है. डायलॉग डिलीवरी में तो इस इरफ़ान का हाथ पकड़ना मुश्किल ही है. 'भाई तू साउथ का नेल्सन मंडेला है' जैसे डायलॉग बोलते वक़्त उनकी कॉमिक टाइमिंग किसी और ही दुनिया की चीज़ मालूम पड़ती है.
एक सीन में हॉस्पिटल की एक नर्स उन्हें ज़रा रफली हैंडल करती है. वो स्ट्रेट फेस से कहते हैं, 'आपके सिस्टम में न कसाई की ऐप डाउनलोड हो गई है.' उस वक़्त परदे पर एक आदमी कराह रहा होता है फिर भी आप ठहाका लगाने से खुद को रोक नहीं पाते.

इरफ़ान के निजी जीवन की ट्रेजेडी के बाद उन्हें परदे पर इस तरह देखना सुखद है. चहकते हुए इरफ़ान को देखकर आप यही दुआ करते हैं कि ये आदमी जल्दी से ठीक होकर घर आ जाए बस!
हमारे यहां राइटर्स का क्रेडिट खा जाने की एक प्रथा सी है. इस फिल्म के मामले में ऐसा करना अन्याय होगा. जितनी ख़ूबसूरत बिजॉय नांबियार की कहानी है उतने ही चुटीले, चटपटे हैं हुसैन दलाल के डायलॉग्स. कभी बेहद फनी तो कभी बेहद फलसफाई. लेकिन हर हाल में रोचक.
अविनाश अरुण का कैमरावर्क अद्भुत है. उन्होंने इस कलात्मकता से साउथ इंडिया की, ख़ास तौर से केरला की ब्यूटी को कैमरे पर कैप्चर किया है कि आपका मन करता है आप बैग पैक कर लें और केरला के लिए निकल पड़ें. उनके काम की तारीफ़ के लिए इसी फिल्म से एक डायलॉग उधार लेना पड़ेगा जो दलकीर एक सीन में मिथिला से कहते हैं. 'Photography is all about capturing a moment, not creating a moment out of nowhere.' अविनाश अरुण ने इस पूरी फिल्म में ऐसे बेशुमार मोमेंट्स कैप्चर किए हैं. फुल मार्क्स.

कैमरावर्क बेहद शानदार है.
डायरेक्टर आकर्श खुराना फिल्म का पेस बनाए रखते हैं. कहीं भी बोझिल नहीं होने देते. उनसे उम्मीदें बढ़ गई हैं.
कुल मिलाकर 'कारवां' मीठी सी फिल्म है. वीकेंड पर परिवार के साथ देखने लायक है. ज़रूर देखिएगा. निराश नहीं होंगे.
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