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फिल्म रिव्यू हरामखोर: ट्यूशन टीचर और नाबालिग स्टूडेंट का गैर-बॉलीवुडिया इश्क़

श्वेता त्रिपाठी ने 15 साल की लड़की का रोल निभाया है. वो साढ़े पंद्रह की भी नहीं लगी है.

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फोटो - thelallantop

हरामखोर!

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श्लोक शर्मा. जिनकी ये फ़िल्म काफी वक़्त से सेंसर बोर्ड के द्वार पर अटकी हुई थी. इसे रिलीज़ होने में अरसा लग गया. श्लोक का सवाल था - 'अगर कमीने रिलीज़ हो सकती है तो हरामखोर क्यूं नहीं?' खैर, फ़िल्म बाकायदे रिलीज़ हो रही है और अडल्ट सर्टिफ़िकेट के साथ रिलीज़ हो रही है. फ़िल्म किस बारे में है, फिल्म के ठीक पहले एक डिस्क्लेमर में समझा दिया जाता है. बहुत कुछ ट्रेलर से पहले ही मालूम हो गया था. और बहुत कुछ इस बारे में कही जा रही बातों से मालूम हो गया था, क्योंकि फ़िल्म बने हुए काफी वक़्त हो चुका था. फ़िल्म एक लव स्टोरी है. ये लव स्टोरी आम बॉलीवुड लव स्टोरी नहीं है. एक लव ट्राएंगल है, लेकिन आम बॉलीवुड लव ट्राएंगल से अलग है. एक स्कूल है, लेकिन आम बॉलीवुड में दिखाया जाने वाला स्कूल नहीं है. ये एक आम छोटे बजट की फिल्म भी नहीं है.

इक ज़रा स्पॉयलर

एक गांव है. छोटा सा. बमुश्किल सौ परिवार रहते हैं. फ़िल्म में तो 5 भी नहीं दिखते. एक लड़की है. मां छोड़ के चली गई है. पापा के साथ रहती है. पापा पुलिस में हैं. देर रात शराब के नशे में कांस्टेबल के कन्धों का सहारा लेकर घर आते हैं. एक मास्टर है. स्कूल में पढ़ाता है. घर में ट्यूशन पढ़ाता है. जैसा कि हमने देखा है और झेला भी, वही मास्टर स्कूल में पढ़ाता था और उसी से स्कूल के बाद ट्यूशन पढ़ना होता था. सो यहां भी वही हो रहा था. मास्टर एक नंबर के उजड्ड बच्चों से घिरा रहता था. मगर उसके पास संध्या भी पढ़ने आती थी. यहां लव ट्राएंगल बनता है. ट्यूशन में आने वाला कमल संध्या से प्यार करता है. मास्टर, संध्या को भोगना चाहता है. और संध्या मास्टर से प्यार करने लगती है. मास्टर, अपने मंसूबे में कामयाब हो जाता है. (ये एक स्पॉइलर है भी और नहीं भी है क्यूंकि ट्रेलर आप देख ही चुके हैं.) संध्या अडल्ट नहीं है. और उसे बहुत कुछ बातों का अहसास जब तलक होता है, देर हो चुकी होती है. संध्या का बाप, अपनी अलग स्थितियों में जूझ रहा होता है और संध्या को भरपूर प्यार करता है. संध्या से कोई नफरत करता है तो वो है मास्टर की बीवी. अब इन सभी के बीच में जो कुछ भी हो सकता है, कैसे होता है, फिल्म की कहानी है. इसके आगे कुछ भी कहना आपके लिए फ़िल्म का सत्यानाश करना होगा.

फ़िल्म में तीन बातें बहुत अच्छी हैं. पहली - हमारा बचपन. हम में से हर कोई जिसने अपना बचपन करोड़ों के बंगले में नहीं बिताया है, इस फ़िल्म में अपना बचपन ढूंढ सकता है. फिर वो चाहे शक्तिमान की ड्रेस हो. या उंगली में फंसा कर खाये गए चोंगले हों. कई जगह उन्हें पापे भी कहा जाता है. या फिर स्कूल की ड्रेस पहने हुए, स्कूल के बाद अपने पैरों को एक के ऊपर एक रखकर उसके ऊपर से कूदने को कहते हुए दोस्त हों. या फिर ब्रिक गेम खेलता हुआ कोई दिख जाए. जिसे वीडियो गेम कहा जाता है. जिसमें A से लेकर Z तक गेम होते थे. जिस पर लिखा रहता है 2001 गेम्स इन 1. या फिर ट्यूशन में मुर्गा बने हुए लड़के हों. या फिर मास्टर को अपनी बीवी से झगड़ा करते हुए छुपकर देखते बच्चे हों. या फिर वही बच्चे मास्टर की साइकिल की हवा निकाल रहे हों. दूसरा - मिंटू और कमल की दोस्ती. ये दोस्ती हममें से हर किसी को बहुत कुछ याद दिलाएगी. उन दोस्तों के बारे में जिनके साथ आपने धार लड़ाई थी. वो दोस्त जिन्हें आपने सबसे पहले बताया था कि आपको फलानी लड़की पसंद है. वो दोस्त जिसे आप ये तक गिना सकते हैं कि आपकी चड्ढी में कितने छेद हैं. यहां तक कि सबूत के तौर पर आप उसे अपनी चड्ढी दिखा भी दें. मिंटू के हाथ टूटे हुए थे. मिंटू रोज़ सुबह उसका पिछवाड़ा धोता था. कमल वहां निबटान करता था जहां से उसे संध्या स्कूल जाते हुए दिख सके. और मिंटू, कमल का पिछवाड़ा धोते हुए कहता था, "अबे हग के सौंचना तो आया नहीं. तू प्यार करेगा?" तीसरा - ये सेंसिटिव मामला है. मास्टर श्याम बिजली घर के पास संध्या से मिलता है. स्कूल के बाद. संध्या अपनी लूना से आई थी. मास्टर अपनी साइकिल से. संध्या वो करने जा रही थी जो मास्टर के लिए एक अपराध बनने वाला था. न मास्टर मानता है न संध्या को कुछ समझ में आता है. एक लॉन्ग शॉट है. फ्रेम के बीचों-बीच संध्या और मास्टर हैं. मास्टर कुछ हिचकिचाहट के बाद संध्या पर टूट पड़ता है. वो झपटता है. संध्या पर. वैसे जैसे हफ़्तों से भूखे किसी शेर की दबोच में कोई हिरन का बच्चा आ गया हो. मैंने ऐसा एक हिरन और शेर के बीच ऐसे किस्से कई बार डिस्कवरी चैनल पर देखे हैं. उन दृश्यों को मेरी मां नहीं देख पाती हैं. स्क्रीन पर चल रहे उस सीक्वेंस को देखते वक़्त मुझे हलक में कुछ अजीब सा होता हुआ लग रहा था. आप ऐसा सोच सकते हैं कि एक मास्टर और स्टूडेंट (जो अडल्ट नहीं है) के बीच में क्यूं नहीं वो सब कुछ हो सकता है. तब जबकि स्टूडेंट की मर्ज़ी हो. मगर जब आप उस सीक्वेंस को देखेंगे तो आपको सारे जवाब खुद ही मिल जायेंगे.
श्लोक शर्मा ने जब इस फिल्म का ट्रेलर लॉन्च किया था तो काफी निराश किया था. इस फिल्म के बारे में बहुत कुछ सुना था और सब कुछ ही अच्छा सुना था. मगर ट्रेलर हल्का था. पर फिर भी, चूंकि श्लोक ने जिस तरह का काम किया है, उसे ध्यान में रखते हुए ये पूरा विश्वास था कि फ़िल्म में ज़रूर कुछ होगा. जो सच निकला. बॉम्बे मिरर शॉर्ट फिल्म ने श्लोक शर्मा को पहचान दिला दी थी. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर में अनुराग कश्यप की शागिर्दगी रंग ला रही थी. हरामखोर की ही तरह एक और फ़िल्म पेड्लर्स लटकी हुई है. उसे भी रिलीज़ का इंतज़ार है. फिल्म में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने वैसा ही काम किया है जैसा वो हमेशा करते हैं. ये आदमी एक्स्प्रेशन्स न बाप बन गया है. टाइमिंग गज़ब की है. हमेशा ही रही है. श्वेता त्रिपाठी ने 15 साल की लड़की का रोल निभाया है. वो साढ़े पंद्रह की भी नहीं लगी है. ठीक पंद्रह. ये ही अपने आप में गज़ब है. बालों में इतना तेल की कम से कम एक बर्थडे पार्टी की पूड़ियां उसमें तल ली जायें. बालों में प्रचुर तेल ही इस बात का इंडिकेशन भी है कि इस फिल्म में किस कदर महीन बातों का ध्यान रखा गया है. और इन्हीं वजहों ने हरामखोर को एक 'आपत्तिजनक' टाइटल के बावजूद देखने लायक फ़िल्म बनाया है. देख के आइये.

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