डिज़्नी प्लस हॉटस्टार पर Gulmohar रिलीज़ हुई है. शर्मिला टैगोर, मनोज बाजपेयी, सिमरन और सूरज शर्मा जैसे एक्टर्स ने फिल्म में काम किया है. कुछ पॉइंटर्स में फिल्म के बारे में जानेंगे. इसकी अच्छी-बुरी और उनसे परे तमाम बातें. शुरुआत कहानी से.
फ़िल्म रिव्यू - गुलमोहर
‘गुलमोहर’ परिवार की कहानी दिखाने के चक्कर में ज्ञान देने की कोशिश नहीं करती. किसी को अच्छे या बुरे के रंग में नहीं रंगती.

# दिल्ली में एक घर है, गुलमोहर विला. पुश्तैनी धरोहर है. घर में बसता है बत्रा परिवार. उनकी मां ने ये घर बेच दिया है. चंद दिन हैं उनके पास. उसके बाद नए घर जाना होगा. इन चंद दिनों की मोहलत मां ने ली है. वो चाहती है कि पूरा परिवार एक आखिरी बार साथ होली मनाकर इस घर से विदा हो. होली आने तक इन लोगों के बीच उस एक छत के नीचे क्या घटता है, यही फिल्म की कहानी है. कैसे एक घर में सबने अपने अलग-अलग मकान बना रखे हैं. कैसे हर कोई किसी-न-किसी इनसिक्योरिटी से लड़ रहा है. उसे हंसी-खुशी के नीचे सरका कर अपना दिन शुरू कर रहा है. यही बातें अब सतह से ऊपर उठकर आने लगती हैं. ऐसी बातें जो दूसरों से पहले उन्हें खुद असहज कर देंगी.
# ‘गुलमोहर’ को लिखा है अर्पिता मुखर्जी और राहुल चिटेला ने. राहुल ही फिल्म के डायरेक्टर भी हैं. फिल्म की लिखाई को लेकर सबसे पहला पॉइंट तो ये है कि लिखने वालों की ह्यूमन इमोशन को लेकर समझ बहुत गहरी है. फिल्म को शुरू हुए कुछ मिनट बीतते हैं और इतने में ही आप खुद को उनकी दुनिया में उतरते पाते हैं. ये नहीं लगता कि किसी अजनबी परिवार की कहानी चल रही है. दो घंटे 12 मिनट की फिल्म में सिर्फ कोई एक किरदार मुख्य नहीं है. सब उतने ही अहम हैं. सबकी बेचैनी, सबकी चिंताएं, सबकी कुंठाएं उतनी ही अहम हैं. हम हर किरदार को इतना जान लेते हैं कि उनके बारे में अलग से कई पन्ने लिख दिए जाएं.
# बत्रा परिवार की आपसी कशमकश के ज़रिए फिल्म एक कॉमन थीम एक्स्प्लोर करना चाहती है. वो है अपनापन तलाशने की. किसी का होने की. जिसे अंग्रेज़ी में Sense of Belongingness भी कहा जाता है. दिन-भर की थकान, दुनिया से लड़-भिड़कर आने के बाद इंसान अपने घर आना चाहता है, अपनों के करीब पहुंचना चाहता है. और यही एक घर का आइडिया भी है. ईंट-पत्थरों के ढांचे से परे एक ऐसी जगह, या कुछ ऐसे लोग जहां वो ये अपनापन महसूस कर सके. कई बार ये अपनापन बाहर खोजे नहीं मिलता. खुद में खोजना पड़ता है. जब आप अपने सच से खुद को मुक्त कर लें, तब कहीं छंटते बादलों के बाद दिखने वाले चमकते सूरज की तरह ये फीलिंग मिलती है.
लेकिन जब तक उस एहसास तक नहीं पहुंच पाते, तब तक सिर्फ आसपास पसरी उदासी दिखती है. ऐसी उदासी गुलमोहर विला के कोनों में भी पसरी है. घर के अंदर अपना घर बना चुकी है. किरदारों के साथ जीवंत प्रतीत होती है ये उदासी. अगर उंगलियों से इसे छूने की कोशिश करें, तो हाथों पर हल्का नीला रंग चढ़ जाए.
# फिल्म का अपनेपन के मतलब को कुरेदना उसकी सबसे अहम थीम है. लेकिन इस बीच ये कुछ छोटे बिंदुओं को भी हाइलाइट करती है. जैसे अपनी सेक्शूएलिटी को अपनाने की कहानी, अनकहे प्रेम की कहानी और अपनी धरोहर को सहेजने की कहानी. गुलमोहर विला बेच दिया जाता है. एक बिल्डर उसे तोड़कर बिल्डिंगें बनाएगा. हम एक किरदार को कहते हुए सुनते हैं,
पुश्तैनी अमीर भी अपना घर बेच रहे हैं. बड़ी-बड़ी बिल्डिंग खड़ी कर के दिल्ली का नक्शा ही बदल देंगे.
आधुनिकीकरण के सामने किसी की धरोहर नहीं बच रही. फिल्म में एक और सीन है. यहां एक किरदार कोई गाना लिखती है. उसके आसपास के लोगों को लफ़्ज़ समझ नहीं आ रहे. उनमें से एक कहता है कि हर चीज़ में उर्दू घुसेड़ने की क्या ज़रूरत है. तब वो गाना लिखने वाली लड़की कहती है,
ये अच्छा है, समझ नहीं आया तो उर्दू बना दिया.
ये डायलॉग सुनते ही फिल्म की शुरुआत याद आती है. फिल्म का टाइटल तीन भाषाओं में लिखा आता है – हिंदी, इंग्लिश और उर्दू. किसी जमाने में हिंदी फिल्मों के टाइटल उर्दू में भी लिखे जाते थे. लेकिन अब ये गायब सा हो गया है. फिल्म का अपनी धरोहर को बचाने वाला मैसेज और गहरा हो जाता है.
# एक्टर्स अपने काम से इस फिल्म को उठाकर और भी ऊंचे कद तक ले गए. मां के रोल में हम शर्मिला टैगोर को देखते हैं. जिस ग्रेस से उन्होंने अपना किरदार निभाया, लगता नहीं कि ये उनकी कमबैक फिल्म है. उनके बेटे अरुण बने हैं मनोज बाजपेयी. हर फिल्म के साथ वो खुद को इवॉल्व करते रहे हैं. उनका हर किरदार दूसरे से जुदा है. फिल्म में एक सीन है. वसीयतनामे की बात है. पूरा परिवार एक जगह जमा है. आपका ध्यान खींचे रहते हैं मनोज बाजपेयी और शर्मिला टैगोर. उस सीन में मनोज बाजपेयी का किरदार किसी 50-55 साल के आदमी जैसा नहीं लगता. बल्कि एक बच्चे जैसा है. जो अपनाया जाना चाहता था. जिसने अब तक जिस चीज़ में भरोसा किया, वो बिखरकर टुकड़े हो गई.
सभी एक्टर्स ने ऐसा काम किया है कि लिखने के लिए पन्ने कम पड़ जाएं.
# ‘गुलमोहर’ से सिर्फ एक शिकायत रह सकती है. कि ये एंड में आकर अचानक से हैप्पी एंडिंग वाले रास्ते मुड़ जाती है. इसके पीछे मेकर्स एक वजह भी दे सकते हैं. किरदारों में आप इस कदर इंवेस्ट हो जाते है कि चाहते हैं उनके साथ अच्छा हो जाए. उनकी कहानियों को अच्छा अंत मिल जाए. ‘गुलमोहर’ परिवार की कहानी दिखाने के चक्कर में ज्ञान देने की कोशिश नहीं करती. किसी को अच्छे या बुरे के रंग में नहीं रंगती. ये बस एक परिवार के आपसी रिश्तों की खींचतान को उसी तरह दिखाती है. बिना कोई लेबल दिए.
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