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फिल्म रिव्यू- ये मर्द बेचारा

फिल्म का मक़सद ये था कि टॉक्सिक मैस्क्यूलिनिटी और जेंडर स्टीरियो टाइप को तोड़ा जाए, मगर फिल्म ओवरबोर्ड चली जाती है.

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फिल्म 'ये मर्द बेचारा' के पोस्टर पर फिल्म की प्राइमरी स्टारकास्ट.
महिलाओं और उनसे जुड़े मसलों पर कई फिल्में देखी होंगीं आपने. मगर बीते वीकेंड समाज में पुरुषों को होने वाली दिक्कतों पर बात करने वाली एक फिल्म बनी है. इसका नाम है- 'ये मर्द बेचारा'.
फिल्म की कहानी फरीदाबाद में रहने वाले शर्मा परिवार की है. घर के मुखिया उर्फ रामप्रसाद शर्मा की एक बनी-बनाई थियरी है कि मर्द को कैसा होना चाहिए. ऐसे में वो अपने बेटे शिवम को उसी पैटर्न को फॉलो करने को कहते हैं. मुखिया शर्मा के मुताबिक होने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ होती है 'मूंछ'. क्योंकि 'मूंछ' मर्द होने की पहचान है. ऐसे में रामप्रसाद जी अपने बेटे शिवम को मर्द बनने की ट्रेनिंग देते हैं. शिवम को अपने कॉलेज की एक लड़की से प्यार हो जाता है. मगर शिवम के इस लड़की के करीब जाने में कथित 'मर्दानी' चीज़ें आड़े आने लगती हैं. वो प्यार और 'मर्द' होने के प्रेशर में पिसने लगता है. रामप्रसाद, पारिवारिक परंपरा और मर्द होने के सामाजिक प्रेशर में उस लड़के की ज़िंदगी सिर के बल खड़ी हो जाती है.
अगर आपको लग रहा है कि पिछले पैराग्राफ में 'मर्द' शब्द का इस्तेमाल कुछ ज़्यादा ही हो गया, तो आपको ये फिल्म देखनी चाहिए. इस फिल्म के तकरीबन हर लाइन में 'मर्द' और 'मर्द को दर्द नहीं होता' टाइप की बात कही जाती हैं. ये चीज़ इस फिल्म को इतनी ऊबाऊ और इरिटेटिंग बना देती है कि आपको यकीन नहीं होता कि लेखक को इसका अहसास कैसे नहीं हुआ. 'ये मर्द बेचारा' की कोशिश ये रहती है कि वो तमाम उन मसलों पर बात करे, जो समाज में मर्दों को फेस करने पड़ते हैं. मगर उस पर बात नहीं होती. अगर मर्दों के मसले पर बात करने का ये तरीका है, तो इससे अच्छा है कि उस पर बात न ही हो. फिल्म का बेसिक प्रेमाइज़ ज़ाहिर तौर पर इंट्रेस्टिंग और प्रासंगिक है. मगर उसे जिस तरह से एग्ज़ीक्यूट किया है, वो बहुत निराशाजनक है.
फिल्म 'ये मर्द बेचारा' का पोस्टर.
फिल्म 'ये मर्द बेचारा' का पोस्टर.


डेटेड पंचलाइन्स, लीड एक्टर्स की ओवर द टॉप परफॉरमेंस, फिल्म की लंबाई और मर्द शब्द का अत्यधिक इस्तेमाल इस फिल्म की नइया को नदी में उतरने से पहले ही डूबो देता है. वो तो भला हो सीमा पाहवा, बृजेंद्र काला और अतुल श्रीवास्तव जैसे वेटरन एक्टर्स का, जो इस डूबती नाव में सवार होने को तैयार हुए. और उसे बचाने की हरसंभव कोशिश की. मगर जब राइटर और डायरेक्टर मिलकर किसी प्रोजेक्ट को खराब करने पर तुले हों, तो कोई क्या ही कर सकता है. अनूप थापा ने इस फिल्म को डायरेक्ट नहीं मिस-डायरेक्ट किया है. क्योंकि वो हर उस क्लीशे चीज़ को अपनी फिल्म में जगह देते हैं, जिसे दूर से अवॉयड करना चाहिए था. अगर आपको यकीन नहीं हो रहा, तो फिल्म का क्लाइमैक्स देखिए.
विराज राव फिल्म के हीरो शिवम के रोल में दिखाई दिए हैं. मगर वो घबराए हुए से मालूम पड़ते हैं. मानों कैमरा को देखकर कॉन्शस हो रहे हों. मनुकृति पाहवा ने शिवालिका नाम की उस लड़की का रोल किया है, जिससे शिवम को प्यार होता है. मनुकृति की परफॉरमेंस फिल्म की हाइलाइट तो नहीं है, मगर वो डीसेंट लगती हैं. फिल्म का म्यूज़िक अलग लेवल का लेट डाउन है. लाउड बैकग्राउंड स्कोर बची खुची जगहों पर भी फिल्म को अंक स्कोर नहीं करने देता.
फिल्म के एक सीन में विराज राव, मनुकृति, सीमा पाहवा, बृजेंद्र काला और अतुल श्रीवास्तव.
फिल्म के एक सीन में विराज राव, मनुकृति, सीमा पाहवा, बृजेंद्र काला और अतुल श्रीवास्तव.


'ये मर्द बेचारा' का मक़सद ये था कि टॉक्सिक मैस्क्यूलिनिटी और जेंडर स्टीरियोटाइप को तोड़ा जाए. मगर फिल्म ये करने की कोशिश में ओवरबोर्ड चली जाती है. हर बात, हर लाइन उसी कॉज़ को डेडिकेटेड है. ऐसे में कहानी की दिशा-दशा बिगड़ जाती है. जब से पैरलल और मेनस्ट्रीम सिनेमा के बीच की लाइन धुंधली पड़ी है, तब से एक नए किस्म का सिनेमा जन्मा है. जिसमें 'रामप्रसाद की तेरहवीं' और 'पगलैट' सरीखी फिल्में बनी हैं. कमोबेश एक ही विषय के इर्द-गिर्द घूमने वाली ये फिल्में अपने क्राफ्ट को लेकर सजग रहती हैं. वो सिर्फ अपने क्वॉलिटी कॉन्टेंट के भरोसे नहीं बैठीं. उनके बनाए जाने के पीछे एक सोच और उसका कायदे का एग्जीक्यूशन दिखता है. 'ये मर्द बेचारा' में आपको इंटेंशन दिखती है. मगर अपना पॉइंट प्रूव करने की कोशिश में ये फिल्म बाकी सभी चीज़ों को भूल जाती है.
'ये मर्द बेचारा' अच्छी नीयत से बनी एक बुरी फिल्म है. आप किसी फिल्म या फिल्ममेकर से एक्सपेक्ट करते हो कि वो जो कहना चाहते हैं, वो बात दर्शकों तक पहुंचे. मगर ये फिल्म अपने मैसेज को डिलीवर नहीं कर पाती. जब आप फिल्म होने की सबसे बुनियादी रिक्वॉयरमेंट पूरी नहीं कर पाते, तो आपके होने या नहीं होने का मतलब नहीं रह जाता.

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