फिल्म की कहानी
एक जर्नलिस्ट है रागिनी फुले, जो कोई सनसनीखेज खबर ढूंढ़ रही है. अचानक से उसे एक रैंडम कॉल आता है. वो आदमी उस लड़की को लाल बहादुर शास्त्री की मौत की गुत्थी सुलझाने का आइडिया देता है. रागिनी को ये आइडिया अच्छा लगता है क्योंकि इसमें सनसनी भी है, डायरेक्टर का पॉलिटिकल एजेंडा भी है और आने वाले समय में लोक सभा चुनाव भी है. वो इस बारे में रिसर्च करने में लग जाती है. सरकार ने शास्त्री जी की मौत से जुड़ा कोई भी डॉक्यूमेंट राष्ट्रीय सुरक्षा की वजह से पब्लिक नहीं किया था. इसलिए गूगल, कोरा, शास्त्री परिवार के इंटरव्यू और देश-विदेश इस मसले पर छपे किताबों के अलावा उसे कुछ नहीं मिलता. वो अपनी इसी रिसर्च में थोड़ा इमोशन मिक्स करती है और अखबार में फ्रंट पेज पर ये खबर छाप देती है. उसके इस कदम के बाद सरकार लाल बहादुर शास्त्री की मौत की वजह जानने के लिए एक कमिटी बनाती है. इसमें अलग-अलग फील्ड और विचारधारा के लोगों को डाल दिया जाता है. इसमें रागिनी भी शामिल है. इसके बाद बहुत सारी माथा-पच्ची होती है और ढाई घंटे के बाद ये बात बाहर निकलकर आती है कि लाल बहादुर शास्त्री की मौत हार्ट अटैक से नहीं जहर देने से हुई थी. जिसमें कांग्रेस का हाथ था.

फिल्म के एक सीन में श्वेता बासु प्रसाद. श्वेता ने फिल्म में एक पत्रकार का रोल किया है.
एक्टर्स का काम
फिल्म में श्वेता बासु प्रसाद ने जर्नलिस्ट रागिनी फुले का रोल किया है. उनके अलावा फिल्म में मिथुन चक्रवर्ती, पंकज त्रिपाठी, नसीरुद्दीन शाह, राजेश शर्मा, मंदिरा बेदी, पल्लवी जोशी, प्रशांत गुप्ता और प्रकाश बेलावाड़ी जैसे एक्टर्स दिखाई देते हैं. लेकिन ये श्वेता और मिथुन को छोड़कर ये सारे एक्टर्स सिर्फ दिखाई भर ही देते हैं. फिल्म में इन सभी एक्टर्स को अलग-अलग विचारधारा असाइन किया गई, जिसकी बिना पर उन्हें उनके टेररिस्ट साबित कर दिया जाता है. कोई पॉलिटिकल टेररिस्ट, कोई जूडिशियल टेररिस्ट, कोई रेसिस्ट. प्रकाश बेलावाड़ी ने फिल्म में रिटायर्ड रॉ ऑफिसर का रोल किया है. फिल्म में उनके मुंह से कोई भी ऐसा फैक्ट या घटना सुनने को नहीं मिलती, जिससे ये भरोसा हो पाए कि वो सही में इंडिया की इंटेलिजेंस एजेंसी के हिस्सा रह चुके हैं. दूसरी ओर पंकज त्रिपाठी ने साइंटिस्ट गंगाराम झा का रोल किया है. एक साईंटिस्ट इस पूरे केस में सिर्फ शास्त्री के रसोइए जान मोहम्मद पर ही अटका रहता है, क्योंकि वो मुस्लिम था. और ये भी कहता है कि मुसलमान एक दिन अपनी फौज लेकर आएंगे और हम सबको मार देंगे. लेकिन एक्टर्स की कहानी यहीं खत्म नहीं होती. फिल्म में काम करने वाला एक और एक्टर बहुत खास है. प्रशांत गुप्ता. प्रशांत ने इंवेस्टिगेटिव कमिटी में शामिल एक यंग लीडर का रोल किया है. उस कैरेक्टर ने फिल्म में बिना वजह से चिल्लाने, फालतू के सवाल उठाने और ओवररिएक्ट करने के अलावा कुछ और नहीं किया है.

फिल्म में पंकज त्रिपाठी ने एक साइंटिस्ट और मिथुन ने एक नेता का रोल किया है.
फिल्म की ठीक बातें
फिल्म में इस चीज़ की वैसे तो बहुत कमी है, फिर भी हम कुछ बता रहे हैं. अगर एक्टिंग में श्वेता और मिथुन को छोड़ दें, तो किसी को परफॉर्म करने का मौका ही नहीं मिला है. श्वेता बासु प्रसाद के पास लंबा-चौड़ा स्क्रीनटाइम है, जिसका वो खूब फायदा उठाती हैं. वो पूरी फिल्म में अपना किला बचाए रखती हैं. जो फर्जी का इमोशन उस कैरेक्टर के लिए बिल्ड किया गया है, उसमें उनकी गलती कहीं नज़र नहीं आती है. वो फिल्म के विषय से ज़्यादा अपने काम को सीरियसली लेती दिखाई देती हैं. दूसरी अच्छी बात फिल्म की ये है कि इसमें जो चीज़ें आपको दिखाई गई हैं, उसमें आपको भरोसा हो या न हो, एक बार को आपका इंट्रेस्ट लाल बहादुर शास्त्री में जागता जरूर है. आप चाहते हैं कि इस बारे में खुद रिसर्च करके थोड़ा और जानें. उनकी मौत को अपने हिसाब से बिना किसी एजेंडा के खंगालने की कोशिश करें. गूगल से उतर कर किताबों का रुख करें. लेकिन एक फिल्म से आप सिर्फ इतना ही उम्मीद नहीं करते.

शास्त्री जी की मौत से कुछ घंटे पहले की ये फुटेज भी फिल्म में इस्तेमाल की गई है.
फिल्म की बुरी बातें
जैसे ही फिल्म शुरू होती है, श्वेता के किरदार को अपनी नौकरी बचाने के लिए कुछ सनसनीखेज खबर चाहिए. बाद में उसे वो सनसनी मिल भी जाती है लेकिन फिर भी उसकी नौकरी चली जाती है. ये क्यों हुआ पता नहीं चल पाता? ठीक उसी तरह जैसे फिल्म खत्म होने के बाद ये भी क्लीयर तरीके से पता नहीं चल पाता कि शास्त्री की मौत कैसे हुई थी. दूसरी, क्या नेता लोग आस-पास कैमरे न होने की स्थिति में भी प्लानिंग की जगह 'योजना' जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं? फिल्म में दो-तीन गाने सुनाई देते हैं. इन गानों की एक्जैक्ट संख्या कितनी है, ये भी नहीं पता क्योंकि आप जो सामने स्क्रीन पर देख रहे हैं, उससे ही इतने निराश हो चुके हैं कि गानों का तो क्या ही कहना. फिल्म के पास कहने को कुछ भारी नहीं है, इसलिए बैकग्राउंड स्कोर से माहौल बनाने की नाकाम कोशिश होती है. मतलब काफी लाउड है.
ओवरऑल एक्सपीरियंस
लाल बहादुर शास्त्री की मौत के पीछे का सच और उसकी कहानी बताने का दावा करने वाली ये फिल्म आपको बेवकूफ बनाती है. इस चक्कर में अपना पॉलिटिकल एजेंडा भी ठीक से पूरा नहीं कर पाती. इंवेस्टिगेटिव थ्रिलर होने का दिखावा करती है. एक्टर्स को जाया करती है. और सब कुछ कह-सुन लेने के बाद फिल्म के आखिर में ये बताती है कि जो भी फैक्ट्स और फिगर आपको फिल्म में दिखाए गए हैं, वो वेरिफाइड नहीं हैं.