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फ़िल्म रिव्यू: रंगून

विशाल भारद्वाज की नई फ़िल्म.

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फोटो - thelallantop
विशाल भारद्वाज. पिछली फ़िल्म 'हैदर'. 'हैमलेट' की थीम पर अपनी ही तरह का एक अनोखा पॉलिटिकल ड्रामा. अब लगभग ढाई साल बाद आई है 'रंगून'. शाहिद कपूर इसमें भी मौजूद हैं. साल 1943. देश अंग्रेजों का ग़ुलाम है. बम्बई में एक फ़िल्म बनाने वाला, पारसी रईसजादा रुस्तम बिलीमोरिया, फ़िल्में बना रहा है. उसे इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि विश्व युद्ध चल रहा है. आज़ाद हिन्द फ़ौज अंग्रेजों से लड़ रही है. अंग्रेज एक साथ एक ही समय पर जापानी सेना, आज़ाद हिन्द फ़ौज और हिटलर से लड़ रहे हैं. रुस्तम जूलिया के साथ फ़िल्में बना रहा है. जूलिया है उसकी हिरोइन, एक स्टंट करने वाली. जूलिया, जिसके लिए रुस्तम ने अपने परिवार को छोड़ रखा है. जूलिया यानी 'तूफ़ान की बेटी'. जूलिया यानी 'रेल की रानी'. रुस्तम को चाहिए पैसे. और उसके लिए वो जूलिया को भेजता है रंगून. जहां उसे अंग्रेजों के लिए लड़ने वाले हिन्दुस्तानी सिपाहियों के सामने नाचना होगा. स्टंट करने होंगे. इसके बदले में रुस्तम का फ़ायदा ही फ़ायदा है. रंगून के इस टूर पर जूलिया मिलती है जमादार नवाब मलिक से. दोनों की शुरुआत ठीक नहीं होती लेकिन हर फ़िल्म की तरह उन्हें प्यार हो जाता है. क्योंकि फ़िल्म तभी बनती है. एक लड़का और लड़की आपस में मिलें और 'यूं ही' चले जाएं तो वो असल ज़िन्दगी होती है, फ़िल्म नहीं. नवाब मलिक, जूलिया और रुस्तम मिलकर लव ट्राएंगल बनाते हैं. यहां पर एक गाना दिमाग में लाइए - "शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब. उसमें फिर मिलाई जाए थोड़ी सी शराब. होगा फिर नशा जो तैयार, वो प्यार है." अब तक जो भी हुआ था वो फूलों का शबाब था. उसमें शराब मिलनी बाकी थी. सो मिलती है एक ट्विस्ट से. ट्विस्ट नहीं बताएंगे वरना स्पॉइलर हो जायेगा. उस शराब के मिलने पर जो नशा तैयार हुआ, वो है विशाल भारद्वाज की 'रंगून'. ब्लडी हेल! rangoon shahid  
फ़िल्म की बेसिक कहानी बहुत कुछ फियरलेस नाडिया से उठाई गई है. या ये कहिए कि जूलिया का पूरा कैरेक्टर असल में फियरलेस नाडिया का नाट्य रूपांतरण है. नाडिया 1913 में इंडिया आईं. दो साल बाद पिता की मौत हो जाने पर पेशावर चली गईं. तब पेशावर हिंदुस्तान में ही था. वहां घुड़सवारी, शिकार, मछली मारना और काफी कुछ सीखा. 1930 में इंडिया टूर पर आईं. फ़िल्म 'देश दीपक' में बार-बार रिक्वेस्ट करने पर एक छोटा रोल किया जो बेहद हिट हुआ. नाडिया हिन्दुस्तानी जनता के बीच फ़ेमस हो गईं और फ़िल्मों का बड़ा चेहरा बन गईं. नाडिया को फ़िल्मों में लाने वाले थे जमशेद वाडिया. 'वाडिया मूवीटोन' के मालिक. बाद में अपने भाई होमी वाडिया के साथ जमशेद वाडिया ने फियरलेस नाडिया को एक स्टार बना दिया.
'रंगून' बहुत बड़ा और विशाल भारद्वाज का महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है. इस फ़िल्म में उन्होंने वर्ल्ड वॉर-2 के वक़्त को दोबारा जिंदा कर दिया है. ये छोटा काम नहीं है. खासकर हमारे यहां जहां पीरियड ड्रामा के नाम पर कुछ भी ठोस उपलब्ध नहीं है. ऐसे में एक वॉर को दिखाना और भी मुश्किल है. इसलिए इस फ़िल्म में बहुत कुछ ऐसा था जिसे साथ में होना था. एकदम सिंक होकर. मगर हर जगह पैचेज़ में कमी दिखती रही.
अपने-अपने रोल में सैफ़ अली खान, शाहिद कपूर और कंगना रनौट एकदम फिट पाए जाते हैं. सैफ़ अली खान बने हैं रुस्तम, शाहिद कपूर नवाब मलिक और कंगना रनौट बनी हैं जूलिया. कंगना बहुत कन्विक्शन के साथ स्क्रीन पर दिखती हैं. अब ऐसा लगता है कि उनके लिए ऐक्टिंग करना खेलने जैसा हो गया है. ऐसा खेल जिसमें वो पारंगत हो गई हैं. सैफ अपनी नवाबियत यहां भी दिखाते हैं. ये शायद उनका कम्फर्ट ज़ोन है. और शाहिद के नाम का पट्टा विशाल भारद्वाज ने लिखवा लिया लगता है. 
rangoon फ़िल्म में गाने भी रोल प्ले करते हैं. और ये विशाल भारद्वाज की बनाई फ़िल्मों की पहचान है. अपने गानों की मदद से ड्रामा क्रिएट करने में विशाल ने महारत हासिल कर ली है. 'हैदर' का 'बिस्मिल' इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है. इस फ़िल्म में भी गानों का आना उबाऊ नहीं लगता है. उसे फॉरवर्ड करने का मन नहीं करता है. 'ब्लडी हेल' देखने में मज़ा आ जाता है. फ़िल्म के बीच गाना और भी बेहतर लगने लगता है. साथ ही इस गाने में एक बहुत ही चौंकाने वाला गेस्ट अपीयरेंस है. उसे देखकर ऐसे ही बस अच्छा लगता है. बाकी गाने भी अपनी जगह हैं और कतई परेशान नहीं करते. न ही अचानक आकर आपको चौंका देते हैं. विशाल भारद्वाज ने फ़िल्म में देशों के बीच चल रही लड़ाई और उसी लड़ाई के बीच उपजे प्यार की लड़ाई के कॉकटेल को दिखाना चाहा है. कहानी के तौर पर ये बहुत ही अच्छा है लेकिन उसे स्क्रीन पर लाने में कई जगह कसर रह जाती है. काफी सारी चीज़ें एक साथ पैरेलल चल रही होती हैं और वो काफ़ी जगहों पर ऑफ़-सिंक मालूम देती हैं. रैंडमली कुछ भी होने लगता है. इसी बीच गांधी के विचार, बोस की बातें और हिटलर-मुसोलिनी का ज़िक्र आता रहता है. जैसे ये याद दिलाने की कोशिश की जा रही हो कि फ़िल्म में किस वक़्त की कहानी चल रही है.
एक सीक्वेंस जो हालांकि फ़िल्म की कहानी में तो कोई उतनी अहमियत नहीं रखता है लेकिन फ़िल्म बनाने-लिखने वाले के दिमाग में चल रहे प्रोपगैंडा को दिखाता. फ़िल्म में एक जगह पर चर्चिल के वेश में खड़े ऐक्टर को दिखाया गया है जो अपने कुत्ते को आवाज़ लगा रहा है. कुत्ते का नाम है हिटलर. हिटलर अपने हाथों के बल चलता हुआ आता है, चर्चिल के इशारे पर काम करता है और फिर जब उसे सूसू आती है तो ज़मीन पर बने नक़्शे पर वो रूस पर सूसू करने जाता है. चर्चिल उसे रोकता है. वो जापान पर जाता है. वहां भी उसे परमिशन नहीं मिलती है. अंत में चर्चिल उससे आंखें बंद करने को कहता है और धोखे से जर्मनी के ऊपर ही हिटलर से सुस्सू करवा देता है. हिटलर अपनी आंखें खोलता है और जर्मनी को अपनी ही पेशाब में भीगा देख खुद की पिस्तौल से खुद को गोली मार लेता है. सामने बैठे अंग्रेज अफ़सर और उनके लिए लड़ने वाले हिन्दुस्तानी सैनिक तालियां पीट देते हैं. 
ऐसे सीक्वेंस हमें किस्तों में मिलते रहते हैं लेकिन कुल मिलाके उन्हें आपस में बुनने वाला धागा कहीं कहीं कमज़ोर लगता है. गाने समां बांध देते हैं. इसके लिए सारा क्रेडिट विशाल भारद्वाज को जाता है. फ़िल्म एक एक्सपेरिमेंट के तौर पर ज़्यादा देखी जाए. विशाल भारद्वाज को उनके नाम के तले न दबाया जाए. आसान नहीं है लेकिन एक्सपेक्टेशन ऐसा करवा ही देती हैं. किस्तों में बढ़िया माल देखने की इच्छा हो तो फ़िल्म देखें. थियेटर वाले एसी बहुत तेज चलाने लगे हैं अभी से. इसलिए फ़िल्म देखने जाएं तो स्वेटर-जैकेट जैसा कुछ ज़रूर पहन लें. मेरी तरह शर्ट में चले जाएंगे तो आधा टाइम खुद को समेटने में ही निकल जाएगा.  https://www.youtube.com/watch?v=B-tC0wcIu24 Also READ: 'रंगून' को जिस हॉलीवुड क्लासिक जैसा बताया जा रहा है ये रही उसकी कहानी ग्राउंड रिपोर्ट मल्हनी : निकम्मे मंत्री के सामने है कई हत्याओं का आरोपी बाहुबली गांव में सुनीं ताजी डाल की टूटी 3 चौचक भ्रष्ट कथाएं 23 औरतों के बलात्कार की वो चीखें, जो भारत को कभी सोने नहीं देंगी.. वो ज़माना जब लड़के हीरो बनते थे गाकर समीर के गाने, बिना नाम जाने विशाल भारद्वाज गुस्साए, तो 'सिंघम' ने भी माफी मांगी

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