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देजा वू: क्या तुमने ये जगह पहले भी देखी है?

किसी नई जगह पर भी क्यों लगता है, पहले भी देखा है.

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फोटो - thelallantop
किसी जगह पर पहली बार जाओ. फिर भी लगे कि हम तो यहां पहले भी आ चुके हैं. एकदम पुनर्जन्म टाइप की फीलिंग होती है ना. लगता है ना कि हम ज़रूर स्पेशल हैं. इसलिए हमको पुरानी बातें भी याद हैं. या दोस्तों के बीच बैठे हों. किसी ने कुछ बात कही. लगा, अरे यार सेम ऐसा पहले भी हुआ है. कब, कहां. ये समझ नहीं आता. बस ये फीलिंग बहुत तगड़ी होती है कि ऐसा पहले भी कहीं हुआ है. जित्ता भी दिमाग फोड़ लो. याद ही नहीं आता. इस फीलिंग को कहते हैं देजा वू. लेकिन जब हम पहले कभी उस जगह गए ही नहीं हैं. और वैसा कुछ हमने कभी देखा ही नहीं है. ये देजा वू वाली फीलिंग आती कहां से हैं?

हमारा दिमाग एक तहखाना है

giphy (2) हमारे दिमाग में एक बहुत बड़ा सर्किट बॉक्स लगा है. इसमें ढेर सारे अलग-अलग कम्पार्टमेंट बने हुए हैं. एक कम्पार्टमेंट है जो हमारी यादों को संभल कर रखता है. एक हिस्सा हमें डिसीजन लेने में मदद करता है. कोई हिस्सा हमारे इमोशन संभालता है. तो कोई हिस्सा हमारे दिनभर के कामों का लेखा-जोखा रखता है. देजा वू के केस में खेल इस याददाश्त वाले और प्रेजेंट देखने वाले हिस्सों का है.
यादें यानी पुरानी चीज़ें. जो दिमाग के उस कम्पार्टमेंट में जमा हैं. जब भी हम वो वाला बक्सा खोलते हैं. सारी यादें दिमाग में ऐसे चलने लगती हैं जैसे सच में वो सब हो रहा है. कई बार तो आंखें खुली होने पर भी हमें इस वक़्त सामने क्या चल रहा है. वो भी नहीं दिखता. दिमाग का वो हिस्सा जो प्रेजेंट में जीता है. यानी आंखों से जो देखा उसको समझा. थोड़ी देर रखा. फिर यादों वाले बक्से में धकेल दिया. ये प्रेजेंट वाला हिस्सा और यादों वाला हिस्सा एक दूसरे के आगे पीछे चलते हैं. समझ लो कि इन दोनों हिस्सों के बीच में है एक शटर. अगर प्रेजेंट वाला हिस्सा काम कर रहा है. तो यादों वाला बंद रहेगा. और अगर यादों वाला खुल गया तो थोड़ी देर के लिए प्रेजेंट वाले का शटर बंद हो जाएगा.

दिमाग के दो हिस्से अपने बीच का शटर गिराना भूल जाते हैं

लेकिन भाई दिमाग भी तो मशीन है. कभी-कभी सब मिक्स हो जाता है. यानी हम कोई जगह अपनी आंखों के सामने देख रहे हैं. दिमाग का प्रेजेंट वाला हिस्सा खुला हुआ है. लेकिन यादों वाला हिस्सा भी बंद नहीं हुआ है. दोनों हिस्से खुले रह गए. बस. हमारे दिमाग को लगता है. इस जगह या इस घटना को हम यादों वाले बक्से से निकाल रहे हैं. दिमाग कंफ्यूज हो जाता है. जो अभी पहली बार देखा. उसको भी पुरानी यादें समझ लेता है.  जबकि वो यादों का हिस्सा होता ही नहीं है. बस दिमाग की थोड़ी सी भसड़ का नतीजा है. अब समझ गए हो, तो एक बात और सुन लो. 2006 में देजा वू नाम की एक फिल्म भी आई थी. जाते-जाते उसका ट्रेलर भी देखते जाओ. आज फंडा क्लियर हो गया तो फिल्म ज्यादा अच्छे से समझ आएगी. https://www.youtube.com/watch?v=khFEdsBEVU0

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