बीते साल दिल्ली में हैबिटैट इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल हुआ था. उस दौरान देश और दुनिया से कमाल की फिल्में स्क्रीन हुईं जैसे ‘अध चन्ननी रात’, इंडिया की तरफ से ऑस्कर्स में गई ‘कूलंगल’, असगर फरहदी की ‘अ हीरो’, ‘गोदावरी’ आदि. इन सब के बीच एक और छोटी सी फिल्म स्क्रीन हुई थी. छोटी अपने स्केल की वजह से, अपनी लेंथ की वजह से. वो फिल्म थी ‘धुइन’. ये एक मैथिली शब्द है, जिसका मतलब धुंध होता है. मैंने फेस्टिवल जाकर ये फिल्म देखी. उसकी प्रमुख वजह थी फिल्म के डायरेक्टर अचल मिश्रा.
मूवी रिव्यू: धुइन
आज से ये फिल्म MUBI पर स्ट्रीम हो रही है. ज़रूर देखी जानी चाहिए.

अचल एक फोटोग्राफर हैं, जिनकी डेब्यू फिल्म ‘गामक घर’ 2019 में प्रीमियर हुई थी. आप उस फिल्म को मुबी पर देख सकते हैं. ‘गामक घर’ एक परिवार की कहानी थी, जिसे दो दशकों में दिखाया गया, उनके अपने घर के ज़रिए. यहां कहानी के अंत तक घर हमारे लिए एक किरदार की तरह था. अब अपनी अगली फिल्म ‘धुइन’ में अचल ने घर की बजाय एक शहर को कहानी कहने वाला किरदार बनाया है. वो शहर है बिहार का दरभंगा शहर. एक नुक्कड़ नाटक हो रहा है. किस बारे में है, वो ज़रूरी नहीं. नाटक के मैसेज से ज़्यादा ज़रूरी था उसका एक किरदार. पंकज एक स्ट्रगलिंग एक्टर है, नुक्कड़-नाटक किया करता है. ‘गामक घर’ में काम कर चुके अभिनव झा ने ही पंकज का रोल निभाया है.
पंकज जानता है कि पूरी ज़िंदगी दरभंगा में रहकर नाटक नहीं कर सकता. उसके सपने मुंबई जाने के हैं. वहां जाकर फिल्में करने के हैं. इसलिए जब भी दरभंगा के आसमान से कोई प्लेन गुजरता देखता है तो उत्साहित होकर उसकी फोटो लेने लगता है. शाहरुख वाला पोज़ देने लगता है. जब पता चलता है कि मुंबई में काम करने वाला एक्टर आया है तो उनसे मिलता है. पंकज त्रिपाठी के किस्से सुनता है. कहीं-न-कहीं ये पंकज भी अपनी कहानी पंकज त्रिपाठी की तरह लिखना चाहता है. फिल्म में अचल ने पंकज त्रिपाठी का रेफ्रेंस लिया. इत्तेफाक की बात है कि हफ़िंगटन पोस्ट को दिए एक इंटरव्यू में पंकज त्रिपाठी ने कहा था कि ‘गामक घर’ देखते वक्त उन्हें अपनी पुरानी ज़िंदगी याद आने लगी थी, और वो रो पड़े.
‘धुइन’ सिर्फ एक लड़के के अपने सपने को पूरा करने की कहानी नहीं. बल्कि ये उन सभी घटनाओं को रिफ्लेक्ट करती है, जो एक कामयाब कहानी के पीछे छिपी होती हैं. बशर्ते अगर वो कहानी कामयाब होती है तो. फिल्म का सेंट्रल कैरेक्टर भले ही कुछ करने के लिए बेचैन है. लेकिन ये बेचैनी फिल्म में नहीं दिखती. फिल्म को देखते वक्त एक ठहराव महसूस होता है. ज़िंदगी की सादगी, उसके ज्यों-का-त्यों होने को फिल्म में उतारा गया है. आनंद बंसल की सिनेमैटोग्राफी उसमें ऐड अप करने का ही काम करती है. फिल्म को अपनी दुनिया दिखाने की कोई हड़बड़ी नहीं. वो आपको वैसे ही दिखाना चाहती है, जैसी आप अपने आसपास की दुनिया देखते हैं. जहां हर पल कुछ बड़ा नहीं घटता, जहां हम हर पल डायलॉग और कोट में बातें नहीं करते. लेकिन ज़रा ठहर कर देखें तो आम लगने वाली बातों के गहरे मायने निकलेंगे.
जैसे एक सीन है. जहां पंकज को पता चलता है कि मुंबई से कोई फिल्ममेकर आया है, जो दरभंगा का ही रहने वाला है. पंकज उस डायरेक्टर और उसके दोस्तों के पास पहुंचता है. उससे भईया, भईया कहकर बात करता है. ये लोग एक बड़े ग्राउंड में बैठे हैं. बैकग्राउंड में दिखता है कि कोई गोल ट्रैक पर गाड़ी चलाना सीख रहा है. वो फिल्ममेकर पंकज और अपने दोस्तों को अपने एक्सपीरियेंस के बारे में बता रहा होता है. फिर उनमें से एक शख्स पंकज से अंग्रेजी में पूछता है,
What do you think about Actor’s limitation?
एक एक्टर की सीमाओं पर अंग्रेजी में किये गए सवाल पर पंकज हिचक जाता है. अब तक वो पूरी बातचीत को लेकर उत्साहित था. लेकिन अब लेफ्ट आउट फ़ील करने लगता है. फिर अब्बास कियारोस्तामी का ज़िक्र छिड़ता है. उनके सिनेमा पर बातें होती हैं. तीन-चार लोगों के बीच पंकज और अकेला होता जाता है. हम फिर से गोल ट्रैक पर घूम रही गाड़ी को देखते हैं. ऐसा लगता है कि पंकज की कहानी बस उस गाड़ी की तरह एक धुरी पर चल रही है. मेरे लिए इस सीन में एक और बात उभर कर आई. वो ये कि कैसे दो अलग तबकों से आने वाले कला के फॉर्म को पर्सीव करते हैं. कैसे एक स्ट्रगलिंग एक्टर और अंग्रेजी में बात करते डायरेक्टर के लिए एक ही कला के दो अलग मायने हैं, उससे दो अलग-अलग अपेक्षाएं हैं.
फिल्म खत्म होने के बाद अचल समेत फिल्म की टीम स्टेज पर आई, एक क्वेशन-आंसर राउंड के लिए. ऑडियंस में से किसी ने सवाल किया कि उस सीन में ट्रैक पर घूमती गाड़ी क्या दर्शाती है. अचल ने जवाब दिया कि जब हम शूट कर रहे थे, तब वो गाड़ी वहां थी. बस इसलिए हमने उसे भी सीन में रख लिया. मुझे ये लगा कि उन्होंने वो सीन शूट किया, और मतलब खोजने का काम ऑडियंस पर छोड़ दिया. जो जिस नज़र से दुनिया देखता है, उसे गाड़ी का मतलब भी वैसा ही दिखेगा. फिल्म देखते वक्त पंकज की लाइफ के कई मौके आए, जहां ऑडिटोरियम में हंसी के अलावा और कुछ नहीं सुनाई दे रहा था.
क्वेशन-आंसर राउंड में एक शख्स ने इस पर अपना आब्ज़र्वेशन शेयर किया. उन्होंने बताया कि मैंने ‘धुइन’ अकेले में देखी है, और मुझे इतनी हंसी नहीं आई. लेकिन थिएटर में देखते वक्त मैं भी बाकी लोगों जितना ही हंस रहा था. इसे आप कई लोगों का साथ आकर एक फिल्म देखने का अनुभव भी कह सकते हैं. लेकिन बात शायद इससे गहरी है. पंकज पर हंसना वैसा ही था जैसा हम क्लास के उस बच्चे पर हंसते हैं, जिसने कोई बेवकूफ़ाना बात कह दी हो, पर हम जानते हैं कि वो बात हमारे अंदर भी थी. बस हमने कही नहीं.
‘धुइन’ पहले फिल्म फेस्टिवल्स में स्क्रीन होती रही है. 10 फरवरी से ये MUBI पर रिलीज़ हुई है. ज़रूर देखिएगा. ऐसी कहानियां जहां हम खुद को खोते हैं, फिर से पाने के लिए, ऐसी कहानियां देखी जानी चाहिए.
वीडियो: ‘धुइन’ फिल्म की कहानी में क्या खास है?