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Despatch Film Review: पत्रकार के कपड़े उतारता निर्मम निर्देशक

वर्तमान में भारत के सबसे authentic filmmakers में से एक Kanu Behl की ये फ़िल्म जर्नलिज़्म और मीडिया पर बनी परियोजनाओं में विशिष्ट स्थान लेती है. क्राइम जर्नलिस्ट के अपने किरदार में Manoj Bajpayee खाल निचोड़ देते हैं. पढ़ें, हमारा - Despatch film review.

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तमाम हजार करोड़ों रुपयों, अंडरवर्ल्ड, टी-20 के घपलों, फिल्मस्टारों नेताओं के कच्चे चिट्ठों और करप्ट कॉरपोरेट्स के बीच इस कहानी में न्यूज़ सदा एक ही रहती है - जर्नलिस्ट जॉय बाग (मनोज बाजपेयी) स्वयं. (फोटोः ZEE5)

     Rating - 3.5 Stars    

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**Spoiler ahead

डिस्पैच के दो अर्थ होते हैं - तेजी से सूचनाएं/खबरें भेजना. और मौत की सज़ा. ये दोनों ही अर्थ इस फिल्म का आदि और अंत हैं. ये जॉय बाग की कहानी है. वो एक क्राइम जर्नलिस्ट है. फ़िल्म देखते हुए जो प्रश्न सबसे ज्यादा कनफ्यूज़ करता है वो ये कि जॉय कैसा इंसान है?

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हम पाते हैं कि वो "स्पॉटलाइट" में द बोस्टन ग्लोब के आदर्श, ब्रेव मैनेजिंग एडिटर मार्टी बैरन की तरह या "स्कूप" में ईस्टर्न ऐज के सैद्धांतिक एडिटर इमरान की तरह पोलिटिकली करेक्ट या प्रगतिशील सोच वाला पत्रकार नहीं है. बड़ी क्राइम स्टोरीज़ ब्रेक करना, अपराधों की तह तक जाकर सबसे पहले रिपोर्ट करना, यही उसका एकल लक्ष्य है. इसके लिए वो कुछ भी करेगा.

फ़िल्म के शीर्षक की तरह वो मुंबई स्थित डिस्पैच नाम के अख़बार में काम करता है. एक दिन सरेआम सड़क पर एक शूटआउट होता है. एक मर्डर होता है. जॉय इस स्टोरी पर काम कर रहा है, जो आगे उसके लिए खतरनाक पर खतरनाक साबित होती चली जाती है.

जॉय instinctive है. सनकी है. थोड़ा पशुवत है. स्त्रियों का खासा चाव है उसे. हड़बड़ी में भी रहता है. थोड़ा सा स्ट्रीट स्मार्ट भी है, थोड़ा मूर्ख भी. कहना न होगा कि वो थोड़ा मैनिप्युलेटिव भी है, जैसा कि सारे सक्षम रिपोर्टर होते हैं, सिवाय "ऑल द प्रेसिडेंट्स मेन" के दोनों रिपोर्टरों के जो वॉटरगेट वाली स्टोरी पर काम करते हैं.

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अपने लक्ष्य के आगे जॉय को सही गलत नहीं दिखता. वो कोई एथिकल जर्नलिस्ट नहीं है. स्टोरी के लिए वो पुलिस कस्टडी में एक संदिग्ध को आगबबूला होकर कूटता है. ख़बर के पीछे का सच खोजने से वो कोई समझौता नहीं करता. वहां कोई मिलावट नहीं.

जर्नलिज़्म पर बनी बाकी फ़िल्मों की तरह वो एक कमाल का, दुस्साहसी (क्राइम) जर्नलिस्ट है. हीरोइक भी है. लेकिन फर्क इतना है कि कनु बहल और ईशानी बैनर्जी इस पात्र का निर्माण करते हुए हीरोइज्म और ग्लोरी को उठाकर दूर कहीं रख देते हैं. उसे इन चीजों के साथ पैदा ही नहीं होने दिया गया है. लेखकद्वय का यही आग्रह इसे पत्रकारिता पर बनी एक भिन्न फ़िल्म बनाता है. तभी आप इसे मनोरंजन के पारंपरिक तरीकों से एंजॉय ही नहीं कर पाते. आप कर ही नहीं सकते.

चूंकि फ़िल्म में एक आर्ट-हाउस वाला तत्व भी है, जो उसे पारंपरिक अर्थों में इंगेजिंग भी नहीं होने देता. क्योंकि अपनी परिभाषा में ही एक आर्ट-हाउस फ़िल्म दर्शक को कहानी की सुगमता देने, coherence (संसक्तता) देने या कुछ भी सिद्ध करने का भार उठाए नहीं होती है. वो एक अनुभव है, जो सिर्फ अनुभव ही होगा, उसमें चाहे आपको कुछ समझ न आए. लेकिन "तितली" और "आगरा" जैसी अपनी पिछली दो फ़िल्मों के उलट इस फ़िल्म में डायरेक्टर कनु बहल एक कमर्शियल वैल्यू भी ले आते हैं, जिसके चलते "डिस्पैच" न पूरी तरह एक आर्ट-हाउस रह जाती है और न ही पूरी तरह कमर्शियल फ़िल्म होती है.

कनु की फ़िल्में किरदारों से ज्यादा ड्राइव होती हैं, कहानी से कम. इस फ़िल्म में उनकी "किरदार की पवित्रता" थोड़ी हिली है. वो सिर्फ जॉय बाग नहीं है, वो रह-रहकर एक मनोज बाजपेयी लगता है. चाहे इस सेंस में ही सही कि कनु बहल और मनोज बाजपेयी कोलैब कर रहे हैं और देखने का कौतुहल है कि इस क्राइम जर्नलिस्ट का निर्वाह वे कैसे करेंगे.

ऐसा भी नहीं है कि मनोज को कनु की कठोर फ़िल्ममेकिंग से गुजरना नहीं पड़ा है. वो दिखता भी है. सेक्स दृश्यों में खास न्यूडिटी भले ही न हो लेकिन शरीर की वर्जिश उतनी ही असहज करने वाली और सच्ची लगती है. किसी एक्टर को पंद्रह टेक भी देने पड़े हों तो रीढ़ में चिणख पड़ पाए. ऊपर से कनु के टेक्स तो अपनी अधिकता के लिए कुख्यात हैं. आमतौर पर पत्रकार अपनी न्यूज़ स्टोरीज़ में बड़े ताकतवर लोगों के कपड़े उतारते हैं, "डिस्पैच" में कनु बहल पत्रकार के कपड़े उतारते हैं.

शायद ये पहली फ़िल्म है जिसमें आप नंगा मनोज बाजपेयी देखते हैं. सुखद कि एक डायरेक्टर ने एक एक्टर को इस वर्जना के परे जाने को कन्विंस किया. ये वो रेखा है जो लगभग सभी अच्छे भारतीय अभिनेताओं ने कभी पार न की.

डीओपी सिद्धार्थ दीवान के दल का कैमरा निरपेक्ष भाव से जॉय बाग को फॉलो करता हैः पत्नी से उलझते हुए; गर्लफ्रेंड के साथ कार में मेक-आउट करते हुए; अंडरवर्ल्ड के लोगों से गोपनीय मुलाकातों में; अपने सोर्सेज़ से बात करते हुए; गुड़गावां के एक डेटा सेंटर में नकली आईडी के साथ पकड़े जाने पर बदहवास भागते हुए; रोते हुए; निर्वस्त्र टॉयलेट सीट पर बैठे हुए; टी-20 के एक बदनाम राजा के लंदन स्थित किलेबंद घर में अपने गरीब जूतों को छुपाने का असफल प्रयास करते हुए; अस्त होते सूर्य की तरफ पीठ किए एक ओपन कैफे में बहरेपन में ध्यान गड़ाए हुए; सांसें बचा लेने के कुछ अंतिम कातर प्रयास करते हुए, आदि. फ़िल्म के आरंभ और अंत में कुछ जगह सिनेमैटोग्राफी आर्टिस्टिक सी रहती है, बाकी जगह जेनेरिक.  

स्नेहा खानवलकर "तमस" में वनराज भाटिया जैसा साउंड यहां कुछ मौकों पर बैकग्राउंड में क्रिएट करती हैं. जिससे सीलन, नैराश्य, डर और पतन की बू आती है.

"डिस्पैच" के अंतिम 20 मिनट खौफनाक हैं. एक इंसान की मनःस्थिति को दिखलाते हैं, जहां उसे पता है कि उसे कभी भी मार दिया जाएगा और वो भागता फिर रहा है. इन अंतिम मिनटों में वो भीड़ में भी अकेलेपन से छटपटा रहा है. ऐसे भय से इससे पूर्व पाला "13 आवर्स: द सीक्रेट सोल्जर्स ऑफ बेन्गाज़ी" देखते हुए पड़ा था. जब आप जान रहे हैं कि कोई है जो मारा जाएगा. और उसके संभवतः जिंदा ही शरीर को वहशी भीड़ सड़कों पर घसीटेगी.  

अंतिम मिनटों में मनोज मौत के खौफ को बहुत जीवट, नवीनता से व्यतीत करते हैं. कनु और सिद्धार्थ सड़कों पर दौड़ती बाइक्स वाले दृश्यों में उसे चरम पर ले जाते हैं. इस फ़िल्म का हासिल ये भय का वातावरण है जो एक जर्नलिस्ट या मौत से भाग रहे एक इंसान के मन में और फिर दर्शकों के भीतर फैल जाता है. यही इस फ़िल्म का चरम है, यही इस फ़िल्म का सत्व है.  

अपनी ब्रूटल, असहज करने वाली सिनेमाई शैली में कनु जिन माइकल हेनेके की फ़िल्ममेकिंग के करीब हैं, उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा कि - "हम सब लोगों में उतना ही evil है, जितनी कि अच्छाई है. हम सब लोग इसके निरंतर दोषी हैं, चाहे ये बुराई हम जानबूझकर नहीं भी कर रहे हैं." "डिस्पैच" के बुराई भरे क्राइम जर्नलिस्ट को जब हम देखते हैं तो उसे अच्छे या बुरे में ब्रैकेट कर पाने में दिक्कत होती है. कनु बहल शायद ये अटेंप्ट कर रहे हैं कि न्यायपालिका, शिक्षा, जर्नलिज़्म या कला जैसे अति-पवित्र, नैतिक पेशों से, जहां से हमारी कथाओं के अधिकतर नायक आते हैं, वे भी पड़ताल, संदेह, प्रोब से परे नहीं हैं.  

फ़िल्म खुलने पर जो पहला फ्रेम सामने आता है उसमें लेंस का ब्लर ऐसा आभास देता है, जैसे माइक्रोस्कोप के नीचे किसी बैक्टीरिया को हम देख रहे हैं, लेकिन जब ब्लर क्लियर होता है तो वो मुंबई का रात का लैंडस्केप होता है. आगे ये पूरी फ़िल्म अपनी नैराश्यता में एक आभास यही देती है कि हम सब कीड़े हैं. 


Film: Despatch । Director: Kanu Behl । Cast: Manoj Bajpayee, Rii Sen, Shahana Goswami, Arrchita Agarwaal । Run Time: 2h 31m । Watch at: ZEE5

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