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मूवी रिव्यू: भेड़िया

हॉरर-कॉमेडी बताकर प्रोमोट की गई 'भेड़िया' का कॉमेडी वाला हिस्सा हॉरर पर हावी पड़ता है.

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'भेड़िया' का पोस्ट क्रेडिट सीन मिस करने लायक नहीं.

‘भेड़िए ने मुझे ही क्यों काटा’. भास्कर के मन में चलने वाला ये सवाल बिल्कुल लाज़मी है. दिल्ली की बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम करता था. पता चला कि अरुणाचल प्रदेश के एक गांव में कंस्ट्रक्शन होना है, जिसका कॉन्ट्रैक्ट उसे मिला है. बस फिर क्या, सामान पैक किया और अपने कज़िन को लेकर पहुंच गया अरुणाचल.

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भेड़िये के काटने के बाद भास्कर में शक्तियां आ जाती हैं. उसे दुख है कि भेड़िये ने काटा, लेकिन खुशी है कि बॉडी बन गई. 

वहां एक रात बिना गुस्सा हुए वो इधर उधर निकल जाता है. परिणामस्वरूप नैन मटक्का हो जाता है एक भेड़िया के साथ. और सिर्फ आंखों ही आंखों में इशारा नहीं हुआ, बैठे बैठे जीने का सहारा भी गड़बड़ा जाता है. भेड़िया मुलाकात की निशानी के रूप में उसे काट लेता है. इसके बाद भास्कर भी जुनून वाले राहुल रॉय के पथ पर चलते हुए भेड़िया बन जाता है. हां पता है आप कहेंगे कि वहां तो शेर था. खैर, भेड़िया के रूप के साथ-साथ उसकी सूंघने, सुनने की क्षमता भी कई गुना बढ़ जाती है. भास्कर को ये भेड़िया मेंबरशिप कैंसल करवानी है. इसका इलाज कैसे होगा, आगे वो यही ढूंढने की कोशिश करता है.

# जंगल में कांड हो गया 

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हर फिल्म को एक सोच या विचारधारा बांधकर रखती है. उसके किरदारों की दुनिया उसी सोच के इर्द-गिर्द घूमती है. फिर चाहे किरदारों का उससे भले ही सीधा वास्ता न हो. यहां वो सोच या आइडिया है इंसान और प्रकृति के बीच के मतभेद का. इसके निशान आपको पूरी फिल्म में मिलेंगे. ये कहीं भी अंडर द कवर या छुपकर नहीं रहता. पूरी तरह ऑब्वीयस रखा गया. आप भास्कर जैसे किरदार से मिलते हैं जो मानता है कि बाल्कनी में रखा गमला ही नेचर है. बाकी जंगल-वंगल सब मोह माया. 

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पालिन कबाक और अभिषेक बैनर्जी के हिस्से कॉमेडी पंचेज़ आए. 

फिर कुछ इंसान मिलते हैं जो कट्टर तरीके से नेचर को बचाने के पक्ष में रहते हैं. इन्हीं के बीच से हीरो अपना आर्क तलाशता है. जो कि सही ढंग से पूरा होता भी है. हम सभी भास्कर की दुनिया में हैं. उसके हर एक ट्रान्ज़िशन को फॉलो करते हैं. कहानी के अंत तक उसमें जो बदलाव आता है वो खटकता नहीं. लेकिन भास्कर को कहानी का केंद्र रखकर देखने में फिल्म को एक पॉइंट पर नुकसान होता है. भास्कर को भेड़िया काटता है. वो पूर्णिमा की रात को भेड़िया बन इंसानों को मारने लगता है. किसी भी तरह खुद को ठीक करना चाहता है. इस बात से कभी भी मतलब नहीं रखता कि उसे ऐसे कैसे अनोखे भेड़िये ने काटा कि वो बदल गया.    

इस कारण ऑडियंस भी इसी चीज़ में इंवेस्टेड रहती है कि उसका इलाज कैसे होगा. उसे काटने वाले भेड़िये की मिस्ट्री पर ध्यान नहीं जाता. फिल्म को इसका नुकसान ये होता है कि क्लाइमैक्स में खुलने वाला सस्पेन्स हिट नहीं करता. वो किसी आम पल की तरह आकर गुज़र जाता है. शायद फिल्म भी उसे ग्रांड बनाने के मूड में नहीं दिखती. 

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# तो क्या करूं मैं मर जाऊं?    

‘भेड़िया’ को लिखा है नीरेन भट्ट ने. वो ‘बाला’ और ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ जैसे प्रोजेक्ट्स पर काम कर चुके हैं. कॉमेडी पर उनकी कमांड काफी मज़बूत है. उसका नमूना आपको यहां भी पूरी फिल्म में दिखेगा. ‘भेड़िया’ को ‘स्त्री’ की तरह हॉरर-कॉमेडी बताकर प्रोमोट किया गया था. हॉरर वाले पार्ट के हिस्से में कुछ जम्पस्केर आते हैं. कुछ मौकों पर हल्का-फुल्का चौंकाते हैं लेकिन सीट से उछल जाने जैसा इफेक्ट पैदा नहीं करते. हालांकि ह्यूमर अपना काम पूरी तरह कर जाता है. हर एक शॉट लेता है और कहीं मिस नहीं करता. 

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‘ब्रह्मास्त्र’ के VFX पर काम करने वाली DNEG ने ही ‘भेड़िया’ के VFX पर भी काम किया है. 

नीरेन भट्ट ने आज की ऑडियंस को ध्यान में रखते हुए अपने पंचेज़ डिज़ाइन किए. खासतौर पर 18 से 35 साल की उम्र के लोगों को ध्यान में रखकर लिखे गए. जो पॉप कल्चर को क्लोज़ली फॉलो करते हैं. आप ‘ब्रेकिंग बैड’ का I am the Danger सुनते हैं. शहनाज़ गिल का डायलॉग ‘क्या करूं मैं मर जाऊं, मेरी कोई फीलिंग्स नहीं है’ सुनते हैं. क्लाइमैक्स में सीरियस हो जाने तक से पहले हर जगह पंचेज़ का इस्तेमाल हुआ है. नीरेन भट्ट की राइटिंग के साथ बात करनी ज़रूरी है अमर कौशिक के डायरेक्शन की. 

2018 में आई ‘स्त्री’ को भी उन्होंने ही डायरेक्ट किया था. कागज़ से स्क्रीन पर लाने में अमर कहानी की एंटरटेनमेंट वैल्यू को फीका नहीं पड़ने देते. नीरेन की रची छोटी सी दुनिया को इस कद्र पेश किया गया कि फिल्म देखते वक्त उसके बाहर की दुनिया पर ध्यान नहीं जाता. दो घंटे 36 मिनट के रनटाइम के दौरान कुछ चीज़ें भले ही खटकें, लेकिन वो ऐसी नहीं कि फिल्म को खारिज कर दिया जाए. 

# गुरु घंटाल लोग हैं भई!

अक्सर सोशल मीडिया पर एक पक्ष ये लिखता रहता है कि वरुण धवन को एक्टिंग नहीं आती. वो ओवर एक्टिंग करते हैं. ऐसी बातों को सपोर्ट करने के लिए ‘कूली नंबर 1’ और ‘जुड़वा 2’ जैसी फिल्मों का एग्ज़ाम्पल लिया जाता है. हालांकि ‘भेड़िया’ देखते वक्त ये बातें ध्यान में नहीं आएंगी. फिल्म खालिस एंटरटेनर है. गुंजाइश थी चीज़ों को ओवर ड्रामाटाइज़ करने की. लेकिन भास्कर बने वरुण ऐसा नहीं करते. वो नियंत्रण में दिखते हैं. जितनी ज़रूरत थी, उतने इमोशन और एक्स्प्रेशन डिलीवर कर देते हैं.

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कृति के किरदार अनिका की बैकस्टोरी पर काम नहीं किया गया. 

फिल्म में कृति सैनन ने डॉक्टर अनिका का किरदार निभाया है. अनिका अनिश्चितता से घिरी रहती है. ये करे या वो. कृति उसके हिस्से की दुविधा को अपने चेहरे पर सही से जगह दे पाती हैं. एक पॉइंट पर अनिका को भास्कर के लव इंट्रेस्ट की तरह भी प्रोजेक्ट किया जाता है. मसला ये है कि उन्हें इतना अहम किरदार बनाने के लिए फिल्म उनकी बैकस्टोरी पर कोई काम नहीं करती. उस हिस्से को खाली छोड़ देती है. इन दोनों एक्टर्स के बाद आते हैं कहानी के तीन सबसे अहम किरदार, जिन्हें निभाया अभिषेक बैनर्जी, दीपक डोबरियाल और पालिन कबाक. ‘स्त्री’ वैक जना आपको याद होंगे. एंटरटेनिंग किरदार था. यहां अभिषेक का किरदार ठीक वैसा ही है, और उतना ही एंटरटेन करता है. फिल्म के बेस्ट कॉमेडिक पंचेज़ इसी किरदार के हिस्से आए. और अभिषेक उन्हें तरीके से डिलीवर भी करते हैं. फिल्म और उसकी कॉमेडी में उनका साथ देते हैं पालिन. ये उनकी पहली फिल्म है. उन्होंने जोमीन नाम का किरदार निभाया. पालिन कम बोलते हैं लेकिन कुछ मौकों पर जोक को कम्प्लीट करने का बढ़िया काम करते हैं. 

दीपक डोबरियाल के कैरेक्टर का नाम होता है पांडा. दीपक उसे इस तरह अप्रोच करते हैं कि किरदार कभी भी आउट ऑफ प्लेस नहीं लगता. कभी उसे फन किस्म का बनाते हैं. तो ज़रूरत पड़ने पर उसे उसके हिस्से की सीरियसनेस भी देते हैं.    

वीडियो: क्या आदिपुरुष के VFX ठीक किए जाएंगे?

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