Bala the most nightmarish director in india who is respected by many including anurag kashyap
बाला: वह डायरेक्टर जो एक्टर्स की ऐसी तैसी कर देता, फिर भी एक्टर्स उनकी फिल्म करना चाहते थे
बाला की फिल्म किसी भी एक्टर के जीवन की हाइलाइट होती है. जब वो अपनी फिल्मोग्राफी देखेगी/देखेगा तो जिसकी ओर इशारा करके उसकी आंखें चमक उठेंगी वो बाला की फिल्म होगी.
जब आप अपने अस्तित्व, रुचियों, परिवर्तनहीनता के बाड़े से बाहर जाने को तैयार होंगे तब आपको वे फिल्में मिलेंगी जो सीमित हैं और आपका भजिया बना देंगी.
बाला की फिल्में ऐसी ही होती हैं. भारतीय सिनेमा के सबसे प्रभावी निर्देशकों में से एक हैं. उनकी एक झलक (और सबसे याद रह जाने वाली) यहां देखें फिर आगे बढ़ते हैं:
ये विजुअल उनकी 2013 में प्रदर्शित फिल्म परदेसी की शूटिंग का है. बाला ऐसे ही काम करते हैं. उनकी निर्देशन क्षमता का खौफ ही ऐसा है. वे एक्टर को कुछ नहीं गिनते. उनके लिए कहानी और अपने एक्सप्रेशन से ऊपर कुछ नहीं है. उनकी हर फिल्म के साथ ऐसा ही है.
परदेसी आजादी से पहले मद्रास में चाय के बागानों में बंधुआ मजदूरी करने वाले लोगों की सच्ची कहानी है. कि कैसे 1903 में बागान मजदूरों को कितनी अमानवीय परिस्थितियों में काम करवाया गया. ये फिल्म तब डॉक्टर रहे पॉल हैरिस डेनियल के 1969 में लिखे नॉवेल रेड टी पर आधारित है.
आप इस फिल्म के केंद्रीय पात्र रसा को देखें और नान कडवल की हम्सावल्ली को. उसके बाद इन्हें निभाने वाले एक्टर्स अथर्व मुरली और पूजा गौतमी उमाशंकर को. तमिल एक्टर अथर्व ने इससे पहले जो फिल्म की थी उसमें चॉकलेटी बॉय के रूप में कारें चलाते, रोमांस करते दिखे थे. बाला ने उनका सिर मूंड दिया. चेहरा घिस दिया. दृश्यों के फिल्मांकन के दौरान उठा-उठा कर पटका. बदहवासी में दिखाया. सेट पर उन्हें कोई स्पेशल ट्रीटमेंट नहीं मिला. शूटिंग के दौरान के वीडियो देखेंगे तो वो सतर्कता पाएंगे जो बाला को करीब आते देख अथर्व में आती है. वहीं श्रीलंकाई और साउथ की फिल्मों में पूजा ने इससे पहले काफी ग्लैमरस रोल किए थे. नान कडवल में वे अंधी, काली भिखारन बनीं. जो कष्ट के गहरे सागर में डूबी है.
फिर भी ऐसा क्या है जो एक्टर्स हाथ बांधकर, लाइन में खड़े रहते हैं कि कभी उनकी फिल्म मिल जाए?
परदेसी के एक दृश्य में अभिनेता अथर्व.
दरअसल बाला की फिल्म किसी भी एक्टर के जीवन की हाइलाइट होती है. बुढ़ापे में अकेलेपन के बीच वो सोफे पर बैठकर जब अपनी फिल्मोग्राफी देखेगी/देखेगा तो जिसकी ओर इशारा करके उसकी आंखें चमक उठेंगी वो बाला की फिल्म होगी.
बाला की फिल्मों की हिंसा और अन्य वजहों से उनकी आलोचना होती है. कुछ आलोचना जायज भी है, स्वागत योग्य है. लेकिन बाला परवाह नहीं करते. पहले वे न तो इंटरव्यू देते थे न किसी से बात करते थे. अब अपना प्रोडक्शन हाउस सक्रिय करने के बाद फिल्मों के ट्रेलर या म्यूजिक लॉन्च पर मौजूद रहते हैं, बोलते हैं. कभी-कभार इंटरव्यू देते हैं. इस दौरान भी वे वैसे ही गुस्सैल तानाशाह दिखते हैं, जिनके बारे में अनुमान लगा पाना मुश्किल होता है.
वे आज भी ब्रैंडेड कपड़े नहीं पहनते. पेंट, शर्ट, चप्पल पहनते हैं. सिर में तेल लगाते हैं. करीब से गुजर जाएं तो आपको पता नहीं चलेगा कि ये दो बार का नेशनल अवॉर्ड विनिंग डायरेक्टर है. ये वो हैं जिनको अनुराग कश्यप ने अपनी फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर के शुरू में शुक्रिया कहा था कि बाला व मदुरै के अन्य दो निर्देशकों ने उन्हें प्रेरणा दी अपनी जड़ों की ओर लौटकर फिल्म बनाने की. उनकी परदेसी को अनुराग ने ही मुंबई में रिलीज करवाया.
बाला की पहली ही फिल्म थी सेतु जो 1999 में लगी थी. बाद में सलमान खान को लेकर जो तेरे नाम बनाई गई थी वो सेतु की ही रीमेक थी और सलमान के करियर में तेरे नाम ने गजब का धक्का लगाया, उनकी फैन फॉलोइंग बढ़ाने में राधे के पात्र का बहुत बड़ा हाथ रहा है.
तो सेतु में लीड रोल विक्रम ने किया था. वही जो अभिषेक बच्चन, ऐश्वर्या राय के साथ मणिरत्नम की फिल्म रावण में दिखे थे. वही जिनकी फिल्म थी अपरिचित जिसे डब हिंदी में कई बार टीवी पर देखा होगा. सेतु ने विक्रम को साउथ के सिनेमा में सितारा बनाया.
सेतु के अंतिम दृश्यों में विक्रम.
सेतु में जो हीरो के साथ होता है वो कहानी बाला के एक दोस्त की थी. वो भी एक लड़की के प्यार में पागलखाने पहुंच गया था. इस फिल्म को बनाने में बाला को नारकीय हालातों से गुजरना पड़ा. उनके पास पैसे नहीं थे. विक्रम ने भी अपने पैसे फिल्म में लगा दिए थे, अपनी पत्नी का धन तक. फिल्म बन गई तो कोई वितरक लेने को तैयार नहीं था क्योंकि कोई इतने बुरे अंत वाली कहानी नहीं दिखाना चाह रहा था. 60-65 बार वितरकों को फिल्म दिखाई गई. मुश्किलों के बाद सिर्फ चेन्नई के एक थियेटर के शाम के एक शो में सेतु लगी. लेकिन धीरे-धीरे लोगों के बीच इसका इतना चर्चा हुआ कि 100 से ज्यादा दिन तक ये चली और इसकी रिलीज बहुत व्यापक कर दी गई. बाला को अपनी इस पहली ही फिल्म के लिए नेशनल अवॉर्ड और कई अन्य पुरस्कार मिले.
तमिल सिनेमा में एक और सुपरस्टार हैं सूर्या जो राम गोपाल वर्मा की रक्तचरित्र-2 में नजर आए थे. ये भी स्टार बने तो बाला के कारण. बाला की दूसरी फिल्म नंदा से. इसमें एक बच्चे की कहानी थी जो अपने मां के बहुत करीब है लेकिन उसे सामान्य बचपन नहीं मिलता और अपने पिता को मारकर वो जेल चला जाता है. लौटता है तो हार्डकोर अपराधी बनकर. वो मां के प्यार को तरसता रहता है लेकिन ये अपराध की दुनिया उसे लील जाती है. अपराध की दुनिया और अपराधियों के बनने की ये एक बहुत ही मजबूत विवेचना थी. जैसे सेतु में विक्रम का था, वैसे ही नंदा में सूर्या का करियर बेस्ट परफॉर्मेंस था.
तीसरी फिल्म पीथामगन (पूर्वजों का बेटा) 2003 में आई. इसमें विक्रम और सूर्या दोनों थे. ये कहानी भी एक बच्चे की थी जिसकी मां उसे जन्म देते हुए मर जाती है. शमशान में रहने वाला, मुर्दों को जलाने वाला उसे पालता है. वो बच्चा भावहीन, जानवर की तरह बड़ा होता है. मानव समाज के लिए वो एक गुत्थी होता है, चुनौती होता है. वो समाज की उस व्यवस्था का मुस्कराता चेहरा नहीं बन पाता जो उसके हालात के लिए जिम्मेदार है. लेकिन एक मोड़ पर उसे दोस्ती और प्रेम मिलता है और वो भी अंकुरित होना शुरू होता है लेकिन बाला की अन्य कहानियों की तरह यहां भी सुखद अंत नहीं है. ये भी बहुत ही जबरदस्त फिल्म थी.
फिल्म पीथामगन में विक्रम.
बाला की चौथी फिल्म नान कडवल ही थी जिसे मैंने सबसे पहले देखा था. आमतौर पर हमें कोई किसी फिल्म को लेकर यह कह देता है न कि ये जबरदस्त है, हैरान कर देगी तो देखने वाला इतनी उम्मीद लगा लेता है कि बाद में फिल्म उसे कमतर ही लगती है चाहे वो कितनी ही अच्छी क्यों न हो? नान कडवल को लेकर यही कहूंगा कि ये ऐसी फिल्म है जिसे देखने के बाद आपका मुंह खुला का खुला रह जाएगा और इसे देखने से पहले आप चाहे जितनी उम्मीदें लगा लें, चाहे जितनी अकड़ पाल लें कि मैं इस फिल्म से हैरान नहीं हो जाऊंगा. लेकिन आप हो जाएंगे. अनुरोध यही है कि इसके बारे में ज्यादा कुछ पढ़ने या जानने की कोशिश न करें. सिर्फ देखें. ये बाला की सबसे ताकतवर फिल्मों में से एक है. इसे भी नेशनल अवॉर्ड मिला था.
नान कडवल का एक दृश्य.
निर्देशक के तौर पर बाला की पांचवीं फिल्म एवन आइवन थी जिसमें नान कडवल के लीड एक्टर आर्य और तमिल फिल्मों के कमर्शियल स्टार विशाल सौतेले भाईयों के रोल में थे. इसमें विशाल का अभिनय और लुक उनकी तमाम फिल्मों से अलग है. ये फिल्म भी अपराध की दुनिया को टटोलती है और बेतहाशा. ये भी इस विवेचना को आगे बढ़ाती है कि ये समाज और परवरिश का माहौल ही है जो अपराधियों को जन्म देता है, कोई अपराधी पैदा नहीं हुआ होता है. इस साल प्रदर्शित उनकी छठी फिल्म थरई थप्पटई भी इसी श्रंखला में है. कहानी प्राचीन लोक नृत्य करकट्टम करने वाले समूह को चलाने वाले सन्नासी की है. ये रोल एम. ससिकुमार ने किया है. वही जो अनुराग के इंट्रों में तारीफ पाने वाले दूसरे निर्देशक थे.
बाला के सिनेमा की आलोचना करने वाले इस बिंदु की तरफ कभी ध्यान नहीं देते कि वे अपराध की दुनिया का एक विशिष्ट विश्लेषण करते चल रहे हैं. उनका तरीका अलग है. बाहर से वे बहुत ही कठोर, बुरे, निर्दयी, अकड़ू, तानाशाह दिखते हैं लेकिन उनकी फिल्में इस बात की गवाह है कि वे अपनी कहानियों के पात्र की पीड़ा को भयंकर रूप से महसूस करते हैं और ऐसी दर्दनाक कहानियों वाले समाज की कोई दूसरी बात उन्हें प्रभावित नहीं करती. न ही वे समाज के बाकी सेलिब्रेशन का हिस्सा होना चाहते हैं.
क्योंकि उन्हें पता है अंत में पैसा नहीं बचता है सिर्फ glory बचती है. जो आगामी सभ्यताओं में आपको हमेशा जिंदा रखती हैं.
बाला की जब जब बात हो तब बालु महेंद्रा की भी होगी. श्रीलंकाई मूल के फिल्म निर्देशक, सिनेमैटोग्राफर बालु महेंद्रा एफटीआईआई, पुणे से सिनेमैटोग्राफी पढ़े थे. साउथ के सिनेमा में बेहद ऊंची गुणवत्ता वे लाए थे. क्षेत्रीय भाषा में उन्होंने विश्व का सर्वोत्कृष्ट सिनेमाई व्याकरण शामिल किया. आज भारतीय सिनेमा के दिग्गज माने जाने वाले मणि रत्नम 1982 में जब पहली फिल्म पल्लवी अनु पल्लवी डायरेक्ट कर रहे थे तब सिनेमैटोग्राफर बालु महेंद्रा थे. उन्हीं के कारण मणि अपनी फिल्म में वो विजुअल सेंस प्राप्त कर पाए. बालु से उन्होंने अनेक बातें सीखीं. इन्हीं बालु ने हिंदी फिल्म सदमा का निर्देशन किया था. श्रीदेवी और कमल हसन को लेकर.
बालु महेंद्रा की फिल्मों में असिस्टेंट के तौर पर रहते हुए बाला ने फिल्ममेकिंग सीखी. आज वे जो भी जानते हैं बालु के कारण. दोनों के बीच पिता-पुत्र जैसा रिश्ता था. ये और बात है कि बाला की फिल्में बालु को पसंद नहीं रहीं. यहां तक कि अपनी पहली फिल्म सेतु देखने के लिए बाला ने उन्हें अनेक बार बुलाया लेकिन वे नहीं गए.
जब बालु की मृत्यु हुई तो ये विवाद हुआ कि उनकी तीसरी पत्नी मौनिका को अंतिम दर्शन के लिए बाला ने नहीं आने देने की कोशिशें की. मौनिका ने बाला के बारे में जो कहा उससे भी वे परिभाषित होते हैं. मौनिका ने कहा कि उनके पति (बालु) ने अपने सभी असिस्टेंट्स को सिनेमा की बारीकियों के अलावा कई मानवीय गुण भी सिखाए लेकिन बाला जो उनके सबसे बढ़िया शागिर्द माने जाते हैं उन्होंने दया का गुण अपने गुरु से नहीं सीखा.
हर आदमी में 10-20 आदमी बसते हैं. बाला ने दया का गुण न अपनाया होगा. उनकी बहुत आलोचना हो सकती है. लेकिन जब एक फिल्म बनकर लोगों के बीच आती है तो बस फिर वो फिल्म ही रह जाती है. बनाने वाले गौण हो जाते हैं.
दूसरा, रचनात्मक लोगों के दिमाग में कई तरह के विकार होते हैं जो उन्हें रचने देते हैं. वे हमेशा इन्हीं विकारों से रची चीजों के लिए तारीफ पाते हैं और इन्हीं विकारों द्वारा किए दुर्व्यवहारों के कारण बदनामी.